भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया यानी 400 से ज्यादा न्यूज चैनलों, 12,000 से ज्यादा अखबारों के बेशुमार एडिशन और उससे भी ज्यादा वेबसाइट्स से जुड़े लाखों मीडियाकर्मियों को 1 अप्रैल की आधी रात तक इस बात का एहसास नहीं हो पाया था कि देश की विशाल आबादी एससी-एसटी एक्ट को लेकर कितनी नाराज है. वे नहीं जानते थे कि अखबारों के छपने के लिए प्रेस में जाने और टीवी स्टूडियो की तमाम डिबेट पूरी होने के चंद घंटों बाद यानी दो अप्रैल की सुबह सैकड़ों शहरों में लाखों लोग एक साथ सड़कों पर होंगे.
यह भारतीय मीडिया पर बहुत कड़वी टिप्पणी है. आम तौर पर एससी-एसटी एक्ट की जो खबर एक-दो अप्रैल के अखबारों में अंदर के पन्नों पर कहीं छुपी थी, चैनलों ने जिनपर आधे और एक घंटे की एक भी डिबेट नहीं की थी, वही खबर दो अप्रैल की रात टीवी चैनलों पर छा जाती है और तीन अप्रैल को सुबह के अखबार में उछलकर पहले पेज की सबसे बड़ी खबर बन जाती है. लगभग हर अखबार ने भारत बंद पर संपादकीय लिखा.
आर्थर मिलर ने कहा था, ‘A good newspaper is a nation talking to itself’, यानी एक अच्छा अख़बार ख़ुद से गुफ़्तगू करता हुआ राष्ट्र है.
क्या भारतीय मीडिया भारतीय जनता से गुफ्तगू करता है? क्या उसे पता होता है कि देश की जनता की चिंताएं क्या हैं? और फिर सवाल ये भी है कि भारतीय मीडिया के लिए जनता कौन है? क्या मीडिया की जनता में गरीब, दलित, वंचित, आदिवासी, माइनॉरिटी, ओबीसी आदि भी शामिल हैं. या उसके लिए जनता का मतलब सिर्फ शहरी एलीट है, जो मुख्य रूप से सवर्णों से बना है?
अब तक कई शोध इस बारे में हो चुके हैं कि भारतीय न्यूजरूम में सवर्ण हिंदू पुरुषों का वर्चस्व है. लेकिन इसके साथ ये तर्क भी आता रहता है कि किसी समाज की पीड़ा को समझने के लिए उसी समाज का पत्रकार क्यों चाहिए. दो अप्रैल का मीडिया कवरेज इस तर्क को चैलेंज करता है. अगर न्यूजरूप में तमाम तबकों का प्रतिनिधित्व होता, तो भी क्या एससी-एसटी एक्ट का कवरेज इतना ही पक्षपातपूर्ण होता?
एससी एंड एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटिज़) एक्ट, 1989 के बुनियादी स्वरूप को बदल देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ भारत बंद का ऐलान कुछ एक्टिविस्ट ने किया था. दलितों आदिवासियों को अत्याचारों से बचाने और न्याय दिलाने के लिए जनता दल नीत राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने ये कानून बनाया था, उसे मौजूदा एनडीए सरकार कमजोर करने में जुटी थी. केंद्र सरकार के एडिशनल सोलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में यह बताया कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग होता है और एससी-एसटी एक्ट के मामलों में अग्रिम जमानत दी जा सकती है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने एससी-एसटी एक्ट में कुछ ऐसे प्रावधान जोड़ दिए, जिससे पूरा एक्ट ही निष्प्रभावी हो गया. भारत बंद इसके ही खिलाफ था.
इस घटना के कवरेज पर एक नजर डालते हैं.
इंडियन एक्सप्रेस के वेब पेज ने दो अप्रैल को रिपोर्ट की, ‘SC/ST Act: Dalits call for Bharat bandh on April 2, Centre to file review petition; everything you need to know’. आगे वो पंजाब सरकार द्वारा 1 अप्रैल की 5 बजे शाम से 2 अप्रैल की 11 बजे रात तक मोबाइल इंटरनेट सेवा, एसएमएस, डोंगल सेवा, आदि ठप किए जाने के आदेश की जानकारी देता है. अखबार में अभी तक खबर को पर्याप्त महत्व नहीं मिला है.
दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्त ने बकायदा साइन्ड लेख लिखकर इस एक्ट में किए गए बदलाव का समर्थन किया. वे लिखते हैं– ‘तीन दशक पहले एससी-एसटी एक्ट जिन परिस्थितियों में बनाया गया था उनमें काफी कुछ परिवर्तन आ चुका है. देश कई मायनों में आगे निकल चुका है और शहरों में लोग एक तो इसकी परवाह नहीं करते कि कौन दलित है और कौन नहीं और दूसरे, दलित भी अपनी पहचान छिपाने की जरूरत नहीं समझते.’
नवभारत टाइम्स का 3 अप्रैल का संपादकीय अपेक्षाकृत संतुलित था. अखबार लिखता है कि – ‘दरअसल इस कानून को दलित, आदिवासी वर्ग अब तक अपनी एक ताकत के रूप में देखता आया था, जो उसे लंबे संघर्ष के बाद हासिल हुई थी. इसमें सदियों से चले आ रहे उनके शोषण पर रोक का आश्वासन निहित था. भले ही इसका इस्तेमाल कम होता हो, पर इसकी मौजदूगी उनके लिए एक ढाल का काम कर रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने दुरुपयोग की आशंका में इसे लगभग निष्प्रभावी बना दिया.’ लेकिन अखबार को ये बात समझ में तब आई जब भारत बंद हो गया. उससे पहले इस मुद्दे की गंभीरता नवभारत टाइम्स समेत किसी अखबार को नहीं आई.
प्रगतिशील लोगों को ख़ासा पसंद समाचारपत्र द हिंदू ने 2 अप्रैल की रात को वेब पेज पर फाइल की हुई व 3 अप्रैल की दोपहर को अपडेट की हुई ख़बर की हेडिंग दी, ‘The Hindu explains: What triggered the ‘Bharat Bandh’?’ यह अख़बार जानकारी परोसता है कि इस बंद के चलते देश के अनेक हिस्सों में हिंसा देखी गई. अखबार के लिए दलितों-आदिवासियों के सवाल खबर नहीं है, सिर्फ हिंसा खबर है.
लेफ्ट-लिबरल्स के दुलरुआ चैनल एनडीटीवी का कैप्शन इसके लत्ते उतारता है, ‘दलितों के भारत बंद के दौरान कई राज्यों में हिंसा: 9 लोगों की मौत, हज़ारों हिरासत में’. इसकी रिपोर्टिंग में हिंसा की खबर तो है, लेकिन कारणों को लेकर चुप्पी है.
हिंदुस्तान टाइम्स 2 अप्रैल को रिपोर्ट फाइल करता है, ‘Bharat bandh highlights: Dalit protests spread across North India; 9 killed in Madhyapradesh, Rajsthan, UP’. मतलब यह अख़बार दलितों के विरोध प्रदर्शन को डेमनाइज़ करने के लिए इस रूप में चित्रित कर रहा है, जैसे यह मानव-विरोधी हो.
अगले ही रोज़ यह फिर लिखता है, ‘Bharat bandh brings India to a standstill: 3 reasons why Dalits are angry’. इसने राजीव चौक, गुड़गांव के नज़दीक प्रदर्शकारियों द्वारा पुतला-दहन की तस्वीर लगाई है. बाक़ियों की तुलना में बस थोड़ी-सी बेहतर रिपोर्ट इसे कहा जा सकता है कि इसने दलितों द्वारा किए गए मुक़दमे में कनविक्शन रेट में आई गिरावट की तस्वीर भी पेश की है.
एनडीटीवी ने 3 अप्रैल की दोपहर को अपने चैनल पर 5 मिनट के वीडियो क्लिप में गृहमंत्री का सदन में दिया वक्तव्य दिखाया जिसमें सरकार की ओर से रिव्यू पेटीशन दायर करने की बात की गई, जिसका कैप्शन दिया गया, ‘भारत बंद के दौरान हिंसा और मौत पर राजनाथ सिंह का बयान’. चैनल इस बयान की कोई क्रिटिकल समीक्षा पेश नहीं करता.
जहां 3 अप्रैल को जनसत्ता ने अपने मुख्य पृष्ठ पर आगजनी और बस-सेवा बाधित करने की तस्वीर के साथ हेडिंग दी, ‘भारत बंद में सात की मौत’, वहीं बसपा प्रमुख मायावती के बयान को तीसरे पृष्ठ पर सरका दिया, ‘कानून को कमज़ोर बनाने के ख़िलाफ़ व्यापक आक्रोश’. जबकि चौथे पृष्ठ की हेडिंग है, ‘हिंसक प्रदर्शन, थानों पर हमला, घायलों में 35 पुलिसकर्मी भी’, विशाल जनसमूह दिखाते हुए सातवें पृष्ठ की ख़बर है, ‘राजस्थान में बंद हुआ हिंसक, कई जगह तोड़फोड़’, वहीं संपादकीय पृष्ठ पर यह भारत बंद नदारद है.
इकॉनोमिक टाइम्स ने अपने एडिटोरियल में लिखा, ‘This violence serves no dalit cause’. यह दलितों के अब तक के संघर्ष व उपलब्धि की पैंपरिंग टोन में तारीफ करते हुए एक वाक्य सलीक़े से गिरा देता है, ‘Violence is not the way to register protest in a democracy. It is condemnable for the damage it does directly and counterproductive for the dalits’ cause as well’. इकॉनोमिक टाइम्स की भाषा उपदेश देने वाली है कि आप तो इतने अच्छे लोग हैं, आपको हिंसा नहीं करनी चाहिए.
घटना के एक दिन बाद देश के लगभग हर अखबार ने भारत बंद पर संपादकीय लिखा.
अमेरिका की एक घटना से इस लेख को पूरा करते हैं.
1967 में वहां शिकागो और डेट्रायट में नस्लीय दंगे भड़क उठे थे. जान-माल के भारी नुकसान के बाद वहां की सरकार ने आयोग गठित करके हिंसा के कारणों को जानने की कोशिश की. इसे केर्नर कमीशन के नाम से जाना जाता है. केर्नर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय मीडिया की भूमिका के बारे में लिखा.
कमीशन का मानना है कि नस्लीय हिंसा की एक बड़ी वजह है कि वहां के ब्लैक देश की मीडिया पर, जो ह्वाइट मीडिया है, भरोसा नहीं करते. ब्लैक्स की शिकायतें अखबारों के पन्नों पर नहीं होती. इसलिए वे अपनी शिकायतों की अभिव्यक्ति तमाम और तरीके से करते हैं. इस रिपोर्ट के बाद अमेरिकी मीडिया ने न्यूजरूम में डायवर्सिटी लाने की अभूतपूर्व पहल की. 1978 के बाद से वहां के तमाम बड़े अखबार हर साल ये रिपोर्ट सार्वजनिक करते हैं कि उनके न्यूजरूम में किस नस्ल के कितने लोग हैं और वे डायवर्सिटी के लक्ष्य की ओर किस तरह बढ़ रहे हैं.
अफसोस की बात है कि भारत का जातिभेद अमेरिका के नस्लभेद से ज्यादा स्थिर या कहें चिकना घड़ा साबित हुआ. 2 अप्रैल के भारत बंद ने भारतीय मीडिया में डायवर्सिटी के अभाव किसी भी बहस को जन्म नहीं दिया. भारतीय मीडिया अब भी उतना ही जातिवादी और सांप्रदायिक बना हुआ है और उसे नहीं लगता कि यह कोई बुरी बात है.
(लेखक जेएनयू से मीडिया रिसर्च में पीएचडी के शोधार्थी हैं)