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Monday, 18 November, 2024
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गुजरात पिटाई मामले में केजरीवाल, राहुल, ममता की चुप्पी विपक्षी खेमे में गहरे संकट को दिखाती है

क्या तटस्थ राजनीति विपक्ष के लिए कोई दीर्घकालिक स्थायी सियासी रणनीति है? राहुल गांधी और केजरीवाल को मोहन भागवत की बात ध्यान से सुननी चाहिए थी.

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जुलाई 2016 में जब गुजरात के ऊना में सात लोगों को एक गाड़ी से बांध दिया गया और फिर गोरक्षकों ने उन्हें बुरी तरह पीटा, उस समय तो पीड़ितों और उनके परिजनों से मिलने के लिए मोटा समाधियाला गांव और अस्पताल में राजनेताओं का तांता लग गया था. गुजरात विधानसभा के चुनाव होने में सिर्फ 17 महीने बाकी थे. सबसे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी गांव पहुंचे और फिर आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल. बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती बाद में अहमदाबाद के एक अस्पताल जाकर पीड़ितों से मिलीं. तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने इसे ‘संगठित अपराध’ करार दिया. वहीं केजरीवाल बोले—’हां, हम राजनीति कर रहे हैं लेकिन सिर्फ न्याय पाने के लिए.’

अब बात अक्टूबर 2022 की. गुजरात के उंधेला गांव में एक गरबा आयोजन के दौरान कथित तौर पर पत्थरबाजी को लेकर 10 लोगों को सादे कपड़े पहने पुलिसकर्मियों ने खुलेआम जमकर पीटा. घटना की वीडियो क्लिप उसी तरह वायरल हुईं जैसे ऊना की घटना के समय हुई थीं. घटना को छह दिन बीत चुके हैं. किसी राजनेता ने उधर का रुख नहीं किया है. गांव का दौरा करने की तो बात छोड़िए, राहुल गांधी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया देना तक उचित नहीं समझा.

केजरीवाल शनिवार को आदिवासियों को संबोधित करने के लिए करीब 200 किलोमीटर दूर स्थित दाहोद जाते समय रास्ते में अहमदाबाद में उतरे. उन्होंने सभी गुजरातियों को अयोध्या के राम मंदिर की ‘मुफ्त यात्रा’ कराने का वादा किया. ऐसा लगा कि आप संयोजक उंधेला में मुस्लिमों को पीटे जाने की घटना से अनजान थे. उंधेला अहमदाबाद से लगभग 45 किमी दूर है. ममता बनर्जी ने भी चुप्पी साध रखी है. हालांकि, उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में शिकायत दर्ज कराई है. गुजरात में अगले 2 महीनों में चुनाव होने वाले हैं.

तो, आखिर ऊना और उंधेला की घटनाओं पर हमारे राजनेताओं की प्रतिक्रियाओं में अंतर क्यों है? सीधी बात है. ऊना में पीड़ित दलित थे, जबकि उंधेला में पिटने वाले मुसलमान.

लखीमपुर खीरी सामूहिक बलात्कार कांड याद है जिसमें दो दलित लड़कियां एक पेड़ से लटकी मिली थीं? विपक्षी नेताओं ने ट्वीट कर संवेदनाएं जताने की झड़ी लगा दी. और महिलाओं की रक्षा करने में योगी आदित्यनाथ सरकार की नाकामी और उत्तर प्रदेश में बिगड़ती कानून-व्यवस्था को लेकर आलोचना भी की. अब इसकी तुलना दो साल पहले हाथरस में सामूहिक बलात्कार की घटना पर उनकी प्रतिक्रिया से करें. रेप पीड़िता दलित की मौत के बाद राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, जयंत चौधरी, टीएमसी के सांसद, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता सभी हाथरस पहुंचने लगे थे. उस मामले में आरोपी ‘उच्च जाति’ के हिंदू थे; जबकि लखीमपुर खीरी में आरोपी मुसलमान हैं.


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मुसलमान ‘जानते हैं’ कि विपक्ष क्या कर रहा है

बिलकिस बानो रेप केस के दोषियों की रिहाई पर विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया भी लगभग अनमनी ही नजर आती है—एक ट्वीट, एक बयान, या एक-दो जगह प्रेस कॉन्फ्रेंस करना, भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं की निंदा करना और फिर इसके बारे में सब कुछ भूल जाना. अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के उनके सहयोगियों ने तो प्रतिक्रिया देने तक की जहमत नहीं उठाई. आपको क्या लगता है कि विपक्षी नेता गुजरात में सामूहिक बलात्कार और कई हत्याओं के दोषियों की रिहाई को कोई मुद्दा क्यों नहीं बना रहे जहां दो महीने में ही चुनाव होने वाले हैं? क्या उन्हें गुजरात की 2.14 करोड़ महिला मतदाताओं की परवाह नहीं है?

बेशक, विपक्षी नेता परवाह करते हैं. लेकिन सिर्फ यह कि मुसलमानों से राजनीतिक तौर पर एक सुरक्षित दूरी बनाए रखें, चाहे वे उंधेला के पीड़ित हों या फिर लखीमपुर खीरी जैसे मामले में आरोपी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत की धार्मिक असंतुलन दूर करने के लिए व्यापक जनसंख्या नियंत्रण नीति की बहुप्रचारित मांग पर राजनीतिक वर्ग की चुप्पी को भी देखें. केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन और एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी को छोड़कर, लगभग सभी विपक्षी नेताओं ने गहरी चुप्पी साध रखी है.

मुसलमानों से संबंधित किसी भी बात पर केजरीवाल की चुप्पी को सही ठहराते हुए आप के एक नेता ने मुझसे कहा, ‘आपको सिंथेटिक ट्रैक और डर्ट ट्रैक पर अलग-अलग ढंग से खेलना होगा. भाजपा चाहती है कि हम उसके सिंथेटिक ट्रैक (हिंदुत्व) पर खेलें, लेकिन हम उसे अपने डर्ट ट्रैक (विकास के मुद्दों) पर लाएंगे.’

मैंने पूछा, ‘लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इससे मुसलमान आप से दूर हो सकते हैं?’

इस पर जवाब आया, ‘बिलकुल नहीं. वे समझते हैं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं.’ हो सकता है कि आप नेता गलत न कह रहे हों. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान, शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन पर केजरीवाल की चुप्पी की खासी आलोचना की गई थी. लेकिन आप ने ओखला, मटिया महल, बल्लीमारान जैसी मुस्लिम बहुल सीटों पर जीत हासिल की.

विपक्षी नेताओं के मुताबिक, इसके पीछे सीधा-सा सियासी समीकरण यह है कि हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण के जितने अधिक प्रयास किए जाते हैं, उसका नतीजा मुस्लिमों के उतने ही प्रति-ध्रुवीकरण के तौर पर सामने आता है जो किसी ऐसी पार्टी को वोट देंगे, जिसे भाजपा के लिए प्रमुख चुनौती माना जा रहा हो. इसलिए, विपक्षी नेता मुसलमानों को अपना भला-बुरा खुद सोचने के लिए छोड़कर खुद अपनी हिंदू पहचान का फायदा उठाने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं.

चुनावी रणनीति के तौर पर इसकी भी अपनी खूबियां हैं. दिल्ली में पिछले चुनाव के नतीजे इसका स्पष्ट उदाहरण हैं. भाजपा नेताओं ने भी निजी तौर पर स्वीकारा है कि 2017 के गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें कड़ी टक्कर दी क्योंकि वह उनकी ‘चाल’ (हिंदू बनाम मुस्लिम विमर्श) में नहीं फंसी. इस नजरिये से विपक्षी दलों को अपनी जगह सही माना जा सकता है.

भागवत की बात को ध्यान से सुनिए

लेकिन क्या यह लंबे समय तक चलने वाली एक स्थायी सियासी रणनीति है? गांधी और केजरीवाल को मोहन भागवत का दशहरा भाषण अधिक ध्यान से सुनना चाहिए था. भागवत ने कहा, ‘संघ के खिलाफ अनदेखी, झूठ, द्वेष, भय और स्वार्थ को लेकर जो दुष्प्रचार किया गया था, वो अब अपना असर खो चुका है. ऐसा इसलिए क्योंकि संघ की भौगोलिक और सामाजिक पहुंच काफी बढ़ गई है. इसकी ताकत काफी बढ़ी है. यह अजब सच्चाई है कि इस दुनिया में सुने जाने के लिए सच को भी ताकत की जरूरत होती है.’

उनके संदेश को चार शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है: आरएसएस ने आखिरकार एक मुकाम हासिल कर लिया है. अपनी स्थापना के 97 सालों बाद संघ अपनी ताकत और पहुंच दिखाने में कोई संकोच भी नहीं कर रहा है. आरएसएस प्रमुख ने कहा, ‘अब जब संघ को लोगों का स्नेह और भरोसा हासिल हो रहा है और वह मजबूत भी हो रहा है तो हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को भी गंभीरता से लिया जा रहा है.’

वह घमंड नहीं कर रहे थे. भारत के राजनीतिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र प्रमुख विषय रहे हैं. आरएसएस को बहुत अधिक अहमियत भी मिल रही है. यहां तक कि मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं तक ने आरएसएस प्रमुख से बात करना शुरू कर दिया है, नतीजा भले ही कुछ भी हो. वो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेता हैं जो पसमांदा के लिए कल्याणकारी योजनाओं, तीन तलाक आदि की बात कर रहे हैं, जबकि तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेता मुसलमानों से जुड़ी किसी भी चीज या यूं कहें कि हर बात से दूर भाग रहे हैं. उनकी राजनीति और उधार की विचारधारा ने संघ और भाजपा को ही मजबूत किया है. इसलिए विपक्षी खेमे में शामिल राहुल गांधी और केजरीवाल को भागवत को ध्यान से सुनने की जरूरत थी.

मुस्लिम-तटस्थ राजनीति और विचारधारा के सहारे हिंदुत्व का मुकाबला नहीं किया जा सकता है. जैसा ऊपर उद्धृत आप नेता ने कहा विपक्ष ‘डर्ट ट्रैक’ पर अच्छा प्रदर्शन कर सकता है, लेकिन ये किसी सामान्य दौड़ प्रतियोगिता के लिए अच्छा है. यदि किसी ओलंपियन—इसे भाजपा के संदर्भ में पढ़ें—से भिड़ने का इरादा रखते हैं तो उन्हें ‘सिंथेटिक’ ट्रैक की आदत डाल लेनी चाहिए. अन्यथा, केजरीवाल को कई राजेंद्र पाल गौतम कुर्बान करने पड़ेंगे. जाहिर तौर पर, दिल्ली के मंत्री को एक बौद्ध धर्मांतरण कार्यक्रम में हिस्सा लेने के कारण इस्तीफा देना पड़ा है, जहां लोगों ने हिंदू देवी-देवताओं में आस्था न रखने या प्रार्थना न करने का संकल्प लिया.

लेकिन यह तो उन 22 प्रतिज्ञाओं में से ही एक है जो बी.आर. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय ली थी. गुजरात में केजरीवाल को ‘हिंदू विरोधी’ बताने वाले पोस्टर लगाए गए और उन्हें मुस्लिम टोपी पहने भी दिखाया गया. इसीलिए गौतम को जाना पड़ा. जरा सोचिए, अगर केजरीवाल को दलित बहुल निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार करना हो और प्रतिद्वंद्वी उन्हें अम्बेडकर विरोधी बताते हुए पोस्टर लगा दें तो फिर वे क्या करेंगे!

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(व्यक्त विचार निजी हैं.)


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