नई दिल्ली: पिछले दिनों 8 सितंबर को इंडिया गेट पर बहुत कुछ बदल गया. इंडिया गेट के करीब एक छतरी नुमा गुंबद पर देश के महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की 28 फुट ऊंची मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. ग्रेनाइट पत्थर पर तराशी गई सुभाष चंद्र बोस की इस मूर्ति को मैसूर के मूर्तिकार अरुण योगीराज अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा उपहार मानते हैं.
दिप्रिंट से बातचीत करने के दौरान भावुक हुए योगीराज ने कहा, ‘ अभी तक मैंने 1000 से अधिक मूर्तियां बनाई है लेकिन इतना प्यार और रिस्पेक्ट मुझे कभी नहीं मिला.’
‘भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करने’ के उद्देश्य से मूर्ति का भव्य निर्माण, योगीराज और उनकी टीम के लिए खून, पसीने और आंसुओं की एक लंबी यात्रा है.
लेकिन उनके लिए, इसका पूरा होना 2008 में एक कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ने और अपनी मां की शुरुआती आपत्तियों के बावजूद खुद को मूर्तिकला के लिए समर्पित करने को सफल बनाता है.
दिप्रिंट के साथ बातचीत में, 39 वर्षीय ने मूर्तिकला के अपने जुनून के बारे में बात की, कैसे उन्हें नेताजी की प्रतिमा के निर्माण के लिए ऑफर मिला, उन्होंने किस तरह से दूसरी आकर्षक परियोजनाओं का इसके लिए बलिदान भी किया. और स्वतंत्रता सेनानी की मूर्ति के लिए किस तरह 280 मिट्रिक टन वजन वाले चमकदार ग्रेनाइट को तराश डाला.
इस पत्थर को 100 फुट लंबे 140 पहियों वाले ट्रक पर 1,665 किलोमीटर की दूरी तय कर तेलंगाना के खम्मम से दिल्ली लाया गया.
इसके लिए संस्कृति मंत्रालय को खास तैयारी करनी पड़ी और नेशनल मॉर्डन आर्ट गैलरी के प्रांगण में दो महीने से अधिक समय तक देश भर से आए 44 कलाकारों से 26000 घंटे तक तीन- तीन शिफ्ट में इसे तराशा.
अरुण योगीराज इस सफलता से बहुत खुश हैं, भावुक हैं. वह कहते हैं,’ हमारा परिवार पिछले 225 साल से मूर्तिकला से जुड़ा है. हमने सैंकड़ों मूर्तियां बनाईं हैं. लेकिन सबसे बड़ा सम्मान सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति बनाने के बाद मिला है.’
अरुण 2008 से पूरी तरह से मूर्तियां बनाने के काम में जुटे योगीराज कहते हैं, ‘मैंने हजारों छोटी मोटी मूर्ति अभी तक बनाई है लेकिन जो सम्मान मुझे सुभाषचंद्र बोस की 28 फुट की मूर्ति बना कर मिला है वह कभी नहीं मिला.’
‘ मुझे इतना बड़ा चांस दिया इसके लिए भारत सरकार, संस्कृति मंत्रालय का बहुत बहुत धन्यवाद.’
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शुरुआती जुनून
देश का दिल माने जाने वाले दिल्ली के केंद्र में अरुण योगीराज की बनाई गई सुभाषचंद्र की मूर्ति ने इतिहास रच दिया है, इसके बाद क्या कुछ बदला है उनके जीवन में पिछले तीन दिनों में क्या उन्हें इसका एहसास हुआ है.
अरुण बहुत ही संजीदगी से कहते हैं, ‘मुझे अभी तो कुछ ऐसा महसूस नहीं हो रहा है लेकिन लोगों से जो प्यार और सम्मान मिल रहा है वह सिर्फ नेताजी की वजह से हैं. क्योंकि पूरी दुनिया नेताजी को बहुत प्यार करती है और यही वजह है कि लोग मुझे प्यार दे रहे हैं.’
‘ मैं अपनी जिंदगी में एक बार इंडिया गेट देखना चाहता था जहां मेरे द्वारा बनाई गई मूर्ति लगाई जानी थी. देखिए पिछले छह महीने से मैं यहीं हूं और ठीक इंडिया गेट के सामने.’
वह कहते हैं, ‘मैं अपने आपको भाग्यशाली मानता हूं कि मैं इस जर्नी का हिस्सा रहा हूं.’
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ग्रेनाइट एक डिफिकल्ट मीडियम
संस्कृति मंत्रालय द्वारा उन्हें ही क्यों चुना? के बारे में वह बताते हैं कि जब मूर्ति लगाए जाने की बात हुई तो देशभर से 7 कलाकार बुलाए गए थे.
मंत्रालय का किसी भी सलेक्शन का लंबा चौड़ा प्रोसेस है, कई कैटेगरी में सलेक्शन होता है. वह बताते हैं, ‘जहां तक मेरे सलेक्शन किए जाने की बात है तो शायद मेरा पत्थर पर किया गया काम ही मेरे लिए सहायक बना. मैंने पत्थर को तराश कर कई मूर्तियां बनाई हैं. लेकिन मैं ये कहना चाहता हूं कि ग्रेनाइट पर काम करना थोड़ा टफ होता है.’
बता दें कि इसी साल अप्रैल में पीएम मोदी ने एक फोटो ट्वीट की थी जिसमें उन्हें मूर्तिकार अरुण योगीराज दो फुट की सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति भेंट कर रहे थे.
Glad to have met @yogiraj_arun today. Grateful to him for sharing this exceptional sculpture of Netaji Bose. pic.twitter.com/DeWVdJ6XiU
— Narendra Modi (@narendramodi) April 5, 2022
योगीराज कहते हैं, ‘ग्रेनाइट एक डिफिक्ल्ट मीडियम है.जिसमें आपको करेक्शन का चांस भी नहीं मिलता है.ब्रास में, मिट्टी में आप गलतियों के बाद करेक्शन कर सकते हैं लेकिन ग्रेनाइट में ये मौका नहीं मिलता है.’
48 कलाकार, तीन शिफ्ट
अब जब इंडिया गेट पर प्रतिमा लग चुकी है. प्रतिमा में गौर किए जाने वाली बात है कि ये नेताजी के धोती कुर्ता वाले रूप का नहीं बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पहनी गई सेना की वाली वेशभूषा है. जब उन्होंने आजाद हिंद फौज का देश की आज़ादी के लिए नेतृत्व किया था.
“ये सफर बिलकुल आसान नहीं था,” योगीराज कहते हैं, ‘एक एक हथौड़ी पत्थर पर जब पड़ती थी तब पैंट के सिलुएट्स की बारीकी पर नजर रखना, अपने आपमें एक मुश्किल काम था. वैसी पैंट तो मैंने देखी ही नहीं थी. 75 दिनों में मूर्ति तैयार की गई है. बहुत समय देना पड़ा. 48 कलाकार दिन रात एक कर रहे थे.’
‘हमारे पास समय की भी बहुत कमी थी. मैं अपना बेस्ट देने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता था, मैं सोसाइटी को यह नहीं कहना चाहता था कि हमारे पास समय कम है.पत्थर हार्ड है. मैंने छह महीने का काम दो महीने में पूरा किया और इसके लिए हमारे कलाकारों ने 3-3 शिफ्ट में काम किया.
देशभर के पत्थर पर काम करने वाले बेहतरीन कलाकारों को राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश से मशहूर कालाकारों को बुलाया गया था.’
थर्मोकोल से रेप्लिका बनाया, उनकी समझ के हिसाब से उसे आसान शब्दों में समझाया कि बस आपको इतना करना है.
मैं बार बार ये कहता था नेताजी की चिंता आप मत करो आप बस इतना करो. और मैं थर्मोकोल पर उन्हें क्या करना है कि ब्रीफ देता था. गलतियां तो होती हैं लेकिन उससे घबराना नहीं है.मैं बस यही समझाता था अपने कलाकारों को.
सुभाष चंद्र बोस के परिवार वालों के परिवार वालों ने काफी सपोर्ट किया.उनके परिवार वाले बीच बीच में आकर काफी बातें साझा कीं. उन्होंने बहुत प्यार दिया जिसने मुझमें बहुत जोश भर दिया.
11 साल की उम्र में पत्थर तराशने लगे थे
अरुण कहते हैं कि, ‘मैंने 11 साल की उम्र में ही अपने यहां मौजूद कलाकारों के साथ कंपटीशन करता था कि मैं तुमसे पहले पत्थर को काट दूंगा.’
वह आगे कहते हैं, ‘मैं अपने पिता को देखता था कि वो पूरा पूरा दिन पत्थर तराश रहे हैं वो मुझे अच्छा नहीं लगता था..मैंने 14 साल की उम्र में सोच लिया था कि मुझे पिता को सहयोग करना है.’
योगीराज कहते हैं, ‘ चूंकि मेरी मां नहीं चाहती थी परिवार में कोई मूर्तिकार बने तो मैं पढ़ भी रहा था. मैंने मैसूर यूनिवर्सिटी से एमबीए की पढ़ाई भी की है.’
वह कहते हैं, ‘मां के लिए मैंने तीन महीने एक प्राइवेट कंपनी में एचआर में ट्रेनी की जॉब भी की, लेकिन मेरा इस काम में बिलकुल मन नहीं लगा.’
‘ मां ने पापा को पूरा पूरा दिन पत्थरों के बीच देखा था तो वो बिलकुल नहीं चाहती थी कि मैं ये करूं.लेकिन मैं पढ़ाई के साथ साथ पापा का हाथ बंटाता था. मैंने पत्थर काटना मूर्ति बनाना कभी नहीं छोड़ा था. फिर एक दिन मैंने मां को बोला कि मैं ये नहीं कर पाऊंगा मुझे वापस आना है. मेरी मां रोने लगी, लेकिन बाद में मान गई.’
दिन और रात एक करना पड़ता है मूर्तिकार
अब जब मूर्ति इंडिया गेट पर लग चुकी है तो अरुण अपने घर की तरफ लौट रहे हैं. वह बताते हैं कि मूर्तिकार पूरे पूरे दिन पत्थरों के बीच रहता है. उसका कम से कम दस घंटे मूर्ति और पत्थरों के बीच गुजरते हैं. हालांकि, उन्होंने अपने पुराने कामों की तरफ लौटना शुरू कर दिया है. शंकराचार्य की मूर्ति के बाद उन्होंने बाहर का काम लेना लगभग बंद कर दिया था.
हालांकि उनकी झोली में कई और बड़ी मूर्ति बनाने का भी नाम शामिल है. इसमें मैसूर के अंतिम महाराज जयचामाराजेंद्र वाडियार की 14.5 फीट की सफेद संगमरमर की मूर्ति, जिसका 2016 में अनावरण किया गया और बी.आर. अंबेडकर जिसका उद्घाटन कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2018 में किया था. दोनों मूर्तियां मैसूर में हैं.
पिछले साल, वह वैदिक विद्वान आदि शंकराचार्य की 12 फुट ऊंची मूर्ति को तराशने के लिए भी सुर्खियों में आए थे, जिसका अनावरण प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ मंदिर में किया था.
योगीराज की वेबसाइट के अनुसार, उन्होंने कई पुरस्कार जीते हैं, जिसमें 2021 में कर्नाटक सरकार का प्रतिष्ठित जकानाचारी पुरस्कार भी शामिल है.
सबकुछ है बस पापा नहीं
यह पूछने पर की पहली मूर्ति आपने कब बनाई और वो कौन सी थी तो अरुण ने बताया कि उम्र तो अभी याद नहीं है लेकिन मैं अपने पापा के साथ ही काम कर रहा था. पापा काम से कहीं शहर के बाहर थे..पापा के सहयोगी मूर्तिकार भी नहीं थे. तभी एक आइडल को डिलीवर करना था, तारीख भी कार्यक्रम की तय की जा चुकी थी..मैंने दो दिन में अयप्पा की मूर्ति तैयार कर दी.
मेरे पापा मेरा काम देखने के लिए अब इस दुनिया में नहीं है. दस महीने पहले ही एक एक्सीडेंट में उनकी डेथ हुई. जब मैं देश के लिए बड़े काम कर रहा था तो मेरे पापा ये देखने के लिए मेरे साथ नहीं रहे. मुझे बहुत बार लगता है कि भगवान बहुत कुछ देता है तो कुछ प्यारी चीज आपसे छीन भी लेता है.
‘मैं हर दिन अपने पापा को मिस करता हूं.’ उन्होंने कभी मेरी तारीफ नहीं की लेकिन उनकी आंखों में आए आंसू बहुत कुछ कह देते थे.
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