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Monday, 18 November, 2024
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गोपाल दास नीरज: एक ऐसा लोकप्रिय गीतकार जो उर्दू का कवि और हिंदी का शायर था

आज कवि-गीतकार गोपाल दास नीरज की पुण्यतिथि है. वह अपने झकझोरते, लरजते शब्दों के जरिए इस देश के तमाम होटों पर गीत बनकर हमेशा मौजूद रहेंगे.

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एक दिन मगर यहां,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली कली कि घुट गयी गली गली,
और हम लुटे लुटे,
वक्त से पिटे पिटे,
सांस की शराब का खुमार देखते रहे.
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

यह शानदार और बहुचर्चित पंक्तियां रचने वाला शब्द शिल्पी जुलाई 2018 में इस जहान-ए-फ़ानी से कूच कर गया, लेकिन उसके रचे तमाम गीतों का कारवां मुसलसल सफर पर है और दिलों में बच गया है यादों का गुबार. हम बात कर रहे हैं कवि, गीतकार, अध्यापक और कलामंचों की जान रह चुके गोपाल दास ‘नीरज’ की. यूपी के इटावा में जन्मा यह बहुमुखी प्रतिभा का धनी कवि, फिल्मी गीतों, हिंदी के साहित्यिक गीतों, कविताओं और मंचीय कविता पाठ को एक नया आयाम दे गया.

अब के सावन में शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के सारे शहर में बरसात हुई
जिंदगी भर औरों से हुई गुफ़्तगू मगर
आज तक हमारी हमसे न मुलाक़ात हुई

अपने संघर्षों में भी प्रयोग करते रहे

जब ‘नीरज’ 6 साल के हुए तो सर से बाप का साया उठ गया. गरीबी बहुत थी. घर चलाना मुश्किल था. कहते हैं पापी पेट कुछ भी कराता है. ऐसा ही कुछ गोपाल दास के भी साथ हुआ. उनके गांव पुरावली से यमुना नदी महज कुछ किलोमीटर दूर थी. वे नदी में तैरकर सिक्के निकालने लगे. इसके अलावा पान-बीड़ी भी बेची. रिक्शा चलाया. 10 साल वे दूसरों के घर में रहे. अकेलापन काटने लगा. फिर उन्होंने कुछ दिन एक वकील के यहां टाइपिस्ट का भी काम किया. क्लर्क बने. फिर प्राध्यापक भी बन गए. यही नहीं 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कुछ दिनों के लिए जेल भी गए.

संघर्ष ये तुमने दिखला दिया कि पौरुष के आगे,
मुश्किल को अपनी ही मुश्किल पड़ जाती है,
हिम्मत गर अपनी हारे नहीं मुसाफिर तो,
मंजिल खुद उसको बढ़ कर गले लगाती है.

ये बात 1954 की है. दुलहन के श्रृंगार में तैयार उनकी भांजी की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है. यह हादसा उनके अंतर मन को झकझोर देता है. यहां से उनके अंदर एक कालजयी लेखक का सृजन होता है. वे अपने गम को कागज के पन्नों पर उतारते हैं और लिख डालते हैं वो गीत, जो इतिहास रच देता है.

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे.
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

इस गीत को उन्होंने पहली बार लखनऊ रेडियो में पढ़ा था. बाद में इसको आवाज दी मोहम्मद रफी ने. मशहूर गीतकार जावेद अख्तर इस गीत के बाद इतने प्रभावित हुए कि वे उन्हें उर्दू का कवि और हिंदी का शायर बुलाने लगे.

संतों का पड़ा गहरा प्रभाव

गोपाल दास बचपन में जब अपने तंगी के दिनों को गुजार रहे थे. वे एकांतवास में चले गए थे. एक तरफ तो वे जीवन के कड़े अनुभवों से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर जीवन के संघर्षों का मर्म समझाने वाले महानुभवों की कृतियों को भी आत्मसात कर रहे थे. कबीर, ओशो, महर्षि अरविंद, मुक्तानंद आदि को पढ़ने लगे. समझने लगे. उनके मष्तिसक पर इसका प्रभाव किस कदर पड़ा. उसकी एक बानगी पढ़िए.

हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति,
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति.
मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान,
जो भी गाऊं गीत मैं, बन जाये युग-गान.
हमने इक परिवार ही, माना सब संसार,
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार.

इतना ही नहीं. एक और..

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए.
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए.

आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए.

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए.

हरिवंश राय बच्चन का प्रभाव

ये हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का आकर्षण था जो 1925 में जन्मे गोपाल दास को इस विधा की तरफ खींच लाया. 1947 यानी देश की आजादी का साल और इसी साल ‘बच्चन’ और ‘नीरज’ के मिलन का भी साल था. पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर अवध प्रांत तक हरिवंश राय की कविताएं मुशायरों की शान बढ़ा रही थी. उस दौर में. लगभग उसी क्षेत्र से उनसे 18 साल छोटा एक लड़का अपने आप को तराश रहा था. हरिवंश राय की ‘मधुबाला’ पढ़ कर. ‘निशा निमंत्रण’ में लिखी पंक्तियों के गूढ़ रहस्यों को समझ कर.

अपने एक लेख में गोपाल दास बच्चन जी के प्रभाव का जिक्र भी करते हैं. उनका मानना था कि हरिवंश राय बच्चन के पहले कविताएं हवा में थीं. बच्चन साहब ने उसे जमीन पर उतारा. और एक आम इंसान के सुख-दुख भोगने को अपने कविता में लिखना शुरू किया.

इसके अलावा कवि सम्मेलन में गायन की शैली का भी श्रेय वे हरिवंश राय बच्चन को ही देते हैं. इससे पहले लेखकों को कविता पाठ के पारिश्रमिक नहीं मिलते थे. लेकिन हरिवंश ने उसे भी शुरू कराया. उनकी इस परंपरा को उनके साथ लंबा समय बिताने वाले गोपाल दास आगे ले गए. वे बच्चन के बहुत प्रिय बन गए. वह चाहते थे कि नीरज ‘काव्य में कल्पना’ पर शोध करे. यह अलग बात है कि गोपाल उनकी इस चाहत को पूरा नहीं कर सके.

कहानी बन कर जिए हैं इस जमाने में,
सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में,
आज भी होती है दुनिया पागल,
जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में.

बॉलीवुड गए, काम किया, वापस लौट आए

ए भाई जरा देख के चलो,
आगे ही नहीं पीछे भी,
दायें ही नहीं बाये भी,
ऊपर ही नहीं नीचे भी

ये राजकपुर की मशहूर फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का अति मशहूर गाना है. बिना मात्रा, बिना तुकबंदी के ये लगती एक चेतावनी है. ये केवल ‘नीरज’ के कलम से ही उकेरे जा सकते हैं. इस गाने की खास बात है कि इसको लिखने वाले और इसकी धुन बनाने वाले नीरज ही हैं. गाया मन्ना डे ने थे. ये गाना 1970 में आया था.

‘नीरज’ को देवानंद जैसा दोस्त और राजकपूर जैसा पारखी नजर वाला साथी मिला चुका था और वह तब तक बॉलीवुड में एक स्थापित नाम बन चुके थे. देव आनंद के साथ इनकी बॉन्डिंग लाजवाब थी. उससे निकली कलाकारी गुनगुनाइए.

शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलाई जाए थोडी सी शराब
होगा यूं नशा जो तैयार
होगा यूं नशा जो तैयार वो प्‍यार है

या फिर लता मंगेशकर की कर्णप्रिय आवाज में एसडी बर्मन की धुन पर.

रंगीला रे, तेरे रंग में
यूं रंगा है मेरा मन
छलिया रे, ना बुझे हैं
किसी जल से ये जलन
ओ रंगीला रे.

सन 1972-73 तक ‘नीरज’ को बॉलीवुड में बिताए कोई पांच साल हुए होते हैं. इतने कम समय में वे 130 गाने लिख चुके थे. लेकिन तब तक उनके साथी और उस समय के बेहतरीन संगीतकार आरडी बर्मन दुनिया को अलविदा कह चुके होते हैं. बर्मन के जाने के बाद एक नया दौर शुरू होता है. सिनेमा में नए प्रयोग शुरू होते हैं. जनता के डिमांड वाले गीतों का प्रचलन बढ़ने लगता है. ‘नीरज’ इस विधा में खुद को फिट नहीं पाते हैं. वे वापस लौट आते हैं अलीगढ़. वापस अध्ययन-अध्यापन में ध्यान देना शुरू करते हैं.

हम तो मस्त फकीर, हमारा नहीं ठिकाना रे
जैसा अपना आना रे, वैसा अपना जाना रे
औरों का धन सोना-चांदी, अपना धन तो प्यार रहा
दिल से दिल का जो होता है, वो अपना व्यापार रहा

नीरज 1991 में पद्मश्री और 2007 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किए गए. इसमें भी वो अलग निकले. साहित्य के क्षेत्र में ऐसा कारनामा करने वाले वे पहले थे जिन्हें ये दोनों पुरस्कार हासिल हुए. प्रेम की भाषा लिखने वाले इस कवि की खूबी यही रही है कि वे सामान्य से शब्दों को खास बना देते थे. पहले वो चूड़ी था, लेकिन जब ‘नीरज’ की कलम चली तो वह दिल बन जाता है.
‘चूड़ी नहीं मेरा, दिल है, देखो देखो टूटे न’

93 साल की अवस्था तक वटवृक्ष की भांति डटे रहे गोपाल दास जीवन के अंतिम दिनों में परेशान हो गए थे. उन्होंने राज्य सरकार को पेंशन बढ़ाने के लिए पत्र तक लिखे थे. जिससे उनकी दवाइयां और महीने का खर्च चल सके.

अब न वो दर्द न वो दिल न वो दीवाने रहे.
अब न वो साज, न वो सोज न वो गाने रहे.
साकी तू किसके लिए अब तक यहां बैठा है.
अब न वो जाम, न वो मन न वो पैमाने रहे.

आज 19 जुलाई है यानी गोपाल दास नीरज की पुण्यतिथि. वह अपने झकझोरते, लरजते शब्दों के जरिए इस देश के तमाम होटों पर गीत बनकर हमेशा मौजूद रहेंगे.

(यह लेख पहले 4 जनवरी 2019 को प्रकाशित हो चुका है.)

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