प्रियंका गांधी वाड्रा को औपचारिक राजनीति में दाखिल तो होना ही था, सवाल सिर्फ यह था कि ऐसा कब होता है. ऐसा लगता है, राहुल गांधी ने फैसला किया कि अब इसका समय आ गया है क्योंकि वह नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने की अपनी सबसे बड़ी जंग लड़ रहे हैं. और इस लड़ाई में क्लास और जीवटता के मामले में खुद से ज़्यादा प्रतिभाशाली व्यक्ति को साथ लाने से बेहतर और क्या हो सकता है? इससे कम से कम इतना तो होगा ही कि लंबे समय से प्रियंका को पार्टी में लाने की मांग कर रहे आम कार्यकर्ताओं में एक नए उत्साह का संचार होगा.
इस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए पार्टी महासचिव के रूप में प्रियंका की नियुक्ति के कई स्पष्ट कारण हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण है यह वास्तविकता कि उत्तर प्रदेश में मुख्य लड़ाई में मायावती और अखिलेश यादव का बुआ-भतीजा गठजोड़ है, जिन्होंने सीटों पर समझौता करते हुए खुद के लिए 38-38 सीटें रखी हैं और चार सीटों को बाकियों के लिए छोड़ा है – संभवत: दो कांग्रेस के लिए और दो अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के लिए.
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दिग्गजों की इस लड़ाई में – एक तरफ संख्याबल में मज़बूत सपा-बसपा, और दूसरी तरफ मोदी-शाह-योगी की चुनावी मशीन का दुर्जेय समीकरण – कांग्रेस अकेले रह गई है. राहुल गांधी ने एक तरह से इसे अपनी नियति मानते हुए अपनी पहले नंबर की प्राथमिकता, मोदी को हराने, पर ध्यान केंद्रित किया है, भले ही इससे कांग्रेस सीधे लाभान्वित नहीं होती हो.
प्रियंका को पार्टी में शामिल करने का उद्देश्य है पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रभुत्व को चुनौती देना, क्योंकि माना यही जा रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को संगठित करने का काम सपा-बसपा गठजोड़ ने बखूबी पूरा कर लिया है. सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा को कमज़ोर करने की आवश्यकता रह गई है और अपेक्षा की जाती है कि ऊंची जातियों के मतदाताओं को भगवा गठजोड़ के खेमे से बाहर लाकर प्रियंका गांधी ऐसा कर पाएंगी. उम्मीद है कि प्रियंका की मौजूदगी मोदी-शाह जोड़ी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में उलझा देगी, और उनके लिए दूसरी जगह चुनाव अभियान चलाना मुश्किल हो जाएगा.
दूसरा कारण राजनीतिक अनुभूति का है. चूंकि भाजपा घोटालों – नेशनल हेराल्ड, ऑग्सटावेस्टलैंड और रॉबर्ट वाड्रा के भूमि सौदों – को लेकर गांधी परिवार को निशाना बना रही है, अब राजनीति में आने के बाद प्रियंका सताए जाने का दावा कर सकती है, और गांधी परिवार कहेगा कि वह बदले की राजनीति का शिकार बन रहा है. कथित रूप से काले धन को सफेद करने के एक मामले में पति रॉबर्ट वाड्रा और उनकी मां के प्रवर्तन निदेशालय की जांच के घेरे में आने के बाद अब प्रियंका सरकार द्वारा व्यक्तिगत रूप से उन्हें सताए जाने का दावा कर सकती है. मतदाताओं में से कुछ उनकी बातों पर विश्वास कर सकते हैं.
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पर साथ ही, दलीय राजनीति में प्रियंका को शामिल करने के फैसले के पीछे परिवार से जुड़ा एक कारण भी हो सकता है. इस समय, पार्टी की कमान सोनिया और राहुल गांधी की जोड़ी के हाथों में है. राहुल पार्टी की दिन-प्रतिदिन के मामले देखते हैं, इसकी रणनीति तय करते हैं और चुनावी मुक़ाबलों में इसका नेतृत्व करते हैं; और सोनिया गांधी तब दखल देती है जब विपक्षी दलों के साथ राहुल का खुद का प्रभाव काम नहीं आता हो.
आने वाले दिनों में भी पर्दे के पीछे सोनिया की मज़बूत भूमिका बनी रहेगी, लेकिन यहां यह सवाल उठता है कि राहुल उस स्थिति मे क्या करेंगे जब उन्हें एक गठबंधन का नेतृत्व करना पड़े या चुनावों के बाद पार्टी के प्रभाव क्षेत्र के विस्तार में जुटना पड़े और पार्टी संगठन को संभालने के लिए उन्हें एक मज़बूत शख्सियत की ज़रूरत हो. तार्किक रूप से यही लगता है कि मई 2019 के बाद सोनिया के नेपथ्य में जाने के बाद, ख़ास कर यदि सारे क्षेत्रीय दल राहुल के नेतृत्व को स्वीकार कर लेते हों, भाई-बहन की जोड़ी ही पार्टी में सत्ता का प्रधान केंद्र बन जाएगी. इस स्थिति के मद्देनज़र पार्टी के सत्ता तंत्र में प्रियंका गांधी को शामिल किया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है, हालांकि अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि 2019 में भाजपा का आसानी से सफाया हो सकता है.
प्रियंका को पार्टी में सक्रिय किए जाने का आखिरी कारण मीडिया निर्मित छवि और वंशवाद के कथानक का प्रबंधन है. एक ओर जहां राहुल गांधी खुद को अभिव्यक्त करने लगे हैं और आम पार्टी कार्यकर्ता उनको लेकर पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा आश्वस्त नज़र आता है, वहीं अब भी ऐसे मतदाताओं की बड़ी संख्या है जो आसानी से राहुल पर भरोसा नहीं करेंगे. और यहीं पर इंदिरा गांधी जैसे हावभाव और अधिक प्रभावी राजनीतिक वृत्ति वाली प्रियंका की भूमिका होगी. कभी भी वंशवाद पर असरदार ढंग से सवाल नहीं उठा सका मीडिया प्रियंका के पीछे-पीछे भागेगा और उनकी कही छोटी सी बात को भी समाचार चैनलों पर देर तक चलाएगा. इससे उन मतदाताओं के अविश्वास को कम करने में मदद मिलेगी जिन्होंने राहुल को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया है, और साथ ही जिनके मन में सोनिया और उनकी इतालवी मूल को लेकर संदेह भी है.
पार्टी कैडर के लिए, राहुल-प्रियंका गांधी कॉम्बो एक अकेले उत्तराधिकारी से बेहतर विकल्प है.
क्या यह रणनीति कामयाब रहेगी? इस वक़्त हां या ना में इसका जवाब देना मुश्किल है, क्योंकि चुनाव अभियान में प्रियंका की भूमिका अभी सामने नहीं आई है, पर इतना तो तय है कि इसका कोई नुकसान नहीं होगा.
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(लेखक स्वराज्य के संपादकीय निदेशक हैं. वह @TheJaggi हैंडल से ट्वीट करते हैं.)