नई दिल्ली: काबुल में सत्ता तालिबान के हाथों जाने के बाद पहली बार अमेरिका की एक वरिष्ठ राजनयिक ने खुले तौर पर कहा है कि उनका देश तालिबान-विरोधी रेजिस्टेंस ग्रुप के नेताओं के साथ है. स्थानीय मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने कहा कि सुपरपॉवर अमेरिका अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने के लिए प्रतिबद्ध है. फिलहाल दोहा में रह रही अफगानिस्तान में अमेरिकी दूतावास की प्रमुख करेन डेकर ने मंगलवार को ताजिकिस्तान में आयोजित एक सम्मेलन के दौरान यह बात कही.
सम्मेलन अफगान इंस्टीट्यूट ऑफ सिक्योरिटी स्टडीज के कार्यक्रम का 10वां संस्करण था और पिछले साल अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद पहली बार आयोजित किया गया था. ताजिकिस्तान में आयोजित सम्मेलन में सशस्त्र विद्रोह के जरिये अफगानिस्तान में तालिबान शासन का विरोध करने वाले समूह नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट (एनआरएफ) के कई वरिष्ठ सदस्यों ने भाग लिया.
सम्मेलन में दुनियाभर के तमाम स्कॉलर और विशेषज्ञों के अलावा इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट-जनरल असद दुर्रानी समेत पाकिस्तान के कई प्रमुख लोगों ने भी हिस्सा लिया.
एनआरएफ प्रमुख और मारे जा चुके अफगान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने भी सम्मेलन को संबोधित किया और देश में चुनाव कराने का आह्वान किया. उन्होंने कहा, ‘यह लोगों को ही तय करने दें कि वे किस तरह की सरकार चाहते हैं.’
सम्मेलन को संबोधित करने वाली प्रमुख अफगान हस्तियों में पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के शासनकाल में विदेश मंत्रालय संभाल चुके दो नेता रंगिन स्पांता और जालमे रासोल और पूर्व खुफिया प्रमुख रहमतुल्लाह नबिल शामिल थे.
एक भारतीय अधिकारी ने बताया कि ताजिकिस्तान की राजधानी दुशानबे में अपने संबोधन के बाद डेकर इस क्षेत्र से संबंधित विभिन्न बैठकों में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली रवाना हो गईं.
सम्मेलन में मौजूद रहे एक भारतीय अधिकारी का कहना है, ‘अफगानिस्तान को तालिबान और संबद्ध कट्टरपंथी ताकतों के भरोसे छोड़ देने के बाद अब अमेरिका तालिबान-विरोधी समूह का साथ देकर शायद अपनी गलतियों को सुधारना चाहता है.’
गौरतलब है कि अफगानिस्तान को विदेशी सहायता मुहैया कराने वाला सबसे बड़ा दानदाता अमेरिका ही है जो गरीबी झेल रहे इस देश को 45 करोड़ डॉलर की मदद देता है, भले ही उसने तालिबान शासन को मान्यता न दी हो.
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तालिबान और सहयोगियों के बीच बदल रहे रिश्ते
एनआरएफ की तरफ से वैश्विक राजनयिक मान्यता पर जोर दिए जाने के बीच यह सम्मेलन ऐसे समय पर आयोजित हुआ जब तालिबान और उसके सहयोगियों के बीच रिश्तों में खटास आती दिख रही है. पिछले महीने ही अफगानिस्तान में पाकिस्तान के विशेष दूत मुहम्मद सादिक ने मास्को में आयोजित एक बहुपक्षीय सम्मेलन के दौरान तालिबान को आड़े हाथ ले लिया था.
उन्होंने कहा, ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय लगातार अंतरिम अफगान सरकार से कहा रहा है कि सत्ता में राजनीतिक समूहों को भागीदारी दी जाए लेकिन दुर्भाग्य से इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया है.’
क्रेमलिन दूत जमीर काबुलोव ने भी तालिबान की आलोचना करते हुए यह कहा कि उसे मान्यता केवल तभी मिल सकती है जब ‘मानवाधिकारों और राजनीतिक भागीदारी पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा.’
इस सबके बीच, मसूद के प्रति निष्ठा जताते हुए अफगान विद्रोहियों ने तालिबान के खिलाफ कई हमले किए हैं, जिनमें से अधिकांश पंजशीर के पहाड़ी जिले में किए गए.
हालांकि, यूनाइटेड स्टेट्स कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस ने इस साल के शुरू में अपने एक अध्ययन में पाया कि एनआरएफ ‘न तो कोई बहुत ज्यादा सैन्य क्षमता रखता है और न ही उसे व्यापक पब्लिक सपोर्ट हासिल है जो कि संभवतः तालिबान की सत्ता को गंभीरता के साथ चुनौती देने के लिए जरूरी होगा.’
बहरहाल, कुछ देश तालिबान शासन के खिलाफ बगावत को वित्तपोषित करने की संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि तालिबान शासन के तहत इस्लामिक स्टेट एक बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है और देश को अराजकता के भंवर में फंसा सकता है.
इस साल के शुरू में वियना में भी तालिबान-विरोधी नेताओं का इसी तरह का एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें ताजिकिस्तान में हिस्सा लेने वाले तमाम लोग शामिल थे, लेकिन अमेरिका की तरफ से किसी अधिकारी ने हिस्सा नहीं लिया था. हालांकि, एनआरएफ राजनयिक मान्यता हासिल करने की कोशिशों के तहत अमेरिका में लॉबिस्टों के संपर्क रहा है.
उधर, इस्लामाबाद ये उम्मीद कर रहा है कि तालिबान पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रांत को शरिया-शासित राज्य बनाने की कवायद में जुटे जिहादी समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को शरण और मदद देना बंद देगा. हालांकि, इस हफ्ते टीटीपी ने आईएसआई के साथ संघर्ष विराम करार को तोड़ दिया है, और देशभर में आतंकी हमलों की धमकी दी है.
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(अनुवाद: रावी द्विवेदी)
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