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Thursday, 21 November, 2024
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गैर-कांग्रेसवाद से यात्रा शुरू करने वाले नीतीश, शरद, लालू, सिद्धारमैया जैसे लोहियावादी अब गैर-भाजपावादी क्यों हैं

मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और शरद यादव ने कभी कांग्रेस विरोधी के तौर पर अपना एक अलग ही राजनीतिक मुकाम हासिल किया था लेकिन अब वे उसी पार्टी के साथ विपक्षी खेमे में खड़े हैं जिसका कभी विरोध करते रहे थे.

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नई दिल्ली: नीतीश कुमार ने पिछले महीने एक बार फिर जब एक सहयोगी दल के तौर पर कांग्रेस के साथ गठबंधन करके आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उनकी घोषित लोहियावादी विचारधारा—जो मूलत: कांग्रेस-विरोध पर केंद्रित रही है—एक बार फिर व्यावहारिकता की राजनीति की भेंट चढ़ती नजर आई.

‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे को आज के समय में भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा से जोड़कर देखा जाता हो लेकिन कभी इसी तरह का आह्वान उस विविधापूर्ण समूह ने भी किया था, जिसके एक सदस्य नीतीश कुमार भी रहे हैं. और जिसने 1960 और 70 के दशक में पहली बार इस ग्रांड ओल्ड पार्टी को चुनौती दी थी. लेकिन समूह से जुड़े रहे ज्यादातर नेताओं ने अब खुद को कांग्रेस पार्टी के इर्द-गिर्द केंद्रित एक राजनीतिक विचारधारा में ही समेट लिया है.

अपने वैचारिक गुरु राम मनोहर लोहिया के विपरीत इन नेताओं ने अपनी चुनावी राजनीति में कहीं अधिक सफलता की ऊंचाइयों को छुआ.

हालांकि, लोहियावादी राजनीतिक दलों के हिस्सा रहे इन प्रमुख चेहरों में से केवल एक नीतीश कुमार ही मौजूदा समय में एक राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाल रहे हैं. यद्यपि वह ऐसे अकेले लोहियावादी (या उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी, जो अमूमन परिवार के सदस्य होते हैं) नहीं हैं जो वैचारिक अंतर्विरोधों के साथ अपने अनुकूल गठबंधन का हिस्सा बनते रहे हैं.

कभी तेजतर्रार नेता रहे शरद यादव अब कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की सफलता की कामना कर रहे हैं, और रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान 2020 में दूसरी राह अपनाने के बाद अब अपनी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की भाजपा-नीत एनडीए में वापसी की शर्तों पर बातचीत कर रहे हैं.

एक तरफ सत्य पाल मलिक हैं जिन्हें एनडीए ने राज्यपाल बनाया है लेकिन वह कई बार अपनी ही पार्टी भाजपा की निर्धारित राजनीतिक लाइन मानने से इनकार कर देते हैं. दूसरी तरफ कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं, जिन्होंने जनता दल के कई गुटों का हिस्सा रहने के बाद अपने राजनीतिक जीवन का शिखर आखिरकार एक कांग्रेस नेता के तौर पर छुआ.

हालांकि, एक ऐसा बिंदु है जहां लालू प्रसाद यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव और शरद यादव तक तमाम लोहियावादी नेता एक नाव पर सवार नजर आते हैं—ये सभी महिला आरक्षण विधेयक के एकदम मुखर विरोधी रहे हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकार बद्री नारायण तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘लोहिया की एक विचारधारा थी और उससे प्रेरित कई राजनीतिक दावेदार भी थे, जिन्हें हम वर्तमान में लोहियावादियों के तौर पर वर्गीकृत करते हैं. हालांकि, वे अब अलग-अलग होकर एकदम बिखर चुके हैं. एक खेमा है जो ओबीसी और सामाजिक न्याय की राजनीति करता है, एक खेमा कांग्रेस की ओर कदम बढ़ा चुका है, और एक तीसरा खेमा है जिसने भाजपा का दामन थाम लिया है. फिर आते हैं लोहियावादी झुकाव वाले कुछ शिक्षाविद, जो पहले आप में शामिल हुए और फिर बाहर चले गए. कुल मिलाकर बात यह है कि राजनीति अब विचारधारा की नहीं होती है, बल्कि इसने व्यावहारिकता का लबादा ओढ़ लिया है.’


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राम मनोहर लोहिया की विरासत

लोहिया ने अपनी राजनीतिक पारी एक कांग्रेसी के रूप में शुरू की थी, लेकिन 1948 में पार्टी छोड़ने के बाद नेहरूवादी विचारों के प्रमुख विरोधी के तौर पर उभरे.

जर्मनी में डॉक्टरेट करने के दौरान उन्होंने बतौर समाजवादी अपने मूल विचार पश्चिमी यूरोप की सामाजिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से सीखे. आगे चलकर उनके विचारों ने राजनेताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार कर दी, जो भाजपा-पूर्व काल में, अपने-अपने राज्यों में वामपंथी प्रभाव घटने के कारण कांग्रेस के एकमात्र राजनीतिक विकल्प बने.

दिलचस्प बात यह है कि लोहिया को सबसे ज्यादा इंदिरा गांधी को भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के शुरुआती दिनों में संसद में ‘गूंगी गुड़िया’ बुलाए जाने के लिए याद किया जाता है, जबकि उनके इस बयान को गलत संदर्भों में समझा गया था.

इंग्लैंड के लॉफबोरो यूनिवर्सिटी में लेक्चरर रहे राकेश अंकित ने 2018 में लिखे अपने एक लेख ‘कास्ट पॉलिटिक्स इन बिहार: इन हिस्टोरिकल कॉन्टिनम’ में लोहियावाद को कुछ इस प्रकार बताया था, ‘लोहिया ने अपने ‘नए समाजवाद’ में उदार लोकलुभावनवाद और गांधीवाद को बरकरार रखा लेकिन मार्क्सवाद की जगह ले ली. इसने समाजवादियों को उस समय जारी पिछड़ों के जातीय और सामाजिक आंदोलनों से जोड़ा. ऐसा करते हुए उन्होंने बिहार की राजनीति की जमीनी-सच्चाई को उभारा, जिसकी भारतीय राष्ट्र ने पचास साल पहले फिर से पुष्टि की:- ‘आम धारणा यही है कि लगभग हर कोई जातिवादी है.’

कहा जा सकता है कि अवसर बढ़ाने के आह्वान के साथ दिया गया लोहिया का नारा, ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ आरक्षण के आसपास केंद्रित कई दशकों की राजनीति का आधार रहा है.

पत्रकार दिलीप मंडल कहते हैं, ‘कांग्रेस का आधार उन दिनों मुख्यत: ब्राह्मणों, मुसलमानों और एससी—हरिजनों आदि पर टिका था. और कृषि और पशुपालन पर निर्भर जाट, गुर्जर आदि समुदायों का प्रतिनिधित्व बहुत कम था, जिन्हें हम अब ओबीसी के तौर पर जानते हैं. लोहिया ने इन्हीं जातियों को संगठित करने का प्रयास किया और यह विचार 1960 के दशक से ही भारतीय राजनीति में रहा है और मंडल आयोग के समय अपने चरम पर पहुंचा.’

मंडल आगे कहते हैं, ‘लेकिन पिछले कुछ सालों में ओबीसी राजनीति ने उत्तर और दक्षिण भारत में अलग-अलग असर दिखाया है. उत्तर भारत में, इसने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को नुकसान पहुंचाया है, लेकिन दक्षिण में विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दिए जाने से उन राज्यों में इसका असर सकारात्मक रहा है.’

लोहियावाद के मूल सिद्धांतों को समकालीन राजनीतिक मजबूरियों ने काफी बदल दिया, और यही लोहिया की राजनीतिक विरासत संभालने वालों को उनकी विचारधारा से काफी दूर ले गया.

दिप्रिंट यहां इसी जायजा ले रहा है कि विभिन्न राज्यों में फैले स्वघोषित लोहियावादी आज आखिर कहां हैं और क्या कर रहे हैं.


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नीतीश कुमार

अपने सभी साथी लोहियावादियों की तुलना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वैचारिक स्तर पर सबसे अधिक फ्लिप-फ्लॉप करने वाले का दर्जा हासिल किया है, और इसमें स्वर्गीय रामविलास पासवान को ही शायद एकमात्र अपवाद माना जा सकता है.

नीतीश पहली बार 1996 में एनडीए में शामिल हुए और फिर 1998 में वाजपेयी सरकार में मंत्री बने. उनका यह साथ करीब 17 साल लंबा चला और इसी पार्टी के सहयोग से वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. हालांकि, उस समय मुख्यत: शहरी, उच्च जातियों के जनाधार वाली भाजपा कई मायने में लोहियावादी वैचारिकता के विपरीत थी और एक तथ्य यह भी था कि इसका पूर्ववर्ती जनसंघ था जिसने आपातकाल के बाद जनता पार्टी बनाई थी.

Nitish Kumar meeting Lalu Prasad Yadav at latter's residence in Patna on 8 September, 2022 | ANI
8 सितंबर 2022 को नीतीश कुमार लालू यादव से मिलने पहुंचे/ एएनआई

उन्होंने 2013 में भाजपा के तत्कालीन प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक अतीत को लेकर अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए एनडीए से नाता तोड़ लिया.

इसके बाद फिर भाजपा में लौटे और एक समय अपने वैचारिक सहयोगी रहे लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ सियासी प्रतिद्वंद्विता निभाई, फिर राजद और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री पद संभाला और अंतत: महागठबंधन को छोड़कर फिर भाजपा के सहयोगी बन गए. अब वह फिर राजद और कांग्रेस के पाले में लौट आए हैं.

नीतीश ने शराबबंदी कानून के सहारे बिहार की महिलाओं का भरोसा हासिल किया, जो उनका एक बड़ा चुनावी जनाधार भी हैं. बिहार में ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा राजद के साथ होने के मद्देनजर ने नीतीश ने महादलित जैसे शब्दों को गढ़ा, और जमीन, नौकरी, रेडियो सेट और चश्मे आदि मुहैया कराने के नाम पर उन्हें लुभाया. उन्होंने अत्यंत पिछड़ी जातियों (ईबीसी) के बीच पहुंचकर अपनी सियासी पैठ को और मजबूत भी किया, जिसमें निषाद/साहनी, मंडल और कहार जैसी जातियां शामिल हैं.

शरद यादव

कई दशकों तक सांसद रहे शरद यादव भी अपने सहयोगियों की तरह ही धीरे-धीरे कांग्रेस-विरोधी से भाजपा-विरोधवादी होते चले गए लेकिन आज खुद अपने लिए जगह तलाश रहे हैं. इस साल की शुरू में उन्होंने अपनी पार्टी (लोकतांत्रिक जनता दल) का राजद में विलय कर दिया था. कभी यादव का नाम छोटे बालों वाली महिलाओं को कटाक्ष के तौर पर ‘परकटी औरतें’ कहे जाने और महिला आरक्षण विधेयक के जबर्दस्त विरोध का पर्याय बन गया था.

2009 में तो उन्होंने बिल पास होने पर अपनी जान दे देने की धमकी तक दे डाली थी.

यादव को कभी-कभार द्वेषपूर्ण व्यवहार करने के लिए भी जाना जाता है. 2015 में राज्यसभा में बीमा विधेयक पर चर्चा के दौरान उन्होंने दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग-रूप को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की थी.

आजकल अस्वस्थ चल रहे शरद यादव इस हफ्ते के शुरू में राजद राज्य परिषद की बैठक में शामिल हुए. इसके लिए वह लंबे समय बाद पटना पहुंचे थे.

मुलायम सिंह यादव

भाजपा की सियासी बाजीगारी के आगे पहले 2017 में और फिर 2022 में उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचने में नाकाम रही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह ने इससे पहले तक अपने जाति समीकरणों पर मजबूत पकड़ बना रखी थी. अपने राजनीतिक करियर के अधिकांश समय यादव अंग्रेजी और कंप्यूटर दोनों का विरोध करते रहे. लेकिन 2009 का अंत आते-आते इन दोनों मुद्दों ने पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में जगह बना ही ली, जब मुलायम ने कॉर्पोरेट वेतन और सरकारी वेतन में समानता लाने का वादा भी किया.

वहीं, 2012 में, कारण चाहे सियासी व्यावहारिकता का भारी पड़ना रहा हो या फिर मुलायम सिंह के ऑस्ट्रेलिया-शिक्षित बेटे अखिलेश का प्रभाव, सपा ने छात्रों के लिए मुफ्त लैपटॉप का वादा किया. पार्टी बाद में उसी साल हुए चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती को यूपी की मुख्यमंत्री की गद्दी से उतारकर सरकार बनाने में सफल रही.

2022 में अखिलेश ने न सिर्फ चुनाव प्रचार के दौरान बल्कि बाद में भी मुफ्त लैपटॉप को अपना सियासी कार्ड बनाया. अपनी कांग्रेस-विरोधी वैचारिकता को एकदम ताक पर रखकर सपा ने 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन के तहत लड़ा, हालांकि इसका नतीजा हार और दो वंशवादी पार्टियों के बीच कड़वाहट बहुत ज्यादा बढ़ जाने के रूप में सामने आया.

Mulayam Singh Yadav with son Akhilesh at SP office in Lucknow on 22 November, 2021 | ANI
मुलायम सिंह यादव अपने पुत्र अखिलेश के साथ सपा के ऑफिस में एक कार्यक्रम के दौरान/फोटो: एएनआई

इससे पहले, सपा ने केंद्र की यूपीए सरकार को समर्थन भी दिया था, खासकर 2008 में एटमी करार समझौते को लेकर वोटिंग के दौरान.

2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के लिए द इकोनॉमिक टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में जब अखिलेश यादव से पूछा गया कि क्या कांग्रेस-सपा गठबंधन सपा के लोहियावादी दर्शन के खिलाफ है, तो उन्होंने इसे उचित ठहराते हुए कहा कि यह लोहिया का ही तर्क था कि जब कांग्रेस कमजोर होगी तो समाजवादी ही इसके ‘सबसे अच्छे दोस्त’ होंगे.

लालू प्रसाद यादव

एक अन्य प्रमुख लोहियावादी लालू यादव ने भी सियासत में एक लंबा सफर तय किया है जिन्होंने अपनी शुरुआत आपातकाल विरोधी एक युवा कार्यकर्ता के तौर पर की थी जो जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर मैदान में कूद पड़े थे. लालू यादव सरकार के विरोध के लिए जेल गए और एक समय ऐसा आया जब उन्हें और उनके साथी कार्यकर्ताओं को भ्रष्ट और निरंकुश माना गया.

उन्होंने आपातकाल-विरोधी कार्यकर्ता के तौर पर मेंटीनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत जेल जाने की वजह से अपनी बड़ी बेटी का नाम ही मीसा रख दिया था. वही लालू बाद में मनमोहन सिंह सरकार का हिस्सा बने और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर यूपीए के ही पाले में रहे हैं.

काफी हद तक ऐसा माना जाता है कि राहुल गांधी ने 2013 में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में जिस कुख्यात अध्यादेश की प्रति फाड़ी थी, वह यादव की मदद के लिए ही लाया गया था. पटना स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़े उनके पुत्र तेजस्वी यादव अभी बिहार सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं जिसमें कांग्रेस भी एक सहयोगी दल के तौर पर शामिल है.

सत्यपाल मलिक

अब वापस लिए जा चुके कृषि कानूनों के खिलाफ महीनों चले किसान आंदोलन को लेकर अपने किसान समर्थक रुख के कारण सुर्खियां बटोरते रहे मेघालय के राज्यपाल मलिक ने भी राजनीति में एक लंबा रास्ता तय किया है. उन्होंने अपने सियासी जीवन की शुरुआत 1974 में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के सदस्य तौर पर की थी. मंडल कहते हैं कि भारत के पांचवें प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह खुद तो कट्टर लोहियावादी नहीं रहे लेकिन तमाम मौजूदा लोहियावादी नेताओं के सियासी गुरु जरूर रहे हैं.

मलिक 2012 में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने से पहले जनता दल और समाजवादी पार्टी में भी रह चुके थे. फिर 2017 में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया था और तबसे वह विभिन्न राजभवनों को अपना घर बना चुके हैं.

Satya Pal Malik delivering a speech as then J&K Governor in Srinagar on 21 October, 2019 | ANI

बहरहाल, कई राजनीतिक दलों का हिस्सा रहने के बावजूद मलिक किसानों की एक मजबूत आवाज बनकर उभरे हैं. कृषि कानून वापस लिए जाने के महीनों बाद जून 2022 में उन्होंने एक बार फिर किसानों की आवाज जोरदारी से उठाई और इस बार मुद्दा था एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य). उन्होंने यहां तक कहा कि अगर मांग पूरी नहीं होती तो किसान एक बार फिर सड़कों पर उतरेंगे.

सिद्धारमैया

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का राजनीतिक उदय भी लोहियावादियों के साथ ही हुआ था और 2005 के अंत तक जनता दल-सेक्युलर विधायक के तौर पर वह कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री पद पर आसीन थे.

हालांकि, 2013 में सिद्धारमैया ने जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की, तब वह कांग्रेस के विधायक थे. 2006 में कांग्रेस में शामिल होते समय उन्होंने कहा था, ‘मैं सोनिया गांधी और केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के हाथ मजबूत करने के लिए पार्टी में शामिल हो रहा हूं.’

Siddaramaiah with Rahul Gandhi at a public meeting in Chitradurga on 13 April, 2019 | ANI
चुनावी रैली के दौरान राहुल गांधी और सिद्धारमैया/ एएनआई

सिद्धारमैया अब फिर मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं क्योंकि कांग्रेस उस एकमात्र दक्षिणी राज्य में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की कवायद में जुटी है, जहां मोदी की पार्टी अपनी पैठ बनाने में सफल रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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