मोदी सरकार अगले सप्ताह अपनी आमदनी-खर्च का अंतिम लेखा-जोखा प्रस्तुत करेगी. तय है कि वह यही बताएगी कि वित्त मंत्री अरुण जेटली के पांच साल के कार्यकाल में सरकार के खजाने में बढ़त हुई है. जाहिर है, इसका आधार वर्ष पिछले सरकार का अंतिम वर्ष यानी 2013-14 होगा. जेटली के बजट में कर राजस्व में 81 प्रतिशत की वृद्धि दिखाए जाने की संभावना है, जबकि इसी अवधि में जीडीपी में (मुद्रास्फीति समेत चालू कीमतों पर) 67 प्रतिशत की वृद्धि हुई. चालू वर्ष के लिए बजट अनुमानों के तहत कुछ कमी का हिसाब रखने के बावजूद सरकार अगर जीडीपी में वृद्धि की तुलना में कर राजस्व में ज्यादा तेजी से वृद्धि करती तो अच्छा होता, हालांकि करमुक्त राजस्व के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. पांच वर्षों में कुल राजस्व में 57 फीसदी वृद्धि का अनुमान है, जिसमें ऋणों में केवल 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यह निश्चित ही एक प्रशंसनीय उपलब्धि है.
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खर्चों के मोर्चे पर सबसे तेज वृद्धि सड़क तथा रेल के लिए हुए आवंटनों में हुई; आधार वर्ष के हिसाब से सड़क के लिए आवंटन में अभूतपूर्व 150 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि रेलवे में निवेश तीन गुना हो गया. रेलवे में, पैमाने में परिवर्तन का अनुमान 2013-14 और चालू वर्ष के आंकड़ों से लगाया जा सकता है— रेल पटरियों को दोगुना या तिगुना किया गया (750 किमी से बढ़कर 18,000 किमी) और गेज परिवर्तन 450 किमी से बढ़कर 5000 किमी का हुआ. रेलवे के राजस्व में धीमी गति से वृद्धि हुई है, शायद इसलिए कि फ्रेट कॉरिडोर जैसी मुख्य परियोजनाओं को अभी शुरू नहीं किया गया है; इसलिए राजस्व में कुल 43 फीसदी की वृद्धि हुई है.
खर्चों में इन तेज बढ़ोत्तरियों के बीच संतुलन रखते हुए कुल सब्सिडी बिल पर कड़ा नियंत्रण रखा गया है, जिसमें इन पांच वर्षों में 4 फीसदी से भी कम की वृद्धि हुई. वैसे, खाद्य सब्सिडी बिल में 90 प्रतिशत की भारी बढ़ोत्तरी हुई, जबकि खाद सब्सिडी बिल लगभग स्थिर रहा और पेट्रोलियम के सब्सिडी बिल में कमी आई. ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम को उल्लेखनीय रूप से ज्यादा फंड मिला है. इस पर खर्च 33,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 55,000 करोड़ रु. किया गया है, जबकि खबरें हैं कि इसके लिए अतिरिक्त आवंटन किए जाने हैं. इस वृद्धि का अधिकांश हिस्सा मजदूरी की दरों में वृद्धि को पूरा करने के लिए है. इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि इस कार्यक्रम के तहत कार्य दिवसों में वृद्धि हुई है या नहीं.
इस बीच केंद्र-राज्य की वित्तीय व्यवस्थाओं में जो परिवर्तन हुए हैं उनके कारण कई तुलनाएं आसान नहीं हैं. फिर भी, गौर करने वाली बात यह है कि स्कूली शिक्षा पर खर्च स्थिर है जबकि उच्च शिक्षा पर खर्च में 40 प्रतिशत की वृद्धि की गई है, जो कि लंबे समय से जारी राष्ट्रीय भेदभाव को दर्शाता है. प्रतिरक्षा के मामले में कंजूसी बरती गई है, खासकर उसके ऊपर पूंजीगत खर्च में, जिसमें मात्र 19 फीसदी की वृद्धि हुई. इसके बरक्स प्रतिरक्षा राजस्व खर्च (इसमें अधिकांश भाग वेतन आदि का होता है) में 48 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. पेंशन बिल पूंजीगत खर्च की तुलना में काफी बड़ा हो गया है. यह एक दुखद कथा है, जबकि देश की प्रतिरक्षा कमजोर दिख रही है. इससे भी बड़ी कथा यह है कि तमाम सरकारी कर्मचारियों का कुल पेंशन बिल बेकाबू होने जा रहा है और यह एक-न-एक किस्म की गारंटीशुदा आमदनी के वादे के दीर्घकालिक खतरे की ओर इशारा करता है.
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इन पांच वर्षों में कृषि, परमाणु ऊर्जा, दूरसंचार, पेयजल, स्वास्थ्य, शहरी विकास तथा आवास, ग्रामीण विकास, और जल संसाधन मंत्रालयों के बजट में भारी वृद्धि की गई, जिसने स्पष्ट किया कि सरकार भारतनेट, ग्राम सड़क योजना, आवास योजना (गरीबों के लिए), स्मार्ट सिटी, स्वच्छ भारत, कृषि सिंचाई योजना, नमामि गंगे जैसे कार्यक्रमों को कितनी प्राथमिकता दे रही है. जाहिर है कि नागरिक उड्डयन जैसे कुछ क्षेत्र उपेक्षित रहे, जिनके बजट सिकुड़ गए. ठोस बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ज़ोर देने की घोषणाओं के मद्देनजर उम्मीद यही की जाती है कुल खर्च संतुलन का झुकाव पूंजीगत खर्च की ओर हो, लेकिन ऐसा बहुत मामूली तौर पर हुआ; सब्सिडी बिल पर नियंत्रण के बावजूद (चालू) राजस्व व्यय करीब उतनी ही तेजी से बढ़ा जितनी तेजी से पूंजीगत खर्च बढ़ा. किसानों को वित्तीय राहत देने के दबाव और किसी तरह की न्यूनतम आय के प्रावधान की जो बातें चल रही हैं उनके मद्देनजर संभव है कि भविष्य में पूरी दिशा उलट जाए और राजस्व के मद खर्च बढ़ा दिया जाए.
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