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Friday, 22 November, 2024
होमदेशबिलकिस बानो के 11 दोषियों को समय से पहले रिहाई की मंजूरी मोदी सरकार ने दी, गुजरात ने SC को बताया

बिलकिस बानो के 11 दोषियों को समय से पहले रिहाई की मंजूरी मोदी सरकार ने दी, गुजरात ने SC को बताया

गुजरात सरकार ने सोमवार को शीर्ष अदालत में पेश किए गए अपने 400 से अधिक पन्नों के एक हलफनामे में दोषियों को माफ़ी दिए जाने के खिलाफ दायर याचिका को 'जनहित याचिका के क्षेत्राधिकार का दुरुपयोग' भी कहा है.

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नई दिल्ली: गुजरात सरकार ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार-सह-हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा झेल रहे 11 दोषियों की समय पूर्व रिहाई को मंजूरी दी थी.

यह खुलासा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सदस्य सुभाषिनी अली, पत्रकार रेवती लौल और प्रोफेसर रेखा वर्मा की तरफ से इन दोषियों को दी गई माफ़ी के खिलाफ दायर जनहित याचिका (पीआईएल) के जवाब में राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत 400-पन्ने से अधिक के हलफनामे के हिस्से के रूप में आया. इन 11 लोगों को इस साल 15 अगस्त को ‘अच्छे व्यवहार के कारण’ जेल से रिहा कर दिया गया था, जिसके बाद शीर्ष अदालत में यह जनहित याचिका दायर की गई थी, और फिर अदालत ने 25 अगस्त को इन दोषियों और राज्य सरकार को जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया था.

बता दें कि बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था और उनके मामले में अभियोजन पक्ष की दलीलों अनुसार गुजरात के रंधीकपुर गांव में एक भीड़ द्वारा उनकी तीन साल की बेटी सालेहा सहित उनके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या उस समय कर दी गई थी, जब वे मार्च 2002 के गोधरा दंगों के दौरान जान बचाकर भाग रहे थे. बानो उस समय 19 वर्ष की थीं और वह पांच महीने से गर्भवती भी थीं.

सोमवार को दायर हलफनामे के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव श्री प्रकाश द्वारा दोषियों की रिहाई के सम्बंध में जारी अनुमोदन आदेश की सूचना राज्य के गृह मंत्रालय विभाग को 11 जुलाई को दी गई थी. यह केंद्रीय मंत्रालय को 28 जून को राज्य के गृह विभाग की तरफ से प्राप्त एक पत्र के जवाब में भेजा गया था, जिसमें दोषियों की समय से पहले रिहाई के लिए मंजूरी मांगी गई थी. यह मंजूरी इसलिए मांगी गई थी क्योंकि इस मामले में मुकदमा एक केंद्रीय एजेंसी, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), ने चलाया था.

हलफनामे में आगे खुलासा किया गया है कि सीबीआई, मुंबई के पुलिस अधीक्षक ने पिछले साल मार्च में दोषियों द्वारा दायर समय पूर्व रिहाई के आवेदन का विरोध किया था. साथ ही, सत्र न्यायाधीश, जिन्होंने इस मामले की सुनवाई की थी और इन 11 लोगों को दोषी ठहराया था, ने भी उनकी समय पूर्व रिहाई का समर्थन नहीं किया था.

लेकिन इन दोनों की राय इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से पहले दी गई थी, जिसमें उसने गुजरात सरकार को अपनी 1992 की नीति के अनुसार माफ़ी की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया था, जिसके तहत किसी भी कैदी की माफ़ी के आवेदन पर निर्णय लेने के लिए संबंधित जिला पुलिस अधिकारी, जिला मजिस्ट्रेट और जेल एवं सलाहकार बोर्ड समिति के अध्यक्ष के राय की आवश्यकता होती है.

हलफनामे के अनुसार, मामले के एक दोषी ने जहां अगस्त 2019 में समय पूर्व रिहाई के लिए आवेदन किया था, वहीं शेष 10 ने पिछले साल फरवरी में आवेदन किया था.

सुप्रीम कोर्ट के मई 2022 के आदेश के बाद, संबंधित अधिकारियों – पुलिस अधीक्षक, दाहोद, गुजरात, उसी जिले के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट, गोधरा उप-जेल के अधीक्षक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, जेल और सुधार प्रशासन और जेल सलाहकार समिति – ने इन 10 दोषियों की समय पूर्व रिहाई की सिफारिश की थी.

हालांकि, एक अन्य दोषी – राधेश्याम भगवान दास शाह – के संबंध में जेल सलाहकार समिति को छोड़कर बाकी सभी ने आपत्तियां की थीं. उस मामले में केंद्र सरकार ने जेल सलाहकार समिति की राय पर अमल किया और समय पूर्व रिहाई को मंजूरी दी.


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‘आपराधिक मामले में जनहित याचिका विचारणीय नहीं होती’

जनहित याचिका के विचार योग्य होने पर प्रारंभिक आपत्ति उठाते हुए गुजरात सरकार ने कहा कि ‘तथाकथित सार्वजनिक भावना वाले व्यक्ति’ के कहने पर वर्तमान मामले में न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है.

राज्य सरकार ने कहा कि याचिकाकर्ता के तीसरे पक्ष के अजनबी होने के नाते उसके पास कानून के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित माफ़ी आदेशों को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है.

हलफनामे में कहा गया है कि ‘यह एक पूरी तरह से स्थापित तथ्य है कि एक आपराधिक मामले में दायर कोई जनहित याचिका सुनवाई योग्य होती नहीं है. याचिकाकर्ता किसी भी तरह से उस कार्यवाही से जुड़ा नहीं है, जिसने इन आरोपियों को दोषी ठहराया था और न ही उस कार्यवाही से इसका कोई लेना देना है जो दोषियों को माफ़ी प्रदान करने में परिणत हुई.’

राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत के कई निर्णयों को मिसाल के रूप में संदर्भित किया और कहा कि क्रिमिनल प्रॉसीजर कोड (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) किसी भी तीसरे पक्ष को किसी पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी दिए जाने अथवा इससे इनकार किये जाने के वाजिब होने पर सवाल उठाने, और नियमित परीक्षण के बाद अदालत द्वारा दी गयी सजा अथवा दोषी ठहराए जाने की निंदा करने से रोकता है. इसने कहा कि इसी तरह से किसी तीसरे पक्ष को किसी आपराधिक मामले में दोषी को दी गई माफ़ी पर सवाल उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.

इसने कहा कि याचिकाकर्ता ने स्वयं माना है कि वह एक राजनीतिक पदाधिकारी है और वह इस मामले में दी गई माफ़ी को चुनौती देने के अपने अधिकार को उचित नहीं ठहरा सकी हैं.

जनहित याचिका तभी दायर की जा सकती है जब किसी के मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहे हैं. हालांकि, उक्त मामले में याचिकाकर्ता ने यह नहीं दिखाया है कि कैसे राज्य सरकार द्वारा जारी माफ़ी के आदेश ने उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है.

हलफनामे में कहा गया है, ‘उपरोक्त पृष्ठभूमि में, यह राज्य सरकार का प्रामाणिक विश्वास है कि वर्तमान याचिका जनहित याचिका के अधिकार क्षेत्र के दुरुपयोग के अलावा और कुछ नहीं है.’

इसने दावा किया कि याचिकाकर्ता कोई ‘पीड़ित व्यक्ति’ नहीं है, बल्कि एक मात्र ‘इंटरलॉपर (अनधिकार प्रवेश करने वाला अजनबी)’ है, जिसने ‘बाह्य उद्देश्य’ के लिए इस मामले में जनहित याचिका के अधिकार क्षेत्र को लागू करने का प्रयास किया है.

राज्य सरकार ने इस आरोप से भी इनकार किया कि इन दोषियों को उनकी माफ़ी ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ समारोह के हिस्से के रूप में कैदियों की माफ़ी दिए जाने को नियंत्रित करने वाले सरकारी परिपत्र (सर्कुलर) के तहत दी गई थी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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