कोलकाता में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में विपक्ष द्वारा आयोजित महारैली ने भाजपा के कैडरों का मनोबल गिरा दिया है. इस भव्य रैली में 20 से अधिक क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों ने हिस्सा लिया था. पार्टी के कार्यकर्ताओं का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की वाहवाही से भरोसा उठने लगा है. दिल्ली में भाजपा के सांसदों और छत्तीसगढ़ में कुछ विधायकों और महाराष्ट्र के कुछ आकांक्षी प्रत्याशियों से हुई बातचीत से पता चलता है कि वो पिछले कुछ महीनों से पार्टी के प्रदर्शन को लेकर उत्साहित नहीं हैं.
बीजेपी खेमें में उमड़ती भावनाएं
ज़मीनी स्तर पर भाजपा के नेताओं में चिंता और घबराहट देखी जा सकती है. पार्टी के वे कार्यकर्ता जिन्हें पूरा भरोसा था कि कांग्रेस पार्टी और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी 2014 में मिली करारी शिकस्त से बाहर नहीं निकल पाएंगे, वे अब अपनी चुनावी संभावनाओं को लेकर चिंतित दिखाई दे रहे हैं.
‘क्या हमें दोबारा चुनाव में उतरना चाहिए?’, ‘जीतने की क्या संभावनाएं हैं ?’ ‘क्या हमें पहली बार में टिकट मिल पाएगा?’ ‘अगर मैं बीजेपी अभी छोड़ देता हूं तो क्या कांग्रेस मुझे टिकट देगी?’ ‘क्या मोदी का जादू अब कम हो गया है?’, ‘क्या शिवसेना अलग हो जाएगी और ऐसा होने से हमारी पार्टी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?’
कार्यकर्ता ऐसे बहुत सारे सवालों का जवाब ढ़ूढनें की कोशिश में लगे हैं.
दो साल पहले यही नेता हर चुनाव में भाजपा की जीत, नरेंद्र मोदी के चमत्कारी प्रदर्शन, अमित शाह की शानदार स्ट्रैटजी, आरएसएस नेटवर्क, बूथ स्तर पर पार्टी की ख्याति बतौर ‘पन्ना प्रमुख’ और उसके फंडिंग प्लान को लेकर आश्वसत थे. अब उनकी चिंता का कारण है कि कहीं भाजपा 200 या फिर 160 लोकसभा सीटों से कम पर न सिमट जाए.
ऐसी स्थिति में वे पूछते हैं, क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होंगे? क्या वो ‘मिस्टर एक्स’ एक नया एनडीए बना पाएगा और कितनी पार्टियां भाजपा के साथ आएंगी?
बहुत सारे लोगों को लगता है कि कथित 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण और ट्रिपल तलाक पर पार्टी का स्टैंड आम जनता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया. हालांकि, ऐसा भी विचार चल रहा कि मुस्लिम विरोधी भावनाएं अभी भी बहुत प्रासंगिक हैं और उत्तर भारत में मतों के ध्रुवीकरण होने की प्रबल संभावनाएं हैं.
भाजपा से टिकट पाने की जद्दोजहद में लगे लोग इस बात की भी उम्मीद कर रहे हैं कि ‘महागठबंधन’ अपने आप को औपचारिक रूप से उतारने में नाकामयाब रहा है और वहां प्रधानमंत्री पद के लिए आम सहमति नहीं बनने से मोदी अभी भी नंबर एक पर बने हुए हैं. उन्हें लगता है कि किसी मजबूत प्रतिद्वंदी के ना होने से, मोदी अभी भी मतदाताओं को अपने पक्ष में कर ले जाएंगे.
क्या है चुनावी गणित
विपक्षी खेमा भी लोकसभा चुनाव को लेकर चिंतित और अनिश्चित दिखाई दे रहा है लेकिन एक साल पहले तक अतिआशावादी भाजपा खेमें की मनोदशा में बदलाव होने की संभावना दिखाई दे रही है.
आम चुनाव को लेकर कुछ अटकलें:
- भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी और राष्ट्रपति नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे. एक बार निमंत्रण पाने के बाद वे अपने नए व पुराने सहयोगियों से 275+ सीटों के लिए ‘डील’ करेंगे. आखिरकार 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेई भी 182 सीट जीतने के बाद एनडीए के कुनबे को साथ ले आए थे. अगर वाजपेई कर सकते हैं तो निसंदेह मोदी भी. वह विश्वासमत भी प्राप्त करने की कोशिश करेंगे और अगले 6 महीने में गठबंधन सुगठित हो जाएगी.दूसरी संभावना है कि भाजपा अपने नेतृत्व को बदलने को मजबूर होगी क्योंकि मतदाताओं को मोदी पर भरोसा नहीं है. इसलिए नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह जैसे नामों पर चर्चा होगी. लेकिन कैडरों को लगता है कि ये सारे नेता अपने दोस्तों का विश्वास जीतने में शायद ही सफल हो पाएंगे.
- लोकसभा में किसी भी पार्टी के पूर्ण बहुमत नहीं आने पर राष्ट्रपति दूसरे सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे. फिर वहां सत्ता को लेकर संघर्ष होगा. कुछ संभावित नाम जो उभर कर सामने आएंगे वे हैं, ममता बनर्जी से लेकर मायावती तक, शरद पवार से लेकर अविवादित चंद्रबाबू नायडू तक.
- सभी को लग रहा है कि कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरेगा लेकिन तब भी वो ऐसी पोजिशन में नहीं आएगा कि टॉप पोस्ट का डिमांड कर सके. किसी भी सूरत में राहुल गांधी के सर्वमानित नेता बनकर उभरने की उम्मीद बहुत कम है क्योंकि सभी दलों में कांग्रेसी विरोधी विरासत है. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर कांग्रेस ने चमत्कारी प्रदर्शन कर भी लिया तब भी राहुल को सत्ता देना चुनौती को स्वीकार नहीं पाएंगे.
- एक संभवाना ये भी जताई जा रही है कि प्रणब मुखर्जी या मनमोहन सिंह एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो सकते हैं, क्योंकि उनके अंदर कम से कम खामियां हैं. यहां तक कि प्रणब मुखर्जी के नाम से आरएसएस को भी कोई दिक्कत नहीं होगी.
- कुछ बड़े नेताओं का यह भी मानना है कि सारी अटकले धड़ाम हो जाएंगी और मोदी 250 से ज़्यादा सीटें जीतने में कामयाब होंगे और उन्हें या फिर भाजपा को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचेगा.
- असल सवाल है: अगले पांच साल लोग क्या करेंगे. क्या मध्यावधि चुनाव होंगे ? या फिर मोदी के ‘मजबूत नेतृत्व’ की वापसी होगी?
मोदी समर्थक अभी भी आशवस्त हैं कि वे 2024 तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे और उनके आलोचकों को मतदाता कड़ा जवाब देंगे. इस मामले में ज्योतिषियों में भी आम सहमति नहीं बन पा रही है कि किसके सितारे चमकेंगे और न ही राजनीतिक पंडितों में कि ईवीएम के सामने मतदाताओं का रुझान किस ओर होगा.
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