कोलेबिरा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी नमन विक्सल कोंगाड़ी ने भाजपा के प्रत्याशी बसंत सोरेंग को 9,658 मतों से पराजित किया. उन्हें कुल 40,343 मत मिले, जबकि दूसरे स्थान पर रहे भाजपा प्रत्याशी को 30,685 मत व तीन टर्म से विधायक रहे झारखंड पार्टी (झापा) के सुप्रीमो व पूर्व मंत्री एनोस एक्का की पत्नी मेनन एक्का को चौथा स्थान मिला. उन्हें मात्र 16,445 मत मिले, जबकि इस बार झामुमो ने भी उनका समर्थन किया था.
इस चुनाव में गेम चेंजर की भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय सेंगेल पार्टी के प्रत्याशी अनिल कंडुलना को मेनन एक्का से अधिक 23,799 मत मिले. इस चुनाव में झामुमो के समर्थन के बावजूद झापा का चौथे स्थान पर जाना झामुमो की भी हार के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन यह जल्दबाज़ी में निकाला गया निष्कर्ष होगा.
अब तरह तरह से इस नतीजे का विश्लेषण हो रहा है. लेकिन जो संदेश साफ है वह यह कि भाजपा आज की तारीख में अलोकप्रिय राजनीतिक दल बन चुकी है. लेकिन, क्या इसका मतलब यह है कि गैर आदिवासी, जिनका बाहुल्य झारखंड के शहरों-कस्बों में है, अगले चुनाव में भाजपा के पक्ष में गोलबंद नहीं होंगे? या वे कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होंगे?
जो अंतिम सत्य है, वह यह कि गैर आदिवासी खासकर बहिरागत मतदाता किसी भी झारखंडी पार्टी को वोट नहीं देंगे. हां, रिज़र्व सीटों पर उनकी मजबूरी रहेगी कि वे भाजपा या कांग्रेस के आदिवासी प्रत्याशी को वोट देंगे. यानी, गैर आदिवासियों की पार्टी भाजपा या कांग्रेस ही रहेगी.
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यह भी एक सामान्य तथ्य है कि बहिरागत वोटर राजनीतिक रूप से ज़्यादा सचेत हैं, इसलिए वे कांग्रेस या भाजपा के पक्ष में गोलबंद होंगे. भारतीय राजनीति में कांग्रेस उच्च जाति और उच्च वर्ग का प्रतिनिधत्व करती रही है. लेकिन सिर्फ अगड़े मतों से तो चुनाव नहीं जीता जा सकता था, इसलिए अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को पेश कर वह अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों का वोट प्राप्त कर देश पर राज करती रही. झारखंड में भी वह इसी रणनीति के तहत काम करती रही और बड़ी संख्या में लोकसभा व विधानसभा सीटों पर काबिज होती रही.
लेकिन 70 के दशक के अंतिम वर्षों में मंदिर-मस्जिद विवाद को तूल देकर भाजपा, जो अब तक मध्य जातियों और मध्य वर्ग के ही व्यापारी-बनिया खेमे की पार्टी थी, ने कट्टर हिंदुत्ववादी भावनाओं का फैलाव किया और धीरे-धीरे वह अगड़ो की भी पार्टी बन गई. अपनी इस छवि के बलबूते उसने कॉर्पोरेट जगत को भी अपने वश में कर लिया. क्योंकि, कॉर्पोरेट जगत को कांग्रेस व भाजपा से मतलब नहीं, वह किसी का भी हो सकता है, जो उन्हें जनता के श्रम और संसाधनों की लूट में मदद करे.
इसके अलावा उसने कांग्रेस के परंपरागत आदिवासी, दलित मतों को भी तोड़ने का प्रयास किया. मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने में उनकी रुचि नहीं थी, क्योंकि मुसलमानों के प्रति घृणा और वैमनस्य ही उनकी राजनीति का मूल रहा है. आदिवासियों दलितों को तोड़ने के लिए उन्होंने ईसाईयों को अपना टारगेट बनाया. खास कर उन राज्यों में जहां ईसाईयों की थोड़ी बहुत आबादी थी. झारखंड में ईसाईयों और मुसलमानों को टारगेट कर ही भाजपा ने अपनी राजनीति को सुदृढ़ किया है.
तो, कांग्रेस के समर्थक अब कौन रहे? बहिरागतों का बड़ा तबका उनके साथ नहीं. ईसाई वोटर उनके साथ हैं, लेकिन मुसलमान अब उस पार्टी के साथ रहेंगे जो भाजपा को हराने की कुव्वत रखता हो. सदानों का झुकाव भाजपा की तरफ है और कुछ को आजसू अपने साथ लेकर भाजपा को मदद करती है. इसका ही परिणाम था कि पिछले चुनाव में कांग्रेस छह विधानसभा सीटों पर सिमट गई. हालांकि, वह झारखंड में अपना पुराना जनाधार फिर से प्राप्त करने के लिए तिकड़में करती रही है. वह जानती है कि जब तक झामुमो का वजूद है, शिबू सोरेन राजनीति में बने हुए हैं, तब तक वह आदिवासियों के बीच अपना खोया जनाधार और मुसलमानों को पूरी तरह अपनी तरफ गोलबंद नहीं कर सकती.
इसलिए वह लगातार तिकड़में करती रहती है. संथाल परगना में उसने बाबूलाल मरांडी को झामुमो के मुकाबले खड़ा किया. 2011 के विधान सभा चुनाव में महज 11 सीटों पर बाबूलाल चुनाव जीते थे, लेकिन कांग्रेस झामुमो पर दबाव बनाया कि वह बाबूलाल को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लें. उन्हें एनोस एक्का के भ्रष्ट होने की तो बहुत चिंता है, लेकिन मधु कोड़ा की पत्नी को पार्टी में शामिल कर लिया. दरअसल, यह गोलबंदी भाजपा के खिलाफ नहीं, झामुमो के खिलाफ है.
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क्या हाल में आये पांच राज्यों के नतीजों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कांग्रेस पहले से ज़्यादा मज़बूत हुई है या अगड़े वोटरों को अपनी तरफ खींचने में सफल हुई है? ऐसा नहीं लगता. हिंदी पट्टी में मिली सफलता बस जीतने भर की है, चाहे वह राजस्थान हो या मध्यप्रदेश. छत्तीसगढ़ में जीत तो दरअसल आदिवासी जनता की है. उन्होंने तो इतनी बड़ी जीत की कल्पना ही नहीं की थी. कोलेबिरा में वे ज़रूर जीते, लेकिन भाजपा को इतना वोट कैसे मिला? बात स्पष्ट है कि बहिरागत वोट, गैर आदिवासी मत अब तक भाजपा के पक्ष में ही गोलबंद हैं, कांग्रेस की अभी परीक्षा होनी है. कांग्रेस को आदिवासी मतों के ही जोड़-तोड़ की बजाय, महागठबंधन बनाने की दिशा में ईमानदार कोशिश करनी चाहिए. यदि मधु कोड़ा की पत्नी को उन्होंने कांग्रेस में शामिल नहीं किया होता तो शायद झामुमो ने भी कोलेबिरा में मेनन एक्का को समर्थन नहीं दिया होता.
अभी भी बात बिगड़ी नहीं है. भाजपा हारी, इसका जश्न मनाइये, लेकिन इसे झामुमो की हार के रूप में चित्रित करने से बाज़ आइये. झारखंड कांग्रेस और भाजपा के जंग का मैदान नहीं, यह तो विश्व पूंजीवाद से आदिवासी जनता के संघर्ष का मैदान है और अभी रहेगा. कांग्रेस-भाजपा दोनों ठहरे विश्व पूंजीवाद के पहरुये. वे आदिवासियों के प्रतिनिधि नहीं हो सकते. आदिवासियों का प्रतिनिधत्व तो झामुमो जैसी किसी पार्टी को ही करना होगा, आदिवासियों के साथ समाज के प्रगतिशील ताकतों को, वंचितों को अपने पक्ष में गोलबंद कर.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. ‘समर शेष है’ उनका चर्चित उपन्यास है.)