अतिवादी हिंदू नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या पर काल्पनिक कथानक वाली किताब ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ और उस पर आधारित फिल्म पर भारत में प्रतिबंध लगाए जाने के 57 वर्ष बाद आज भी सेंसरशिप का वो प्रकरण प्रासंगिक बना हुआ है.
‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ के बारे में तत्कालीन सरकार और आम नागरिकों के रवैये में फर्क सेंसरशिप से हमारे जटिल संबंधों – आज तक कायम – को दर्शाता है.
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‘अपेक्षाकृत एक मामूली किताब’
उस किताब और फिल्म को नेहरू के भारत में प्रतिबंधित किया गया था. उल्लेखनीय है कि दोनों पर अलग-अलग प्रतिबंध लगाए गए थे, एक साथ नहीं. इतिहासकार स्टेनली वोलपर्ट लिखित उपन्यास में महात्मा गांधी की हत्या को केंद्रीय कथानक बनाया गया था.
गांधी, उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे और गोडसे के सहयोगी आप्टे के अलावा सभी पात्रों के नाम काल्पनिक थे. इसमें गोडसे की ज़िंदगी से जुड़ी परिस्थितियों का चित्रण शुरुआत से ही करने का प्रयास किया गया था, जो कि कथित तौर पर उसके हिंसक कृत्य का कारण बनीं. इसमें महात्मा की रक्षा में भारत सरकार की संभावित लापरवाही की ओर भी संकेत किया गया था.
लंदन में प्रकाशित होने के कुछ महीनों बाद भारत सरकार ने पुस्तक को प्रतिबंधित किया. (नॉवेल बैन्ड, टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 सितंबर 1962, पृ.5) अगले दिन जारी स्पष्टीकरण में कहा गया कि प्रतिबंध में ‘किताब की आयात की जा चुकी प्रतियों को रखना और खरीद-बिक्री करना’ भी शामिल है.
रिपोर्ट के अनुसार, ‘आधिकारिक स्रोत यह बताने में असमर्थ थे कि किताब क्यों प्रतिबंधित की गई’ पर ये कहा गया कि इसमें गोडसे का चित्रण ‘गलत परिप्रेक्ष्य में किया गया था और किताब के कुछ अंश विभिन्न वर्गों की भावनाओं को चोट पहुंचा सकते थे.’ (बैन अप्लाइज़ टू पज़ेशन टू, टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 सितंबर 1962, पृ.9)
अख़बार के उसी संस्करण में प्रकाशित एक कॉलम में प्रतिबंध को ‘एक निरर्थक कदम’ बताते हुए कहा गया कि अधिकतर समीक्षाओं में इसे ‘एक मामूली किताब बताते हुए खारिज़’ कर दिया गया था. पर कस्टम्स विभाग के प्रतिबंध को लेकर थोड़ी जिज्ञासा भी दिख रही थी. कॉलम में कहा गया, ‘यह समझना मुश्किल है कि कैसे किताब के प्रकाशन से राष्ट्रीय प्रतिष्ठा धूमिल हो सकती है या उस पर प्रतिबंध लगाकर वापस हो सकती है.’ कॉलम में प्रतिबंध की कार्रवाई को ‘अतिरंजित राष्ट्रीय अहंकार और एक हद तक राजनीतिक अपरिपक्वता’ के रूप में चित्रित किया गया. (करेंट टॉपिक्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 सितंबर 1962, पृ.6)
स्टैनली वोलपर्ट ने ‘सदमा और पीड़ा’, तथा ‘दुख और आश्चर्य’ का इज़हार किया. अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता की दलील देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि अमेरिका और भारत दोनों ही के संस्थापक महापुरुष और नेता ‘स्वतंत्रता में भावपूर्ण आस्था और निरंकुशता के प्रति विरोध भाव’ रखते थे. वोलपर्ट का विचार था कि सरकार को चाहिए कि वह लोगों को पुस्तक पढ़कर अपनी राय बनाने दे. ‘यदि यह काल्पनिक लेखन का घटिया काम है तो यह खुद ख़त्म हो जाएगा.’ उन्होंने भारत को इसके सत्यमेव जयते की आदर्शोक्ति की भी याद दिलाई और खेद व्यक्त किया कि प्रतिबंध के मद्देनज़र ये शब्द खोखले लगते हैं. (बैन ऑन ए नॉवेल, टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 अक्तूबर 1962, पृ.6)
बॉम्बे के एक पाठक ने प्रतिवाद करते हुए लिखा कि किताब पर प्रतिबंध ‘बिल्कुल आदर्शोक्ति की व्याख्या के अनुरूप ही है – क्योंकि यह सत्य को विकृत करती है.’ (बैन ऑन ए नॉवेल, टाइम्स ऑफ इंडिया, श्रीमती दया पटवर्धन, 14 अक्तूबर 1962, पृ.8)
प्रतिबंध लगाए जाने के वर्षों बाद पत्रकार अशोक मलिक को साक्षात्कार में वोलपर्ट ने कहा कि ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ उनके दिल के सर्वाधिक करीब रही किताब थी और वह उसे प्रतिबंधित किए जाने का कारण नहीं समझ पाए. ‘शायद मैं उस समय की भावनाओं के चित्रण में सत्य के बेहद करीब आ गया था.’ (आई हैड लव्ड टू मीट गांधी एंड द बुद्धा, टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 सितंबर 1996, पृ.11)
नाइन ऑवर्स टू रामा : ‘गलती से बनी एक फिल्म’
किताब की पांडुलिपि पूरी होने और आखिरी अध्याय को अंतिम रूप दिए जाने से पहले ही हॉलीवुड निर्देशक मार्क रॉब्सन ने किताब के अधिकार खरीद लिए थे. किताब का नाम पहले ‘डे ऑफ डार्कनेस’ था जिसे बाद में बदल कर ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ कर दिया गया. किताब को भारत में प्रतिबंधित किए जाने से पूर्व रॉब्सन स्क्रिप्ट के 50 पृष्ठों के आधार पर भारत सरकार की अनुमति लेकर भारत में फिल्मांकन पूरी कर चुके थे. (लास्ट नाइन ऑवर्स ऑफ गांधीजी, पी. जी. कृष्णय्या, टाइम्स ऑफ इंडिया, 28 अक्तूबर 1962, पृ.10)
फिल्म के बाह्य दृश्यों का फिल्मांकन दिल्ली, बॉम्बे, पूना और नासिक में किया गया था. इसमें प्रसिद्ध भारतीय कलाकार डेविड और अचला सचदेव शामिल थे. अछूत कन्या (1936) के गीतकार जमुना स्वरूप कश्यप को मिलती-जुलती कद-काठी के कारण गांधी की भूमिका के लिए चुना गया था.
फिल्म ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ में गांधी के जीवन के अंतिम नौ घंटों के दौरान गोडसे की गतिविधियों का काल्पनिक चित्रण किया गया था. इसके लिए फ्लैशबैक्स का जमकर इस्तेमाल किया गया. फिल्म को गोडसे की ‘काल्पनिक जीवनगाथा’ भी कहा जा सकता था – उसे शराब पीते और हत्या से कुछ घंटे पहले खुद को छुपाने के लिए एक यौनकर्मी के यहां जाते भी दिखाया गया था. जब फिल्म के निर्माताओं ने सर्टिफिकेशन के लिए उसे सेंसर बोर्ड को सौंपा तब सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने ‘फिल्म देखने और उसके प्रदर्शन की अनुमति के बारे में सलाह देने’ के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और अन्य मंत्रियों को आमंत्रित किया. (मिनिस्टर्स सी फिल्म ऑन गांधीजी, टाइम्स ऑफ इंडिया, 3 जनवरी 1963, पृ.1)
रिपोर्ट के अनुसार तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक दिन पूर्व फिल्म देख चुके थे.
राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में प्रधानमंत्री नेहरू ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाए जाने को सही ठहराया था. उन्होंने कहा था कि उनको यकीन है कि फिल्म के ‘निर्माता गांधीजी या भारत में किसी अन्य को बदनाम नहीं करना चाहते. पर फिल्म में गांधीजी की उपस्थिति बहुत कम है और जिस व्यक्ति से गांधीजी का प्रतिनिधित्व करने की अपेक्षा है, उसमें गरिमा का अभाव है.’
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उन्होंने फिल्म को ‘गलती से निर्मित’ करार दिया. (डेविएशंस फ्रॉम स्क्रिप्ट इन फिल्म ऑन गांधीजी, टाइम्स ऑफ इंडिया, 28 फरवरी 1963, पृ.5)
सूचना एवं प्रसारण मंत्री बी. गोपाल रेड्डी ने सफाई दी कि सरकार को फिल्म की स्क्रिप्ट सौंपी गई थी, पर फिल्म बनाते समय उसमें बहुत सारे बदलाव कर दिए गए थे.
हालांकि, बॉम्बे की एक पाठक मंत्री के दावे से पूरी तरह सहमत नहीं थी. उसकी दलील थी कि स्क्रिप्ट में परिवर्तन किया गया हो या नहीं, ‘सेक्स से भरपूर, काल्पनिक कथानक’ पर आधारित एक फिल्म ‘जिसमें गांधीजी को हूबहू वैसे ही दिखाया गया है जैसे वे 270 पृष्ठों वाली किताब के अंतिम तीन पन्नों में चित्रित किए गए हैं’, गांधीजी की गरिमा के अनुकूल नहीं हो सकती है. (नाइन ऑवर्स टू रामा, पी.के. रवीन्द्रनाथ, टाइम्स ऑफ इंडिया, 17 मार्च 1963, पृ.8)
इंटरनेट के कारण किताब और फिल्म पर प्रतिबंध आज अप्रासंगिक है, पर प्रतिबंध लगाने की संस्कृति और भी खराब हो चुकी है.
(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं.)
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