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Saturday, 16 November, 2024
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मोदी सरकार का अगला बजट अत्यधिक साहसिक नहीं होना चाहिए

पर पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव अभियान की औपचारिक शुरुआत से पूर्व इसमें कई बड़ी व लोकलुभावन घोषणाएं शामिल करेंगे.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार कुछ महीनों में होने वाले आम चुनाव से पहले 1 फरवरी को अपना अंतिम बजट पेश करेगी. अन्य बजटों के विपरीत यह ज़्यादा बड़ा अवसर नहीं होता है; क्योंकि आमतौर पर वर्तमान सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह आने वाली सरकार को नए खर्चों या करों में नहीं उलझाएगी. इसलिए अंतरिम बजट कहलाने वाले आखिरी बजट में पूरे वित्तीय वर्ष के लिए व्यय के प्रावधान शामिल करने से बचा जाता है.

पर, ऐसा लगता है कि मोदी के वित्त मंत्री इस परिपाटी को तोड़ने के लिए तैयार हैं. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का कहना है कि सिर्फ लेखानुदान पेश करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है. और इस रवैये के पीछे कारण स्पष्ट है: वे चाहते हैं कि चुनाव अभियान की औपचारिक शुरुआत से पहले जितना संभव हो बड़ी और लोकलुभावन घोषणाएं की जाएं, क्योंकि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद भाजपा सरकार के लिए पार्टी घोषणा पत्र से इतर नये वादे करने की मनाही होगी.

हालांकि ऐसा नहीं है कि दोबारा निर्वाचित होने के प्रयास में मोदी खुद को बुरी तरह घिरे पा रहे हों, पर वे पूरी तरह सहज भी महसूस नहीं कर रहे होंगे. पिछले साल के आखिर में कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी थी – यह पराजय उन्हीं इलाक़ों में मिली जहां मिले समर्थन के बल पर 2014 के संसदीय चुनावों में मोदी की भारी जीत हुई थी.

सच तो ये है कि मोदी के पास खोने को ज़्यादा सीटें भी नहीं हैं. संसद के निचले सदन में उनका बहुमत हाल के दशकों के भारतीय मानकों के हिसाब से अभूतपूर्व भले ही हो, पर यह अत्यंत अल्प बहुमत है. मोदी को 2014 में 543 सदस्यीय सदन में 282 सीटें मिली थीं, और तब से हुए विभिन्न उपचुनावों में इनमें से कई सीटें उनके खाते से निकल भी चुकी हैं. इस तरह बहुमत खोने के लिए प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में भारी गिरावट की भी दरकार नहीं है. और यदि उन्हें नए सिरे से गठबंधन बनाने की आवश्यकता हुई तो पार्टी के भीतर से ही उनके नेतृत्व को चुनौती मिलने की आशंका बनी रहेगी.

इसलिए विधिवत चुनाव अभियान शुरू होने के पहले के ये कुछ हफ्ते काफी महत्वपूर्ण हैं. मोदी इस अवधि का इस्तेमाल मतदाताओं के उन वर्गों को रिझाने में करेंगे जो कि उनके कमज़ोर प्रदर्शन से सर्वाधिक निराश हैं – यानि छोटे व्यवसायी, वेतनभोगी मध्यवर्ग और किसान.

छोटे व्यवसायी परंपरागत रूप से भाजपा के असल समर्थक रहे हैं – वे पार्टी के वैचारिक अभिभावक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी मूल समर्थकों में से हैं. पर बड़े मूल्य के नोटों को रातोंरात प्रचलन से बाहर करने के मोदी के 2016 के फैसले का विशेषकर इनके व्यवसायों पर बुरा असर पड़ा, क्योंकि इस स्तर के धंधे अक्सर नकद पूंजी पर आश्रित होते हैं. और बात यहीं तक नहीं रही, क्योंकि आगे चलकर सरकार ने अप्रत्यक्ष कर की एक नई व्यवस्था वस्तु एंव सेवा कर (जीएसटी) को अपनाया, जिसका संयोजन और कार्यान्वयन बुरी तरह किया गया. इसके कारण, पहले से ही नोटबंदी की मार झेल रहे छोटे व्यवसायों को जीएसटी के अनुपालन से पड़ने वाले अतिरिक्त आर्थिक बोझ को उठाना पड़ा.

इस वर्ग में अपने साथ विश्वासघात किए जाने का भाव महसूस किया जा सकता है: माना तो यही जाता है कि भाजपा छोटे व्यापारियों की पार्टी है, फिर भी इसकी सरकार ये समझने में नाकाम रही कि छोटे व्यवसायों का संचालन किस प्रकार होता है. अब सरकार कह चुकी है कि वह सालाना 40 लाख रुपये तक के टर्नओवर वाले व्यवसायों को कर से छूट देगी. ऐसी ही अन्य घोषणाओं, सस्ते ऋण की योजना समेत, को बजट में शामिल किए जाने की उम्मीद है.

भारत के अपेक्षाकृत छोटे – पर राजनीतिक रूप से प्रभावशाली – मध्यवर्ग ने हमेशा से ही स्विंग वोट की तरह काम किया है. मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी की जीत में 2014 के चुनाव से पहले इस वर्ग के वोटरों के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस पार्टी से छिटक कर भाजपा की तरफ आने की महत्वपूर्ण भूमिका थी. हालांकि मोदी अब भी मध्यवर्ग के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, पर अब उनको लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं है, साथ ही यह भाव भी स्पष्ट हो चला है कि सरकार मध्यवर्ग की चिंताओं की परवाह नहीं करती. इसीलिए अधिकतर लोगों का मानना है कि बजट में किसी न किसी रूप में आयकर में रियायतें शामिल रहेंगी.

और आखिर में, मोदी आम भारतीयों के उस वर्ग में अलोकप्रिय हो चले हैं जो कि आय के लिए खेती पर निर्भर है. इस सरकार के कार्यकाल में कृषि मूल्यों में – और इस तरह आय में – पहले की जैसी तेज़ी से बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, साथ ही नोटबंदी ने भी कृषि व्यापार पर बहुत बुरा असर डाला. मोदी सरकार का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में सरकारी धन सिंचाई सुविधाओं और सड़क निर्माण जैसे बुनियादी ढांचे के विकास में लगना चाहिए. इस तरह प्राथमिकता तय करने का फैसला बुद्धिमत्तापूर्ण है, पर इससे संबंधित प्रयास पर्याप्त और प्रभावी नहीं होने के कारण किसानों की आमदनी पर उतना सकारात्मक असर नहीं डाल पाए. सरकार पर दबाव बढ़ रहा है कि किसानों को रियायतों का प्रत्यक्ष हस्तांतरण हो, या उनके लिए रियायती दरों पर और अधिक कर्ज की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए.

चुनावी वर्ष में लोकलुभावन योजनाओं की अपेक्षा तो होती ही है. पर, सच्चाई ये है कि मोदी सरकार ने इसमें बहुत देर कर दी है. चुनाव के इतना पास होते अब बहुत कम मतदाता बजट में अधिक धन उपलब्ध कराने के वादे को चुनावी घोषणा पत्रों या रैलियों में किए गए वादों से ज़्यादा ठोस मानेंगे. मोदी और उनके अधिकारियों को ये बात स्वीकार करनी चाहिए कि ऐसे वादों की जगह चुनावी अभियान में ही होती है – न कि अंतरिम बजट में. मोदी से पहले के सभी प्रधानमंत्रियों ने चुनाव पूर्व आखिरी बजट को अगले कुछ महीनों के लिए सरकार के संचालन के माध्यम मात्र के रूप में इस्तेमाल करने की परंपरा का निर्वाह किया है. मोदी को भी ऐसा ही करना चाहिए.

-ब्लूमबर्ग के सौजन्य से

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

 

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