कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर इतनी उत्सुकता क्या जायज है? क्या चुनाव से कोई असली फर्क आएगा? क्या राहुल गांधी ‘लोकप्रिय मांग’ पर राजी होकर अचानक मैदान में नहीं आ जाएंगे और आखिरकार कांग्रेस पार्टी के लिए फिलहाल अपने संविधानेतर नेतृत्व को कुछ चुनावी वैधता प्रदान करेंगे?
ये वाजिब और जायज सवाल हैं और अभी तक किसी ने कोई जवाब नहीं दिया है. लेकिन एक सवाल है जिसका हम शर्तिया तौर पर जवाब दे सकते हैं: चुनाव बहुत जरूरी हैं. बेशक, हल्की शर्तें तो कई हैं.
यह क्यों जरूरी है?
जैसा कि मैंने इस स्तंभ में हाल ही में लिखा, भारतीय राजनैतिक पार्टियों में बेहद थोड़ा आंतरिक लोकतंत्र होता है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) शिखर पर मोटे तौर पर खानदानशाही से मुक्त है लेकिन उसकी नेतृत्व शैली बादशाहत वाली है. वह चुनाव को लेकर भी ज्यादा परवाह नहीं करती. किसने जेपी नड्डा को अध्यक्ष चुना? उनका उत्तराधिकारी तय करने के लिए कब चुनाव होंगे? बीजेपी को इन सवालों का जवाब देने में कोई रुचि नहीं है. वह ऐसे मुद्दों को साम्राज्यवादी रवैए से तय करना पसंद करती है.
इसलिए, अपनी तमाम खामियों और प्रक्रिया को लेकर सवालों के बावजूद अध्यक्ष का चुनाव करने का कांग्रेस का फैसला भारतीय राजनीति में एक बड़ा अगला कदम है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
क्या यह राहुल गांधी की सिर्फ एक चाल नहीं है?
मेरा अंदाजा है, बहुत जल्दी ही हमें पता चल जाएगा. लेकिन मुझे एहसास है कि राहुल गांधी जब या कहते हैं कि उन्हें यह पद नहीं चाहिए तो वे वाकई गंभीर हैं. वे कांग्रेसजनों के दबाव के बावजूद पिछले दो साल से लगातार इसे स्वीकार करने से इनकार करते रहे हैं. कुछ महीने पहले यह सुझाया गया कि उनके बदले उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा वह पद लेंगी. आखिरकार, वे भी इस दबाव में नहीं आईं.
पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद जब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ा तो उन्होंने कहा कि सिर्फ वे इस पद से इनकार नहीं करेंगे, बल्कि उनके परिवार का कोई सदस्य इस पद पर नहीं होगा. कम से कम अभी तक वे अपनी बात पर कायम हैं.
यह भी पढ़ें: तानाशाही की बात पुरानी, हमारे जीवन, कला और मनोरंजन पर अपनी सोच थोप रही BJP सरकार
अगर राहुल खड़े होते हैं तो क्या होगा?
अगर वे पार्टी कार्यकर्ताओं की मांग का जिक्र करके अपनी उम्मीदवारी को आगे बढ़ा देते हैं तो मतदाताओं के बीच अपनी साख गंवा बैठेंगे. यहां तक कि, जो लोग सोचते हैं कि राहुल में नेतृत्व क्षमता ज्यादा नहीं है, वे भी उनकी नीयत पर संदेह नहीं करते. वे हमेशा भले मौके के हिसाब से सही बातें नहीं कहते, लेकिन, लोग यह मानेंगे कि, वे वही कहते हैं जो सही और वाजिब समझते हैं.
इस मुद्दे पर अगर राहुल अपनी साख से झुक जाते हैं तो उनके लिए शर्मनाक होगा.
अगर राहुल अलग रहते हैं तो क्या कोई फर्क पड़ेगा?
हां, इससे काफी बड़ा फर्क पड़ेगा. फिलहाल राहुल की पीठ पर एक मुहावरा चस्पा है. बीजेपी अनगिनत घंटे और करोड़ों खर्च करके सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया के जरिए लोगों की नजर में ऐसा बिगडैल राजकुमार साबित करने पर तुली है, जो उसके महान नेता से मुकाबले के काबिल नहीं है. अगर राहुल (अध्यक्ष पद से) अलग रहने के प्रति गंभीर हैं तो सारा प्रचार अभियान अपनी धार खो देगा.
दूसरे, कांग्रेस की एक समस्या यह है कि ढेर सारे वरिष्ठ कांग्रेसी महसूस करते हैं कि पार्टी में पिछलग्गुओं और मूर्खों का बोलबाला है, उनमें ज्यादातर सिर्फ राहुल से अपनी करीबी से तवज्जो पा रहे हैं. राहुल के नेतृत्व पद छोड़ते ही, वह मंडली अपना असर खो बैठेगी और विखर जाने पर मजबूर होगी.
तीसरे, जब तक उत्तराधिकार परिवार के सदस्यों तक सीमित रहेगा, कांग्रेस प्रभावी राजनैतिक पार्टी नहीं बन पाएगी.
कांग्रेस में शामिल होने वाले युवा जानते हैं कि वे छत से टकराने तक ही ऊपर जा सकते हैं. पार्टी के शिखर पर तो वही मायने रखता है, जो परिवार की नजरों में काम का हो. यह खत्म करने की दरकार है. और खत्म हो जाएगा, अगर खानदानशाही का तत्व हटा दिया जाएगा.
क्या अशोक गहलोत गांधी परिवार की कठपुतली हैं?
यह कहना कुछ ज्यादा सख्त लहजा हो सकता है, मगर हां, ऐसी कम उम्मीद है कि (अगर अध्यक्ष बन जाते हैं तो) वे सोनिया गांधी की रजामंदी के बगैर कोई बड़ी पहल करेंगे. दूसरी तरफ, वे राहुल गांधी की मंडली की नहीं सुनेंगे और देश भर में कांग्रेसजनों के लिए उनसे मिलना ज्यादा आसान होगा.
यह कांग्रेस के लिए बढ़त साबित होगा, भले उनके नेतृत्व की वजह से कोई और सुधार न दिखे.
क्या शशि थरूर गंभीर उम्मीदवार हैं?
हां, वे हैं. और उनकी उम्मीदवारी कांग्रेस में घटित बेहतरीन चीज है. कोई लोकप्रिय, खूब पढ़ा-लिखा, बुद्धिमान और करिश्माई नेता पार्टी शिखर पद के लिए खड़ा होने को स्वतंत्र महसूस करता है तो यह हमें बताता है कि कम से कम इस मामले में कांग्रेस आखिरकार एक असली राजनैतिक पार्टी की तरह बर्ताव करने लगी है और किसी साम्राज्यवादी या खानदानशाही रवैए से संचालित नहीं है.
फिलहाल, कांग्रेस में आकांक्षाएं बिखरी हुई हैं. चुनावों से बहुत थोड़ा ही तय होता है; लगभग हर नियुक्ति ‘फरमान’ से होती है, जिसे सर्वानुमति की तरह पेश किया जाता है. इसलिए, सचिन पायलट जब राजस्थान के मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे तो किसी ने इसे इस तरह नहीं देखा कि हर युवा नेता में ऐसी ख्वाहिश होनी ही चाहिए. उसे धोखा, बगावत की तरह देखा गया.
अगर कांग्रेस के नेता अपने लिए महत्वाकांक्षी नहीं होंगे तो वे पार्टी के लिए महत्वाकांक्षा पालना कैसे सीखेंगे? या भारत के लिए ही?
क्या गैर-गांधी चुनाव से खानदानशाही की पकड़ कम होगी?
शायद, शायद नहीं. साफ बस यही है कि सत्ता लोगों के साथ कुछ अजीब व्यवहार करती है. 1991 में राजीव गांधी हत्याकांड के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी ने स्वत:स्फूर्त ढंग से अध्यक्ष पद की पेशकश सोनिया गांधी को की. उन्होंने इनकार कर दिया और कहा कि वे राजनीति में नहीं हैं और पद के लिए पी.वी. नरसिंह राव का समर्थन किया.
तीन साल के भीतर राव उनसे दूर हो गए और गांधी परिवार की पार्टी पर कोई पकड़ नहीं बची. जब घोटालों और चुनावी हार ने 1996 में राव की स्थिति कमजोर कर दी तो उन्होंने सीताराम केसरी को अध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया, यह मानकर कि केसरी उनके प्रति वफादार बने रहेंगे. कुछ ही महीनों में केसरी उनके कट्टर दुश्मन बन गए. राजनीति में वफादारी बहुत थोड़ी होती है. पद छोड़ते ही, आगे क्या होता है, उस पर आपका नियंत्रण नहीं रह जाता.
क्या नया अध्यक्ष कांग्रेस को जीत दिला देगा?
शायद नहीं. लेकिन जो हालात हैं, कांग्रेस पहले ही दो चुनाव हार चुकी है और अगला चुनाव भी हार जाएगी. तो, इससे बदतर और क्या हो सकता है?
दूसरी तरफ, कोई नया गैर-खानदानी अध्यक्ष पार्टी को 21वीं सदी में ले जा सकता है और आखिरकार बीजेपी को वह मुकाबला दे सकता है, जो कांग्रेस पिछले दो चुनावों में नहीं दे सकी है.
इसी इकलौती उम्मीद की ओर पार्टी को देखना चाहिए.
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: कांग्रेस हो या भाजपा, हरेक पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम होगा लेकिन वह समय कब आएगा?