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Wednesday, 20 November, 2024
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बिहार, हरियाणा से तेलंगाना तक विधानसभा उपचुनावों में क्यों मोदी-शाह का बहुत कुछ दांव पर लगा है

छह राज्यों में 3 नवंबर के उपचुनाव पहली नजर में राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से महत्वहीन लग सकते हैं. लेकिन इन्हें भाजपा की राजनीतिक बिसात पर रखकर देखेंगे तो समझ आएगा कि पार्टी के लिए इनके क्या मायने हैं.

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एके-47 की जंग ने बिहार में सियासी पारा चढ़ा रखा है. पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर पूर्व में मोकामा में बाहुबली एक बार फिर अपनी ताकत आजमाने में जुटे हैं और इसमें आगे आकर मोर्चा संभाल रही हैं उनकी पत्नियां. मोकामा में विधानसभा उपचुनाव का मौसम है. यह सीट चार बार के विधायक अनंत सिंह को अयोग्य ठहराए जाने के कारण खाली हुई थी, जिन्हें मोकामा में छोटे सरकार के नाम से जाना जाता है और वह इलाके के दबंगों में शुमार हैं. उनके आवास से एक एके-47 के अलावा हथगोले और गोला-बारूद बरामद हुए थे और अंततः इस मामले में उन्हें दोषी पाया गया. इस सीट पर होने वाले उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने उनकी पत्नी नीलम देवी को प्रत्याशी बनाया है.

दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) यहां उसी बात पर अमल करती नजर आ रही है जो मोकामा के लोग अक्सर दोहराते हैं—‘लोहा ही लोहे को काटता है. पार्टी ने यहां एक अन्य बाहुबली लल्लन सिंह की पत्नी सोनम देवी को मैदान में उतारा है. यही नहीं, उन्हें भाजपा में शामिल होने से पहले टिकट भी दे दिया गया था. सोनम देवी को भाजपा का टिकट मिलने से एक दिन पहले ही उनके पति ने जनता दल (यूनाइटेड) से नाता तोड़ा था.

उन्हें चुनने की वजह यह भी रही है कि लल्लन सिंह और अनंत सिंह एक-दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंदी रहे हैं और दोनों के खिलाफ हत्या, जबरन वसूली जैसे दर्जनों आपराधिक मामले दर्ज हैं. कहा जा रहा है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लल्लन सिंह की पत्नी को भाजपा का टिकट दिलाने में अहम भूमिका निभाई.


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उपचुनाव में बाहुबली आजमा रहे ताकत

चुनावी परिदृश्य में एक और माफिया डॉन सक्रिय तौर पर सामने आया है, और ये हैं पूर्व सांसद और हत्या के मामले में दोषी करार दिए जा चुके सूरजभान सिंह. वह अपनी पत्नी वीणा देवी, जो लोक जनशक्ति पार्टी की पूर्व सांसद हैं, के साथ भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. नवादा से लोजपा सांसद और उनके भाई चंदन सिंह ने तो पिछले हफ्ते संवाददाताओं से यह भी कहा था, ‘मोकामा के लोगों को आदरणीय नरेंद्र मोदीजी और सूरजभान जी पर पूरा भरोसा है.’

बहरहाल, मोकामा विधानसभा उपचुनाव सिर्फ बाहुबलियों की लड़ाई की वजह से अहम नहीं माना जा रहा. 3 नवंबर को मोकामा के साथ छह अन्य विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव होना है. इसमें बिहार की ही गोपालगंज सीट, महाराष्ट्र में अंधेरी ईस्ट, हरियाणा में आदमपुर, तेलंगाना में मुनुगोड, ओडिशा में धामनगर और उत्तर प्रदेश में गोला गोकरणनाथ शामिल हैं.

एक तरफ जहां सभी की निगाहें गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर टिकी हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार गृहमंत्री अमित शाह इन विधानसभा उपचुनावों पर गहन नजर बनाए हैं. दरअसल, 6 नवंबर को आने वाले इनके नतीजे न केवल ये संकेत देंगे कि विभिन्न राज्यों में अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में भाजपा किस मुकाम पर है, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की संभावनाओं को परखने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण होंगे.

भाजपा के लिए स्थितियां चुनौतीपूर्ण क्यों

इन सात सीटों में से अंधेरी ईस्ट में भाजपा ने एक खास रणनीति के तहत अपना उम्मीदवार हटाकर शिवसेना को एक तरह से वाकओवर दे दिया है. यह उपचुनाव एक तरफ जहां भाजपा और शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट की पहली चुनावी अग्निपरीक्षा होता, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले शिवसेना गुट की ताकत को भी दर्शाता. और शिवसेना के दोनों गुटों के साथ-साथ दो गठबंधनों—भाजपा भाजपा-बालासाहेबंची शिवसेना और महाविकास अघाड़ी गठबंधन—की ताकत का पैमाना बने इस नतीजे का असर सीधे तौर पर बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के आगामी चुनावों पर भी पड़ने के आसार थे.

ऐसे में भाजपा को आगे चलकर बीएमसी चुनाव में ही दो-दो हाथ करने का विकल्प संभवत: ज्यादा बेहतर लगा होगा. यूपी में गोला गोकरणनाथ विधानसभा उपचुनाव अपना वर्चस्व साबित करने के लिहाज से भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन चुका है. वहीं, विपक्षी समाजवादी पार्टी अगर यहां जीतने में सफल रहती है तो यह उसके लिए सात महीने पहले विधानसभा चुनाव में मिली हार का बदला चुकाने जैसा होगा. इसलिए कोई भी पार्टी इस उपचुनाव को लेकर कहीं कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.

हालांकि, अन्य पांच उपचुनाव सभी पक्षों पर व्यापक असर डालने वाले होंगे. बिहार की मोकामा और गोपालगंज सीट पर उपचुनाव, जदयू के इस साल अगस्त में एनडीए से नाता तोड़ने के बाद, भाजपा और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधनों के बीच पहला बड़ा चुनावी मुकाबला हैं. 40 सदस्यों को लोकसभा भेजने वाले इस राज्य में उपचुनाव के नतीजे साबित करेंगे कि भाजपा विरोधी गठबंधन चुनाव मैदान में कितना ज्यादा असरदार है.

नीतीश कुमार के एनडीए से नाता तोड़ लेने और लोजपा के चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के नेतृत्व वाले दो गुटों में बंट जाने के बाद भाजपा बिहार में अपनी सियासी राह थोड़ी मुश्किल मान रही है. लोजपा में टूट के पीछे जहां नीतीश की अहम भूमिका मानी जा रही है, वहीं प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार के बाहर होने के बाद भी पारस को अपने मंत्रिमंडल में बनाए रखा है.

चिराग पासवान ने शनिवार को अमित शाह के साथ एक बैठक के बाद मोकामा में भाजपा के लिए प्रचार मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया है. बताया जाता है कि स्वर्गीय रामविलास पासवान के बेटे चिराग ने दो-टूक कह दिया है कि वह ऐसे किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगे जिसमें उनके चाचा भी हों. हालांकि, चिराग ने यह खुलासा तो नहीं किया है कि शाह के साथ उनकी बातचीत के दौरान क्या सहमति बनी लेकिन उनके चुनाव प्रचार में उतरने के फैसले से लग रहा है कि पारस की केंद्रीय मंत्रिमंडल से छुट्टी हो सकती है.

पशुपति नाथ पारस खेमे के नेता सूरजभान सिंह और उनके सांसद भाई चंदन सिंह पहले से ही मोकामा में भाजपा उम्मीदवार के लिए प्रचार कर रहे हैं. अब जब चिराग ने उनके साथ प्रचार अभियान में शामिल होने का फैसला किया है तो ये संभावनाएं भी जताई जा रही हैं कि लोजपा का एकीकरण हो सकता है. पारस ने पार्टी के चार अन्य सांसदों के साथ चिराग के खिलाफ बगावत कर दी थी. अब इन बागी सांसदों के लिए बेहद कम जनाधार वाले 70 वर्षीय पारस के खेमे में बने रहने की बजाय पासवान के बेटे के पास लौटना ज्यादा बेहतर विकल्प होगा.

बिहार में भाजपा विधायक सुभाष सिंह के निधन के कारण खाली हुई गोपालगंज विधानसभा सीट पर पार्टी ने उनकी विधवा कुसुम देवी को मैदान में उतारा है. वहीं, राजद की तरफ से वैश्य समुदाय के नेता मोहन गुप्ता मोर्चा संभाल रहे हैं. लेकिन लालू यादव के साले साधु यादव की पत्नी इंदिरा यादव के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतरने से राजद की सियासी राह थोड़ी मुश्किल हो गई है. राजद जहां भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक वैश्यों को बांटने की जुगत में है. वहीं 2020 में इस सीट पर उपविजेता रहे साधु यादव के कारण राजद के यादव वोट बैंक में सेंध लगने का खतरा बना हुआ है.


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क्यों खास मायने रखते हैं ये उपचुनाव

मोकामा और गोपालगंज उपचुनाव के नतीजे इसका पहला संकेत होंगे कि बिहार में नीतीश कुमार के बिना भाजपा किस जगह पर खड़ी है और जेडीयू-राजद-कांग्रेस-लेफ्ट-हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा का गठबंधन क्या जातीय समीकरणों के लिहाज से मुफीद बैठता है. माना जा रहा है कि नतीजों का असर बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन की एकजुटता पर भी पड़ेगा. संयोग से, नीतीश कुमार स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए उपचुनाव में प्रचार से किनारा कर रहे हैं. राजद और जदयू के विलय को लेकर जारी अटकलों के बीच माना जा रहा है कि नीतीश कुमार इन नतीजों के आधार पर ही 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर अपनी रणनीति निर्धारित करेंगे.

तेलंगाना की मुनुगोड़े सीट पर उपचुनाव को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का वर्चुअल सेमीफाइनल माना जा रहा है. कांग्रेस विधायक कोमातीरेड्डी राजगोपाल रेड्डी के इस्तीफे की वजह से यह सीट खाली हुई थी. रेड्डी ने भाजपा में शामिल होने के बाद विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था और अब उसने उन्हें ही यहां उपचुनाव में उतारा है. 3 नवंबर का उपचुनाव ऐसे समय होने जा रहा है जब तीन लोगों को कथित तौर पर तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश में गिरफ्तार किए जाने को लेकर विवाद जारी है.

नवंबर 2020 के बाद से राज्य में भाजपा के हौसले बुलंद हैं, जब उसने डब्बक सीट पर उपचुनाव जीतकर सबको चौंका दिया था. इसके बाद हैदराबाद नगरपालिका चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा और फिर, हुजूराबाद उपचुनाव जीतकर वह राज्य में टीआरएस के लिए एक प्रमुख चुनौती के तौर पर उभरती नजर आई.

इन नतीजों से झटका खाकर मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, जिन्होंने कभी अपने आधिकारिक आवास से बाहर निकलना तक छोड़ दिया था, एकदम हरकत में आ गए और भाजपा से मुकबले के लिए तेलंगाना और दिल्ली में सड़कों पर भी उतरे. यहां तक कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम ही बदल दिया है और इसे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए चुनौती साबित करने में जुटे हैं. अब यह तो मुनुगोड़े उपचुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि उनकी ये तरकीबें कितनी कारगर रहीं या फिर भाजपा राज्य में मजबूती से अपनी जड़ें जमाती जाएगी.

यह चुनाव न केवल आगामी विधानसभा चुनाव की दशा-दिशा निर्धारित करेगा, बल्कि राजनीतिक दलों से साथ जुड़ने-टूटने का एक नया दौर भी शुरू कर सकता है. जहां तक बात कांग्रेस की है तो मुनुगोड़े में हार से उसकी स्थिति और भी खराब हो जाएगी जो कि पहले से ही खुद को राज्य की राजनीतिक में हाशिये पर पा रही है.

ओडिशा की धामनगर सीट का उपचुनाव सत्तारूढ़ बीजू जनता दल और भाजपा के बीच एक कड़ा मुकाबला माना जा रहा है, जिसका (भाजपा का) सारा उत्साह 2019 के ओडिशा विधानसभा चुनावों में अपने खराब प्रदर्शन के बाद ठंडा पड़ गया था. इस साल शुरू में हुए पंचायत चुनावों में भी बीजद विपक्ष को पटखनी दे चुका है. ओडिशा में भाजपा की आक्रामकता की धार कुंद होने की वजह यह भी रही कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के केंद्र के साथ रिश्ते काफी सौहार्दपूर्ण हैं. यही नहीं, भाजपा की यह राय भी रही है कि 76 वर्षीय पटनायक के राजनीति छोड़ने की स्थिति में बीजद को पार्टी में समाहित करने का मौका मिल सकता है.

भाजपा विधायक विष्णु चरण दास के निधन के कारण धामनगर सीट पर उपचुनाव की स्थिति ने भाजपा को एक बार फिर अपनी ताकत बढ़ाने का मौका दे दिया है. धर्मेंद्र प्रधान जैसे केंद्रीय मंत्री यहां पद-यात्रा निकाल रहे हैं और पार्टी ने कैश फॉर वोट को लेकर बीजद के खिलाफ शिकायत के लिए चुनाव आयोग का दरवाजा भी खटखटाया है. ऐसा लगता है कि 2019 में ओडिशा की 21 में से आठ लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपा ने पिछले तीन सालों में खोई जमीन फिर हासिल करने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव किया है. धामनगर उपचुनाव इसकी एक परीक्षा होगा.

आदमपुर सीट की बात करें तो हरियाणा के गठन के बाद से ही पूर्व सीएम भजनलाल के परिवार को यहां कभी हार का मुंह नहीं देखना पड़ा. इस सीट पर एक और सियासी वंशज भव्य बिश्नोई भाजपा उम्मीदवार के तौर पर अपनी किस्मत आजमा रहा हैं. ये सीट हाल में उनके पिता कुलदीप बिश्नोई ने छोड़ी थी, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे. कांग्रेस ने करीब 40 फीसदी जाट आबादी वाले इस निर्वाचन क्षेत्र में पूर्व सीएम भूपिंदर सिंह हुड्डा के करीबी जाट नेता जयप्रकाश को मैदान में उतारा है.

इस उपचुनाव को जहां हुड्डा और भजन लाल परिवार के बीच एक और मुकाबले के तौर पर देखा जा रहा है, वहीं भाजपा की इस पर नजरें टिकाए रहने की कुछ और भी वजहें हैं. गौरतलब है कि भाजपा ने हरियाणा में गैर-जाट मतदाताओं को अपने पाले में लाने की रणनीति के तहत ही 2014 में एक खत्री मनोहर लाल खट्टर को राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया था. अब जबकि विधानसभा चुनाव से दो साल से भी कम समय बचा है, आदमपुर उपचुनाव भाजपा की इसी रणनीति की ताजा परीक्षा है.

अगर अलग-अलग देखें तो चार राज्यों के पांच निर्वाचन क्षेत्रों में 3 नवंबर को होने वाले उपचुनाव राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से अप्रासंगिक लग सकते हैं. लेकिन उन्हें जरा भाजपा की सियासी बिसात पर रखकर देखिए तो आपको यह समझते देर नहीं लगेगी कि ग्रैंडमास्टर मोदी और शाह ने इनमें से हर एक पर बारीकी से नजरें क्यों टिका रखी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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