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Thursday, 21 November, 2024
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संविधान निर्माता नेहरू, पटेल और आंबेडकर संसदीय प्रणाली को लेकर एकमत नहीं थे

आज जब हम संविधान लागू होने के दिन का उत्सव मना रहे हैं, संविधान सभा द्वारा भारत के लिए संसदीय प्रणाली चुने जाने को लेकर गलत धारणाएं अब भी कायम हैं.

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अधिकतर भारतीय यही मानते हैं कि सरकार की संसदीय प्रणाली चुनने का संविधान सभा का फैसला सर्वसम्मत था, जबकि तथ्य इसके विपरीत है: इस मुद्दे पर देश के संस्थापक नेता जवाहरलाल नेहरू, बीआर आंबेडकर और सरदार वल्लभभाई पटेल एकमत नहीं थे.

संसदीय प्रणाली का चुनाव एक राजनीतिक फैसला था. यह 1946 की गर्मियों में कांग्रेस पार्टी की एक बैठक में तय किया गया था, और फिर इस फैसले को संविधान निर्माण प्रक्रिया में पार्टी निर्देश के तौर पर शामिल कर लिया गया. कांग्रेस ने संविधान सभा के गठन की तैयारियों के तहत नेहरू के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था, और अपनी 15 अगस्त की बैठक में इस छोटी-सी कमेटी ने फैसला किया कि स्वतंत्र भारत की सरकार ब्रितानी सरकार के ढर्रे पर होगी. (द फ्रेमिंग ऑफ कॉन्सटीट्यूशन, बीएस राव, यूनिवर्सल लॉ पब्लिशिंग, दिल्ली, 2006, खंड 1, पृ. 331)

उस समय न तो आंबेडकर और न ही पटेल एक पूर्णतया संसदीय व्यवस्था के पक्षधर थे. वैसे देखा जाए तो, महात्मा गांधी तथा पाकिस्तान के संस्थापक एवं ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना भी इसके पक्ष में नहीं थे, हालांकि संविधान निर्माण में उनकी भूमिका नहीं थी.

संविधान निर्माण की प्रक्रिया जब आगे बढ़ी, आंबेडकर और पटेल दोनों ने ही संविधान सभा में सरकार की अलग-अलग प्रणालियों के बारे में अपने विचार रखे. पर उन्हें या तो खारिज़ कर दिया गया या नज़रअंदाज़ किया गया. जहां तक जिन्ना की बात है, उन्होंने 1939 में ही संसदीय प्रणाली के विरोध में अपनी अटल दलील सामने रख दी थी. (द फ्रेमिंग ऑफ कॉन्सटीट्यूशन, बीएस राव, खंड 5, पृ. 28) और, गांधी ने कहा था कि ‘यदि भारत ने इंग्लैंड की प्रणाली की नकल की, तो मेरी ठोस राय है कि इससे उसकी दुर्दशा होगी.’ (गांधी एंड कॉन्स्टीट्यूशन मेकिंग इन इंडिया, डीके चटर्जी, एसोसिएटेड पब्लिशिंग हाउस, 1984, पृ. 71)

जब 1946 के आखिर में संविधान सभा ने काम करना शुरू किया, कांग्रेस की विशेषज्ञ कमेटी के फैसलों ने नेहरू की ही अध्यक्षता वाली संघीय संविधान कमेटी की सिफारिशों का रूप ले लिया. लेकिन, पटेल की अध्यक्षता वाली प्रांतीय संविधान कमेटी ने इससे अलग योजना प्रस्तुत की. (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स, 27 जून 1947)

असहमति दो बिंदुओं पर थी: भारत एकात्मक राष्ट्र बने या संघीय राष्ट्र, और सरकार के प्रमुख का चुनाव प्रत्यक्ष हो या निवार्चित प्रतिनिधियों द्वारा.

नेहरू की कमेटी एक एकात्मक राष्ट्र के विशिष्ट संसदीय तंत्र पर हामी थी, जिसमें कार्यपालिका अप्रत्यक्ष रूप से चुनी गई हो. दोनों कमेटियों की एक संयुक्त बैठक 7 जून 1947 को आयोजित की गई, जिसमें स्वतंत्र राज्य सरकारों के गठन का फैसला हुआ, जहां राज्यपालों की नियुक्ति राज्यों द्वारा ही हो, ना कि केंद्र द्वारा. जहां तक कार्यपालिका की बात है, संयुक्त समिति ने संसदीय प्रणाली जैसी एक व्यवस्था के पक्ष में फैसला किया, जिसमें निर्वाचन वयस्क मताधिकार पर आधारित एक विशेष निर्वाचक मंडल के ज़रिए हो. (विवरण, संयुक्त बैठक, 7 जून 1947, राव, खंड 2, पृ. 609)

पर मामला वहीं ख़त्म नहीं हुआ. नेहरू की कमेटी पुराने ढर्रे पर ही संघीय संविधान विकसित करती रही, जबकि पटेल प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित गवर्नरों वाले प्रांतीय संविधान के विकास में जुटे रहे. कुछ दिनों बाद दोनों कमेटियों की एक और संयुक्त बैठक बुलाई गई. 10-11 जून 1947 को हुई बैठक की अध्यक्षता राजेंद्र प्रसाद ने की और इसमें नेहरू, आंबेडकर, केएम मुंशी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गोविंद वल्लभ पंत, जगजीवन राम, एके अय्यर, केएम पणिक्कर और जेबी कृपलाणी समेत 36 विभूतियों ने भाग लिया.

दो दिनों की तीखी बहस के बाद संयुक्त कमेटी ने एक बार फिर प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति और गवर्नरों के पक्ष में फैसला किया. एक आधिकारिक प्रस्ताव में नेहरू से राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष निर्वाचन के अपनी कमेटी के फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की गई. (विवरण, संघीय और प्रांतीय कमेटियों की संयुक्त बैठक, 11 जून 1947, खंड 2, पृ. 612)

पर नेहरू ने ऐसा नहीं किया

इसके बावजूद, पटेल प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित गवर्नरों की व्यवस्था वाले संविधान के प्रांतीय मॉडल को संविधान सभा में लेकर गए. सदस्यों को उनकी और नेहरू की कमेटियों के बीत मतभेदों के बारे में नहीं बताया गया. उन्होंने पटेल की सिफारिशों को तुरंत मंज़ूरी दे दी. लेकिन कुछ वर्षों बाद, 31 मई 1949 को, एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए संविधान सभा ने अपने फैसले को पलट दिया. (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स)

संविधान के मसौदे में संशोधन कर प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित गवर्नरों की जगह नियुक्त गवर्नरों की व्यवस्था कर दी गई. संविधान सभा के इतिहास में यह किसी प्रमुख संवैधानिक सिद्धांत को पलटे जाने का एकमात्र उदाहरण था.

भारत में सरकार की प्रणाली के प्रकार के बारे में आंबेडकर की राय – और संसदीय प्रणाली जैसी कार्यपालिका को लेकर उनका तीव्र विरोध – उनके संविधान सभा में शामिल होने से पहले से ही भलीभांति ज्ञात थी. उन्होंने 1945 में कहा था कि ‘बहुमत का शासन’ जो कि संसदीय सरकारों का बुनियादी आधार है, ‘सिद्धांतत: असमर्थनीय और व्यवहारत: अनुचित’ है. (प्रेसिडेंशियल एड्रेस, ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन, 6 मई 1945, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज़, खंड 1, पृ. 357-79)

मसौदा समिति के अध्यक्ष का कार्यभार संभालने के मात्र सात महीने पहले उन्होंने संविधान सभा की मूल अधिकारों संबंधी उपसमिति को ‘युनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ की अपनी योजना सौंपी थी. (राव, खंड 2, पृ. 84-104)

उक्त योजना में अमेरिका की राष्ट्रपतीय व्यवस्था से कई समानताएं थीं. जब उनके प्रस्ताव पर बहस होनी थी, आंबेडकर ने बैठक में भाग नहीं लेने का फैसला किया. तब तक वह संसदीय व्यवस्था के कांग्रेस के फैसले का मुख्य समर्थक बन चुके थे.

जब जुलाई 1947 में संघीय संविधान के अपने प्रस्तावों को लेकर नेहरू संविधान सभा में लेकर आए, पार्टी की आकांक्षा के अनुरूप फैसला करने को सदस्य तैयार बैठे थे.

सभा से मुस्लिम लीग के हटने के बाद से उसकी करीब 70 प्रतिशत सीटें कांग्रेस पार्टी के हाथ में आ गई थीं. जैसा कि आंबेडकर ने लिखा, ‘कांग्रेस का इस सदन पर कब्ज़ा है.’ (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स, 17 दिसंबर 1946)

कांग्रेस के सदस्यों को अपनी मर्ज़ी से वोट नहीं करने दिया गया. संविधान निर्माण करने वाली अन्य संस्थाओं के विपरीत, भारत की संविधान सभा पार्टी हाईकमान द्वारा जारी व्हिप की व्यवस्था के तहत काम करती थी.

इसलिए अपनी संघीय संविधान रिपोर्ट – अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति और एक विशिष्ट संसदीय सरकार – के बारे में नेहरू के प्रस्ताव को आसानी से स्वीकृति मिल गई. (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स, 24 जुलाई 1946)

उल्लेखनीय है कि नेहरू के प्रस्तावों पर दो दिनों तक चली बहस में कांग्रेस के तथाकथित बागियों – एचव. कामत, पीएस देशमुख, आरके सिधवा, केटी शाह और एचएन कुंज़रू – में से किसी ने भी कुछ नहीं कहा. इतना ही नहीं राष्ट्रपति के प्रत्यक्ष निर्वाचण के बारे में हरेक संशोधन प्रस्ताव को वापस ले लिया गया. (व्हाई इंडिया नीड्स प्रेसिडेंशियल सिस्टम, भानु धमीजा, हार्पर कॉलिंस, 2015, पृ. 121)

कांग्रेस के एक सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने ये तक स्वीकार किया कि ‘इस मुद्दे पर मैं स्वतंत्र नहीं था’ पर ‘मैं दिल से महसूस करता हूं निर्वाचित राज्यपालों के बारे में हमने प्रांतीय संविधान में जिस योजना को स्वीकार किया उसे संघीय संविधान में भी शामिल किया जाना चाहिए.’ (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स, 23 जुलाई 1946)

यह आश्चर्यजनक है कि संविधान सभा में इस सवाल पर कभी वोटिंग नहीं हुई कि भारत में संसदीय व्यवस्था लागू हो या सरकार की कोई दूसरी प्रणाली. सदस्यों को सिर्फ कमेटियों की सिफारिशों को स्वीकृत करने का विकल्प दिया गया. किसी दूसरी प्रणाली का विकल्प नहीं पेश किया गया और न ही पुनर्विचार की गुंजाइश रखी गई.

जब प्रक्रिया के आखिरी चरण में आंबेडकर ने संसदीय प्रणाली का समर्थन किया – इस प्रसिद्ध टिप्पणी के साथ कि यह राष्ट्रपति प्रणाली के मुकाबले कम स्थायित्व वाली परंतु ज़्यादा उत्तरदायी सरकार देती है – उसे अंगीकार करने का फैसला पहले ही हो चुका था. आंबेडकर महज संविधान के मसौदे को उचित ठहरा रहे थे, जो कि सबको पता था कि कांग्रेस पार्टी द्वारा स्वीकृत है.

हालांकि, एक बार फिर कांग्रेस का एक सदस्य चुप रहने को तैयार नहीं हुआ. जब मसौदे को अंगीकार किया जा रहा था, राम नारायण सिंह ने अचानक कहा, ‘मैं ज़ोर देकर कहता हूं कि यह संविधान वैसा नहीं है जैसा कि देश चाहता था… सरकार की संसदीय प्रणाली को इससे बाहर किया जाना चाहिए; यह पश्चिमी देशों में नाकाम साबित हो चुकी है और यह इस देश की दुर्दशा करेगी.’ (कॉन्सटीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स, 5 नवंबर 1948)

अब समय आ गया है कि भारत संसदीय प्रणाली के चयन पर पुनर्विचार करें.

(भानु धमीजा ‘दिव्य हिमाचल’ अख़बार के संस्थापक/सीएमडी और ‘व्हाई इंडिया नीड्स द प्रेसिडेंशियल सिस्टम’ (हार्पर) के लेखक हैं. ट्विट्टर: @BhanuDhamija)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. नेहरु प्रगतिशील एवं समाजवादी विचारों के सेकुलर व्यक्ति थे।अंधविश्वास और पाखण्डसे बहुत दूर। RSS की स्थापना एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठनके रुप में हुई।मुख्यउद्देश्य
    मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं को संगठित करना तथा रुढ़िवादी,भेदभावपूर्ण,कर्मकाण्डी,
    ब्राह्मण वर्चस्व वाली वर्णव्यवस्था की पोषक
    संस्था थी जो हजारों साल पुरानी सड़ी गली
    परम्परा और राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक
    व्यवस्था पर गर्व करती थी तथा उसे सशक्त
    एवं समृद्ध बनाने की पक्षधर थी। एक ऐसी
    व्यवस्था जिसमें 5%उच्चवर्ण ने देशकी 95% सम्पदा और संसाधन पर कब्जा कर रखा था।
    95% के पास 5% संसाधन थे, उनकी स्थिति
    गुलामों जैसी थी।इन्हें शूद्र कहा जाता था,शूद्रों
    की दो श्रेणियां थी एक छूत यानी जिसका दिया
    खाना,पानी उच्चवर्ण ग्रहण करता था आजका
    पिछड़ा वर्ग इस श्रेणी में आताथा, दूसरा अछूत
    वर्ग था जिसका दिया हुआ उच्चवर्ण नहीं खाता था,उनके साथ जानवरों से भी बद्तर सलूक
    किया जाता था,उन्हें धनरखने,नये वस्त्रपहनने
    तथा सभी प्रकार के आर्थिक, सामाजिक अधि कारों से वंचित रखा गया था।पेड़ों की पत्तियां
    और छाल ही उनके वस्त्र थे,जूठन ही उनका
    भोजन था।उनकी परछाई से ब्राह्मणअशुद्ध हो जाता था।तीनों वर्णो की सेवा करनाउनका धर्म था।शूद्रकी शादी होने पर दुल्हन प्रथम तीन दिन किसी ब्राह्मणकी शारीरिक सेवा देती थी,नीचता
    की पराकाष्ठा ! हिन्दू परम्परा और गौरवशाली
    संस्कृति कहते हैं इसे !!
    RSS ने आजादी की जंग में कभी भाग नहींलिया अंग्रेजों के चाटुकार थे,क्रांतिकारियों कीजासूसी
    करते थे तथा गवाही भी देते थे। भगतसिंह,राज
    गुरु,सुखदेवके विरुद्ध बैरिस्टरसूर्यनारायणशर्मा -संघी ने अंग्रेजोंकी ओर से बहस करतेहुएफांसी की मांग की थी, गवाह थे- शोभासिंह, खुशवंत सिंह पत्रकार के पिता,जीवनलाल एटलस का मालिक, सादीलाल बागपत।
    बैरिस्टर आसिफ अली ने भगतसिह साथियों की
    पैरवी की थी।अन्तत: तीनों को फांसी की सजा
    सुनाई गई ।भगतसिंह ने मांफीनामा देने से मना
    कर दिया। देशद्रोही शर्मा वह गद्दार गवाहों को
    अंग्रेजों ने अकूत चल अचल सम्पत्ति तथा सर की उपाधि दी।
    1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन का संघ ने बहिष्कार किया।बंगाल में मुस्लिम लीग की सर
    कार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी उप। मुख्यमंत्री थे,
    उन्होंने गवर्नर को पत्र लिखकर आन्दोलन को
    कुचलने की शिफारिश की थी।गोलवलकर ने लिखा है :
    ” मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने को तैयार हूं लेकिन जो दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों को बराबरी का अधिकार देती हो ,ऐसी आजादी
    मुझे नहीं चाहिए ।”
    अंग्रेजों के दलाल, देश के गद्दार आज देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं ! यही है संघ का चाल चलन चरित्र!!

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