सीमाब अक़बराबादी की गज़ल के ये मिसरे….
‘परस्तार-ए-मोहब्बत की मोहब्बत ही शरीअत है
किसी को याद करके आह कर लेना इबादत है
मेरी दीवानगी पे होश वाले बहस फरमाएं
मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की ज़रूरत है’
इन मिसरों में जिस दीवानगी का ज़िक्र है, वो दीवानगी अगर कहीं देखने को मिली तो वो केवल शहनशाह-ए-क़व्वाली, उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खां की महफ़िलों में. हाथ का इशारा अर्श की ओर किए जब वो क़व्वाली गाया करते थे तो तब यूं लगता था कि जैसे उनके हाथ अल्लाह की दिवानगी में उठ रहे हों. वो जन्नत की ओर इशारा कर रहे हों. मंच पर पालथी मार कर जब वो अपना सांतवां सुर लिया करते तो पूरी बज़्म मदमस्ती की लहर में लहरा जाया करती थी. पब्लिक डोमेन पर आज भी उनकी लाईव पेशकश की कई क्वीप्स हैं जहां वो इसी अंदाज़ में गा रहे हैं. वो जहां भी अपनी पर्फ़ामेंस देने गए लोग उनके फन के दीवाने हो गए. न जाने कितने ही नामों से उनको नवाज़ा गया.
जब टोक्यो गए तब लोगों ने प्यार से उन्हे ‘ सिंगिंग बुद्धा ‘ कहा, जब लंदन गए तो वो ‘ स्पिरिट ऑफ़ इस्लाम ‘ हुए और अपने खुद के मुल्क़, पाकिस्तान में तो वो ‘ शहनशाह- ए- क़व्वाली ‘ थे ही. उनके मुनफ़रीद और मुख़्तलीफ़ अंदाज़ ने लोगों की रूह को हर बार वहां ले जाकर छोड़ा जहां पुरसुकूं एहसासात हुआ करते हैं. वो अपनी क़व्वाली की मार्फ़त अल्लाह को पुकारते थे और उनके चाहने वाले उनकी सदाक़त के दम्म पर कल्बी सुकून पाते थे.
कैसे हुए वो नुसरत फ़तेह अली खां….
पाकिस्तानी लेखक अहमद आक़ील रूबी अपनी किताब – ‘ नुसरत फ़तेह अली खां: ए लीवींग लीजेंड ‘ में पैंतालीसवे पन्ने पर लिखते हैं कि –
‘उस्ताद फ़तेह अली खां के जानने वाले तमाम संत-फ़कीर-पीरों में से एक पीर ग़ुलाम ग़ौस समादनी. फ़तेह अली खां को बड़े अज़ीज थे. उस रात दावत थी. दावत के बाद उस्ताद फ़तेह अली खां के बेटा परवेज़ कमरे में आए. घुसते ही अब्बा ने अपनी ओर बुलाया तो पीर ग़ुलाम सहाब ने बच्चे का नाम पुछा. मंद मुस्कान लिए फ़तेह अली खां ने कहा- परवेज़. बस यही सुनना था कि झटककर पीर मियां बोले , आपको पता तो है न कि परवेज़ वो नाम है जिसने प्रोफ़ेट सहाब के शांती प्रस्ताव को न केवल ठुकराया बल्कि बेईज़्जती से फाड़कर मज़ाक बनाया था, ऐसे के नाम पर अपने बच्चे का नाम कैसे हो सकता है. इसका नाम ‘नुसरत’ रखो, नुसरत फ़तेह अली खां!’
और तब से वो परवेज़ नाम का बच्चा नुसरत फ़तेह अली खां हो गया.
अब्बा जी की चाहत:
नुसरत सहाब के वालिद उस्ताद फ़तेह अली खां की तवक़को कुछ और ही थी. संगीत से जुड़ाव होने के बाद भी वो चाहते थे कि उनका बेटा डाॅक्टर बने. मशहूर लखन अहमद आक़िल रूबी अपनी किताब ‘ नुसरत : ए लीवींग लीजेंड ‘ में साफ़ लिखते हैं फ़तेह अली खां एक दबाव के लहजे में नुसरत सहाब को संगीत से दूर रहने की हिदायत दे रहे हैं और कह रहे हैं डाक्टर बनो.
मगर एक रोज़ नुसरत अपने अब्बा जी के हारमोनियम पर उंगलियां रखे हुए सुर लगा रहे थे. नुसरत इस बात से अंजान थे कि वालिद सहाब उकने कमरे की चौखट पर पैर जमाने हैं. इसी बीच किसी ने इशारा किया तो नुसरत घबरा कर उठ गए.
लेकिन अब्बा जी ने नुसरत की आवाज़ सुन कर मुस्कुरा दिया और बिना कुछ कहे चले गए. नुसरत भांप गए थे कि अब्बा जी इम्प्रेस हुए हैं. तब से नुसरत जब भी खाली समय पाते तो रियाज़ में जुट जाते. नुसरत के जीवन की ये वो घड़ी थी जब उन्होंने अपने वालिद को अपने पक्के सुरों से बांधकर ये यकीं दिलाया कि उनकी दुनिया सिर्फ़ संगीत है.
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तबलची नुसरत…
अब्बा जी को यकीं हो चला था कि नुसरत सब जैसा नहीं बल्कि अलहदा है. शायद इसलिए उन्होंने कलकत्ता से आए शास्त्रीय संगीत गायक पं दीनानाथ के साथ संगत देने के लिए नुसरत को कहा.
पं दीनानाथ को अपनी गायकी पर बड़ा गर्व था. उन्होंने नुसरत को एक रोज़ धीमे से कहा कि उनका पाकिस्तान आना बेकार हो गया. उनका ये कहना था कि कोई भी तबलची उनके सुरों के आगे नहीं टिक पाता था, सब हार मान लेते थे. वो बोले कि पाकिस्तान में भी कोई उनकी आवाज़ की टक्कर में कोई ताल ठोकने वाला न मिल सका. नुसरत को ये बात दिल पर लग गई. उन्होंने अपने वालिद फ़तेह अली खां को पं दीनानाथ के लिए संगत देने की इजाज़त मांगी. इजाज़त मिली भी लेकिन ये पता चलने पर कि तबला नुसरत बजाएंगे, पं दीनानाथ ने एक बुरा तंज़ कसा जिसे आज हम बाॅडी शेमिंग कहते हैं. उन्होंने मुझे कहा – ‘ ये मोटा लड़का, नुसरत तबला बजाएगा मेरे लिए? ‘ कि झट से अब्बा ने कहा, हां.
नुसरत के लिए चुनौती बड़ी भारी थी. खुद की पेशकश, पिता का उनपर बढ़ता विश्वास और इतने कम समय में तैयारी पूरी करना किसी पहाड़ उठाने जैसी चुनौती थी. मगर नुसरत तो नुसरत थे. कर के ही माने. बीजली की रफ़्तार से तबले की खाल पर ठपकती ऊंगलियों ने पंडित जी का ध्यान पुरा नुसरत की ओर खींच लिया था. अंत आते आते नुसरत का माथा चूम कर पंडित दीनानाथ ने फ़तेह अली खां को कहा – मैं हार गया, तुम्हारा बेटा बहुत बड़ा हुनरबाज़ है.
सुफ़ीया नुसरत..
अपनी प्रतिभा से सबको अपना कायल करने वाले नुसरत साहब खुद एक ऐसे परिवार से आते थे जहां एक मुद्दत से संगीत को संवारा गया. बड़ी ही कम उम्र में नुसरत राग पहचानने लगे थे. वो शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे. अपने अब्बा की चालीसवीं पुण्यतिथि पर भी उन्होंने एक राग की पेशकश की. जितनी सच्चाई इस बात में है कि उनकी प्रतिभा इश्वर की तौहफ़ीक है उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि नुसरत भी अपनी आवाज़ के ज़रिए खुदा की शान में तौहफ़ीकें अता करते थे. कुछ इस ही तरह नुसरत ने इश्वर का मार्ग चुना.
अली का नाम लेकर उन्होंने अपनी क़व्वाली की महफ़िल को रूहानी कर दिया. लोगों ने भी उनको बड़ा प्यार दिया. मगर नुसरत स्वभाव के बड़े संजीदा और सादापोश शख़्स थे. उन्हें ना तो धन का लोभ था ना किसी चीज़ की लालसा. वो अब हमावक़्त केवल अल्लाह का नाम लिया करते थे.
फिर चाहे, ‘अल्लाह हू‘ हो या ‘ आस्तां है ये किस शाह-ए-ज़ीशान का‘ ..
उनकी हर क़व्वाली में अल्लाह की मौजूदगी, उनका एहसास, उनकी ख़ुबसूरती बल्कि उनके हर नक़्श को वो अपने उसी ज़ोरदार लहजे में गाया करते थे. उनकी क़व्वाली के बोल अक़्सर सूफ़ी संत जलालुद्दीन रूमी, खुसरो , बाबा फ़रीद, या फिर बुल्लेशाह के हुआ करते थे. एक तरह से हम ये मान सकते हैं की पिछली शताब्दी में सूफ़ी संगीत को प्रचलन में लाने का काम क़व्वाली के ज़रिए नुसरत सहाब ने किया वो किसी ने नहीं किया. एक बार नुसरत ने अपने सपने में अजमेर शरीफ़ की दरगाह पर खुद को क़व्वाली गाते देखा. और फिर कुछ ही दिनों में उन्होंने वाकई वहां जाकर क़व्वाली की पेशकश की. उनके इस सपने का ज़िक्र उनके कई चाहने वालों ने किया. हर चीज़ अच्छी थी मगर उनका भारी शरीर उनपर बहुत भारी पड़ा. लोग कई बातें कहते हैं उनकी मौत को लेकर. मगर बात बस इतनी है कि 13 अक्टूबर 1948 में जन्में नुसरत साहब 48 साल की उम्र में उस अर्श को टक्कर देकर लौटने वाली आवाज़ ने दम्म तोड़ दिया. 16 अगस्त सन् 1997 को नुसरत साहब इस दुनिया को छोड़ गए.
(लेखिका फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं)
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