चंद चालाक लोगों ने
बहस के लिए
भूख की जगह भाषा को रख दिया है
उन्हें मालूम है कि भूख से भागा हुआ आदमी
भाषा की ओर जाएगा…
एक भुक्खड़ जब गुस्सा करेगा
अपनी ही उंगुलियां चबाएगा…
बनारस के सुदामा पांडे ‘धूमिल’ की यह कविता उस सियासी खेल का एक उदाहरण है जो आज भाषा के नाम पर हो रहा है. मध्य प्रदेश सरकार ने एमबीबीएस प्रथम वर्ष की तीन किताबों का हिंदी में अनुवाद कराया है जिसका लोकार्पण केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने किया. उनका दावा है कि अब हिंदीभाषी छात्रों के लिए डॉक्टरी पढ़ना आसान हो जाएगा. हालांकि, शिक्षाविदों की लंबे समय से राय रही है कि बच्चों की पढ़ाई मातृभाषा में होनी चाहिए, इससे सीखने की क्षमता बढ़ती है. लेकिन ऐसा लगता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा में शिक्षा देने की जो चुनौतियां हैं, उन पर ध्यान दिए बगैर सरकार ने एक चुनावी स्टंट किया है.
कहा गया कि 97 डॉक्टरों की टीम ने 4 महीने में तीन किताबों का हिंदी में अनुवाद किया. यह संख्या बताती है कि डॉक्टरों के कंधे पर ऐसा भार डाला गया जिसके लिए वे तैयार नहीं थे. खबरों में कहा गया कि इस प्रोजेक्ट की रूपरेखा खुद मध्य प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने तैयार की. किसी शैक्षिक कार्यक्रम की रूपरेखा किसी विशेषज्ञ की जगह कोई नेता तैयार करे, यह बात भी अपने आप में अनोखी है.
यह भी पढ़ेंः चीन के शहीद दिवस पर उसकी सेना लद्दाख, सिक्किम के पार से भारत को दे रही है सिग्नल
भाषा के तर्क को समझना
मंत्री विश्वास सारंग ने एक और बात कही कि अंग्रेजी के अलावा मेडिकल की पढ़ाई का कोई और विकल्प नहीं है लेकिन छात्रों को ऐसा प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना है, जिससे वे विषय को आसानी से समझ सकें. जिसका विकल्प नहीं है, उसका जबरन विकल्प पेश करना क्या समस्या का समाधान हो सकता है? इस प्रोजेक्ट के लिए सारंग ने पहली मीटिंग बुलाई तो विशेषज्ञ उनसे सहमत नहीं थे. हालांकि, धीरे धीरे वे तैयार हो गए. क्या उनपर दबाव डाला गया?
जिन तीन किताबों का अनुवाद कराया गया है, उनके अंग्रेजी नाम हैं- एनाटॉमी, फिजियोलॉजी और बायोकेमिस्ट्री. हिंदी में ये नाम जस के तस हैं बस लिपि देवनागरी कर दी गई है. अध्यायों के साथ भी यही किया गया. दरअसल, हिंदी माध्यम से विज्ञान और चिकित्सा की पढ़ाई की मुश्किल यही रही है कि अगर तकनीकी शब्दों का हिंदी बनाया जाता है तो वे समझ के परे होते हैं और छात्रों को अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है. विज्ञान और चिकित्सा में तकनीकी शब्दों को हिंदी में समझना बेहद मुश्किल होता है. इसका तरीका यह खोजा गया कि तकनीकी शब्दों का अनुवाद करने की जगह उनकी लिपि बदल दी गई.
क्या लिपि बदल देने से भाषा बदल जाएगी? क्या लिपि बदल देने से भाषा समझ में आने लगेगी? क्या उन शब्दावलियों की व्युत्पत्ति और परिभाषाएं भी हिंदी में उपलब्ध हैं या इसके लिए छात्रों को अंग्रेजी की ही शरण में जाना पड़ेगा?
जिन तीन किताबों का हिंदी अनुवाद जारी किया गया, उन्हें लागू नहीं किया जाएगा क्योंकि अभी बाकी दो साल के छात्रों के लिए हिंदी में किताबें ही नहीं हैं. फिर ये लॉन्चिंग उत्सव क्यों किया गया? कम से कम तीन साल का कोर्स हिंदी में तैयार करके उसकी समीक्षा करना बाकी है, हिंदी लागू करना बाकी है, लेकिन उत्सव मनाया जा चुका है!
छात्र सवाल खड़े कर रहे हैं.
छात्र पूछ रहे हैं कि क्या हिंदी में पढ़ाई करने वाले अंग्रेजी वालों के मुकाबले पिछड़ नहीं जाएंगे? क्या एमबीबीएस में भी हिंदी और अंग्रेजी क्लास बन जाएंगे? अगर उन्हें साथ में पढ़ाया जाएगा तो लेक्चर द्विभाषी होंगे? क्या पढ़ाई को भाषा में उलझाने से गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ेगा? क्या हिंदी में एमबीबीएस करने वाला एमएस या एमडी करने दक्षिण भारत या विदेश जाकर पढ़ सकता है? क्या हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई करने वाला छात्र दक्षिणी राज्यों में प्रैक्टिस कर सकता है? हिंदी माध्यम के छात्र ग्रेजुएशन के बाद चेन्नई, पुणे या बेंगलुरु जाकर आगे की पढ़ाई कर पाएंगे? क्या अब हिंदी प्रदेश के डॉक्टर का प्रदेश में ही रहना अनिवार्य होगा? हिंदी में एमबीबीएस करने वाला छात्र इंटरनेशनल कांफ्रेंस में कौन सी भाषा लेकर शामिल होगा? पेपर कैसे प्रस्तुत करेगा? थीसिस किस भाषा में लिखेगा?
मेडिकल शिक्षा में सारी किताबें और पूरा कोर्स अंग्रेजी में है. तकनीकी शब्दावलियों का अनुवाद हो नहीं सका है, मूल काम और सारा शोध अंग्रेजी में हो रहा है, इसे लेकर हिंदी माध्यम के लिए क्या तैयारियां हैं? जिन देशों में मेडिकल की पढ़ाई अंग्रेजी की बजाय अपनी भाषा में होती है, वहां के मुकाबले भारतीय डॉक्टर बेहतर होते हैं. आज रशिया, यूक्रेन, चीन से उनकी भाषाओं में डॉक्टरी पढ़कर आए छात्रों को भारत में अपनी योग्यता साबित करने के लिए नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन की एफएमजीई परीक्षा पास करनी पड़ती है. वहीं अमेरिका, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया से अंग्रेजी में डॉक्टरी सीखे छात्रों की ये परीक्षा नहीं होती. ऐसा क्यों?
आंकड़ें बताते हैं यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया के देशों में सबसे अधिक भारत से पढ़े हुए डॉक्टर हैं. ये डॉक्टर न सिर्फ भारत के ब्रांड अंबेसडर कहलाते हैं बल्कि देश के विदेशी मुद्रा भंडार में भी मदद करते हैं. हिंदी में डॉक्टरी पढ़ने वाले छात्र क्या दुनिया के किसी देश में जा पाएंगे?
यह भी पढ़ेंः लद्दाख में चीनी सेना का एजेंडा— भारत को हतोत्साहित करो, अपनी शर्तें मनवाओ
प्राथमिकताओं को ठीक करना होगा
जिस मध्य प्रदेश में यह जलसा हुआ, वहीं के छतरपुर का वीडियो वायरल है कि एंबुलेंस नहीं मिलने से एक पिता चार साल की बेटी का शव कंधे पर लेकर भटक रहा है. सिंगरौली में गर्भवती महिला को एंबुलेंस नहीं मिली, नवजात की मौत हो गई जिसका शव पिता मोटरसाइकिल की डिग्गी में लेकर गया. क्या सरकार बता सकती है कि इन अमानवीय परिस्थितियों से निपटने का उसके पास क्या कार्यक्रम है?
मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल के मुताबिक, प्रदेश में तीन हजार से ज्यादा जनसंख्या पर सिर्फ एक डॉक्टर है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन मानकों से करीब तीन गुना पीछे है. पूरे भारत में डॉक्टरों की भारी कमी है और अस्पताल में बेड की उपलब्धता 10 हजार लोगों पर सिर्फ 5 है जो कि दुनिया में सबसे खराब है.
हमारी जरूरतें स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की मांग कर रही हैं, लेकिन सरकार की प्राथमिकता चुनावी उत्सव है.
लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं और जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं. लेखक का @KaunSandeep ट्विटर हैंडल है. विचार निजी है.
यह भी पढ़ें: चीन पिछले कुछ सालों से ‘शीप्लोमेसी’ आगे बढ़ा रहा था, दुनिया तो अब जान पाई