प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी शिद्दत से चाहते हैं कि उन्हें एक विश्व नेता के रूप में देखा जाए, और अब उन्हें इस अवतार में उभरने का बढ़िया मौका मिल गया है. लेकिन इसके लिए उन्हें एक कीमत चुकानी पड़ेगी, आसान वोटों के लोभ से उन्हें बचना पड़ेगा.
हाल में जो ‘सीओपी27’ वार्ता खत्म हुई उसमें प्रधानमंत्री मोदी ने कई प्रशंसनीय वादे किए, जिनमें एक यह है कि 2030 तक भारत का अपनी ऊर्जा खपत का आधा हिसा गैर-फॉसिल ईंधन स्रोतों का होगा. ऐसा हुआ तो वह वाकई एक महान उपलब्धि होगी. लेकिन घरेलू सरकारी अधिकारी और मंत्री ऐसे वादों को कमजोर करते रहे हैं.
मोदी सरकार की मजबूरियां
यह एक कड़वी सच्चाई है कि एक साल में गैस की कीमतों में दोगुना इजाफा हो गया है. भारत अपने गैस आधारित बिजली संयंत्रों के लिए आयातित गैस पर निर्भर है. यह स्थिति अच्छी नहीं है. वास्तव में, वित्तमंत्री निर्मला सीतारामण ने कहा है कि हमें इस समस्या के समाधान के लिए कुछ ऐसे फैसले करने होंगे जो पर्यावरण के लिए अनुकूल नहीं होंगे. उन्होंने अक्टूबर में अमेरिका के अपने दौरे के दौरान वाशिंगटन के ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट में कहा, ‘इस स्थिति में, अगर प्राकृतिक गैस हमारी क्षमता से बाहर होगी तब हमें एक हद तक कोयले का इस्तेमाल करना पड़ेगा क्योंकि आपको कम महंगी बिजली चाहिए, और यह सौर या पवन ऊर्जा से हासिल नहीं हो सकती.’
ऐसा कहने वाली वह अकेली नहीं हैं. कुछ गुमनाम सरकारी अधिकारियों ने अंदाजा लगाना शुरू भी कर दिया है और पत्रकारों को यह बयान देने लगे हैं कि भारत को कोयले का उत्पादन बढ़ाना ही होगा क्योंकि प्राकृतिक गैस का उत्पादन स्थिर है और आयातित गैस बहुत महंगी होती जा रही है. इस तरह के गुमनाम बयानों से सरकार अपनी किसी खास योजना के बारे में औपचारिक घोषणा या फैसला करने से पहले उस पर संभावित प्रतिक्रियाओं का अंदाजा लगाती है. अब नज़र रखिए कि देश में कोयले का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाली कोल इंडिया अपने उत्पादन में और कितना इजाफा करती है.
यही मौका है जब प्रधानमंत्री मोदी को आगे आने की जरूरत है. ऊर्जा की कीमत को अपेक्षाकृत कम रखने के लिए भारत को दूसरे महंगे और स्वच्छ स्रोतों की जगह कोयले का इस्तेमाल करना आसान होगा. यह राजनीतिक दृष्टि से भी आकर्षक उपाय है. पश्चिमी देशों की नाराजगी का जोखिम उठाते हुए रूस से तेल का आयात जारी रखकर भारत ने दुनिया को साफ बता दिया है कि कम कीमती ऊर्जा उसकी राष्ट्रीय नीति का अहम हिस्सा है.
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कड़े फैसले लेने वाले विश्व नेता बनते हैं
लेकिन भारत को दुनिया के प्रति एक ज़िम्मेदारी निभानी है. अगर प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उन्हें एक सच्चे राजनेता, एक विश्व नेता के रूप में देखा जाए, तो उन्हें सख्त फैसले करने ही होंगे और दुनिया से किए गए अपने वादों को पूरा करना ही होगा, भले ही इससे देश में उन्हें राजनीतिक लाभ न मिलें.
सख्त फैसला यह होगा कि कोयले का बहिष्कार किया जाए और स्वच्छ ऊर्जा के अपने वादे को पूरा किया जाए. उदाहरण के लिए, परमाणु ऊर्जा को लें. अमेरिका के साथ किया गया बहुचर्चित ‘123 समझौते’ की 2008 में पुष्टि की गई. हालांकि यह एक असैनिक परमाणु समझौता था, लेकिन उसके बाद से एक भी परमाणु बिजली संयंत्र भारत में नहीं लगाया गया है.
वास्तव में, देश की परमाणु ऊर्जा क्षमता में 2009 के बाद से केवल 2.6 जीडब्ल्यू का ही इजाफा हुआ है, जो किसी भी पैमाने से नगण्य है. 2016 में, मोदी सरकार और अमेरिका ने एक संधि की संयुक्त घोषणा की थी जिसके तहत दोनों देश भारत में छह परमाणु रिएक्टर का निर्माण करने वाले थे. कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. अगर मोदी परमाणु बिजली संयंत्र चाहेंगे तो वह बनेगा, यह सिर्फ उनकी इच्छा शक्ति पर निर्भर है.
इसी तरह, सरकार की नीतियों की वजह से बिजली के दूसरे गैर-फॉसिल स्रोतों का भी विस्तार नहीं हो रहा है. दिसंबर 2017 में, सरकार ने पवन ऊर्जा सेक्टर के लिए ‘रिवर्स ऑक्सन बिडिंग’ प्रक्रिया लागू की जिसके तहत बोली लगाने वाले जिस दर पर बिजली बेचेंगे उसके आधार पर परियोजनाओं के लिए बोली लगाएंगे. दर जितनी कम होगी, बोली उतनी बड़ी होगी.
नई नीति इतनी अलोकप्रिय हुई कि पवन ऊर्जा सेक्टर में—जिसमें पिछले चार वर्षों में सालाना औसतन करीब 3.3 जीडब्ल्यू का उत्पादन हुआ—क्षमता वृद्धि 2018-19 में केवल 0.8 जीडब्ल्यू की हुई. इसके अगले वर्ष 1.1 जीडब्ल्यू की क्षमता वृद्धि हुई.
पवन ऊर्जा के विशेषज्ञों के मुताबिक असली बात यह है कि ऊर्जा के स्रोत के रूप में पवन ऊर्जा इतना परिवर्तनशील स्रोत है कि ‘रिवर्स ऑक्सन’ कारगर नहीं हो सकता है. अगर कंपनियां यह होड़ करने लगें कि कौन सबसे कम कीमत पर बिजली बेच सकती है, तो खतरा यह है कि पवन ऊर्जा के उत्पादन की लागत बढ़ती है या उत्पादन गिरता है, तो उनकी परियोजनाएं लाभकारी नहीं रह जाएंगी.
यह एक आसान उपाय है. नीति में सिर्फ ऐसे प्रावधान करने की जरूरत है जिससे पवन ऊर्जा के डेवलपरों के लिए जोखिम कम हो. खबर है कि सरकार इस दिशा में काम कर रही है. लेकिन यह काम जल्दी करने की जरूरत है.
सरकार को इसके साथ ही छतों पर लगाए जाने वाले सोलर पैनल्स के मसले को भी ठीक करना है. प्रधानमंत्री मोदी ने लक्ष्य रखा है कि सोलर पैनल्स से 2022 तक 40 जीडब्ल्यू की क्षमता हासिल की जाएगी. अभी यह क्षमता 7.5 जीडब्ल्यू की ही है. इसकी मुख्य वजह यह है कि राज्य सरकारें घरों में खपत की जाने वाली बिजली पर छूट दे रही हैं, और लोगों को सोलर पैनल्स पर पैसा लगाना फायदेमंद नहीं लग रहा है. अगर आपको सस्ते में बिजली मिल रही है, इसे और सस्ते में हासिल करने के लिए कुछ लाख रुपये और क्यों खर्च किए जाएं?
यह एक पहेली है. बिजली की नीची दरें सभी दलों को वोट बटोरने का आसान उपाय लगता है. इसलिए राज्यों को बिजली की दरें बढ़ाने के लिए कहने का कोई असर नहीं होगा, भले ही यह वित्तीय रूप से जरूरी हो.
प्रधानमंत्री मोदी ने परमाणु और अक्षय ऊर्जा की क्षमताएं बढ़ाने का जो वादा शर्म अल शेख में किया था वह दुनिया में उनका कद ऊंचा कर सकता है, भले ही इसका अर्थ कोयले से सस्ते में पैदा होने वाली बिजली से मिलने वाले कुछ वोट गंवाने पड़ें. लेकिन यही तो वक़्त है जननेता से विश्व नेता बनने का.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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