वैश्वीकरण का यह ऐसा दौर है, जिसमें तमाम विश्व को एक छोटे से गांव के रूप में देखा जा रहा है. संस्कृतियों की विविधता को यह गांव निरंतर लील रहा है तो भाषाओं की समृद्ध विरासत भी इसी की भेंट चढ़ रही है. तमाम भारतीय भाषाओं की मूल कभी संस्कृत भाषा ही रही है, परंतु देवभाषा बनाकर इसे भी हम निरंतर अपने से दूर कर रहे हैं. ‘संस्कृत की सामयिकता’ पर संवाद करते क्या इस पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि संस्कृत के हमारे सरोकार क्या हैं? मुझे लगता है, संस्कृत भारतीय संस्कृति की भाषा है. वह भाषा, जिसने हमें संस्कार दिए हैं—अपनापे के, अनेकता में एकता के संस्कार.
संस्कृत वह भाषा है, जिसके बगैर भारतीय भाषाओं का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता. तमाम हमारी भाषाओं को भाषागत इकाई के रूप में किसी भाषा ने आबद्ध करके रखा हुआ है तो वह संस्कृत ही है. संस्कृत वैदिक भाषा रही है, इसीलिए इसे देव भाषा कहा जाता है, परंतु वैदिक से लौकिक संस्कृत की यात्रा में इस भाषा ने तमाम भाषाओं को अपनी ओर से निंरतर समृद्ध किया है. विडंबना यह है कि दूसरी भाषाओं को समृद्ध करते-करते स्वयं इसके अस्तित्व से ही हम निरंतर विमुख होते चले गए हैं.
संस्कृत ने हमारी सोच को व्यापक किया
बहरहाल, कला-संस्कृति पर अपने लिखे पर जब भी विचारता हूं, मुझे लगता है, यह संस्कृत ही है, जिसने हमारी सोच को व्यापक किया है. सोचिए! भारतीय पर्वत, वन, नदियों, झरनों, ऋतुओं का जितना सांगोपांग वर्णन संस्कृत में है, उतना क्या किसी और भाषा में है? यही क्यों, शिक्षा ग्रंथों का निर्माण भी सर्वाधिक संस्कृत भाषा में ही हुआ है. व्याकरण और व्याकरण से संबंधित तमाम दूसरे ग्रंथ, जिनसे भाषा को शास्त्रीय रूप मिलता है, वे सबके सब संस्कृत में ही तो हैं. माने संस्कृत नहीं होती तो भाषाएं अपने शास्त्रीय रूप में अपने अस्तित्व में आ ही नहीं पातीं. संस्कृत के नाम पर ही विचारें. संस्कृत माने संस्कारित भाषा. किसी जाति विशेष की नहीं, किसी वर्ग विशेष की नहीं, न ही किसी स्थान विशेष की वरन् पूरे भारतवर्ष की संस्कृति की द्योतक भाषा. यह बात अलग है कि इसे हर दौर में पुरोहितों की, शास्त्र की भाषा बताते आम जन से दूर किए जाने के प्रयास किए जाते रहे, परंतु इससे क्या? भाषा के संस्कार क्या इससे गौण हो सकते हैं. तमाम भाषाएं और भारत ही नहीं विश्व में आज भी अंग्रेजी के बाद सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा हिंदी का मूल तो संस्कृत ही है और वह रहेगी. संस्कृत की यही सामयिकता है.
सामयिकता माने सामयिक होने का भाव. वर्तमान समय, परिवेश आदि के विचार से उपयुक्त दृष्टिकोण या अवस्था. इस दृष्टि से विचारें तो सवाल यह उठता है कि संस्कृत की सामयिकता पर हम क्यों विचार करें? क्यों संस्कृत पत्रकारिता के सवालों से जूझें? जूझें तो तब न जब संस्कृत की सामयिकता कभी समाप्त हुई हो. मुझे लगता है, संस्कृत की सामयिकता न कभी समाप्त हुई और न कभी समाप्त होनेवाली है. इसलिए कि आप-हम जिन शब्दों का दैनंदिन प्रयोग करते हैं, वे कहां से आए? हम जो भाषा लिखते हैं, बोलते हैं और आपस में बरतते हैं, उसके अधिकांश शब्द तो आज भी 60 से 70 प्रतिशत संस्कृत से ही हैं. इस सच से कौन इनकार कर सकता है कि पाली, प्राकृत और अपभ्रंश से होकर मूल संस्कृत शब्द हिंदी में आए हैं.
संस्कृत से ही तो हमारी परंपराओं का पोषण हुआ है. उन परंपराओं का, जिनमें वैदिक, उपनिषद और तमाम पौराणिक, सामाजिक और आर्थिक साहित्य लिखा गया. कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वेद, उपनिषद्, गीता, सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं. संस्कृति की जड़ें इससे ही हरी हैं. आधुनिक हिंदी तो संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों की हिंदुस्तानी ही है. विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा हिंदी का तो उद्गम ही संस्कृत है. हिंदी ही क्यों उर्दू, कश्मीरी, उड़िया, बांग्ला, मराठी, सिंधी आदि सभी संस्कृत से ही तो जन्मी हैं.
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संस्कृत देववाणी नहीं, हमारी-आपकी वाणी है
सबसे अधिक पीड़ा तब होती है, जब संस्कृत को देववाणी कहा जाता है. देव-वाणी क्यों, यह आप-हम की वाणी है. क्यों नहीं इसे ‘सुरभारती’ कहें. आखिर भारत का सुर इसी में तो समाहित है. मुझे लगता है, भाषा की लय, प्रवाह, सांगीतिक आस्वाद कहीं है तो संस्कृत में ही है. यह बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक देश की आत्मा है. उसकी धड़कन है. तमाम लिखे और कहे का संदर्भ आज भी हम कहीं ढूंढ़ते हैं तो संस्कृत में ही तो ढूंढ़ते हैं. लिखने और बोलने में कहीं अटके, कहीं भटके तो त्वरित शास्त्रों का, अर्थशास्त्र का, पाणिनि के व्याकरण का, पंतजलि के योगशास्त्र का, आर्यभट्ट के खगोलशास्त्र के संदर्भ संस्कृत में ही तो मिलेंगे.
संस्कृति कोई ऐसी चीज, वस्तु नहीं है, जो जब चाहे बन जाए. वर्षों तक हम जो व्यवहार करते हैं, जैसा पहनते हैं, जैसा खाते हैं—वही बाद में हमारी संस्कृति बन जाती है. सोचिए, हमारे पुरखों ने छह हजार साल तक जिस भाषा में सोचा, जिसमें लिखा, जिसे विचारा, क्या वही बाद में हमारी संस्कृति नहीं बन गई. कहां जाएंगे हम संस्कृत से दूर. कैसे भागेंगे. संस्कृत और इसके जरिए हमारी वह संस्कृति सदा हमारे साथ रहेगी. संस्कृत की जो शब्द-संपदा है, आज भी हिंदी के परिष्कृत रूप में आधुनिकता का लिबास पहने आप हम सबके समक्ष है. मुझे लगता है, संस्कृत की यही सामयिकता है.
पत्रकारिता में भाषा, संवेदना, तथ्य और विश्लेषण के साथ ही सामयिकता से ही सदा नए रास्ते खुले हैं. ऐसे में जो भाषा सदा-सर्वदा सामयिक हो, उसे क्या पत्रकारिता का आधार नहीं कहेंगे! संस्कृत पत्रकारिता पर विचारें तो इसे सीमित अर्थ में न देखा जाए. इसका अर्थ संस्कृत पत्रकारिता से नहीं है. इसका अर्थ है पत्रकारिता के कर्म में संस्कृत भाषा का प्रयोग. मुख्य धारा की पत्रकारिता में तो आज भी संस्कृत ही बड़ा आधार-स्तंभ है. पत्रकारिता जो करते हैं, शब्द जो बरतते हैं, उन्हें भी नहीं पता कि वह शुद्ध संस्कृत शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं. मसलन महात्मा, योग जैसे शब्द जो हर लिखे में और कहे में हम प्रयुक्त करते हैं, ये दोनों ही शब्द संस्कृत के ही हैं. महात्मा माने महान् आत्मा और योग माने जोड़.
कुछेक और ऐसे ही शब्दों पर विचार करें, जो हम निरंतर पत्रकारिता में बरतते हैं, पढ़ते हैं—मोह और मुग्ध शब्द हैं. ये दोनों ही संस्कृत की मुंह धातु से बने हैं. इनमें मूलतः किसी के प्रभाव में आकर बुद्धि पर परदा पड़ जाने अथवा ठगे जाने का भाव है. श्रीकृष्ण का मोहन नाम भी इसी से निकला है. उनकी मोहिनी के आगे सभी ठगे से रह जाते हैं. वंशी भी ऐसा ही शब्द है. इसका तद्भव बंसी है. बंसी माने मुरली. बांस से बनी, इसलिए बंसी कर दिया. यह लोक प्रयोग है. इसे आप रोक नहीं सकते. रोकना भी नहीं चाहिए. भ्रष्ट भी ऐसा ही शब्द है. यह संस्कृत से ही निकला है. संस्कृत की धातु भ्रंश है. इसका मतलब होता है गिरना, टपकना, विचलित होना आदि. इससे बने शब्द भ्रष्ट में गिरा हुआ, दुश्चरित्र, पापित, बरबाद जैसे अर्थ भी शामिल हो गए.
कुल मिलाकर भ्रष्ट वह है, जो अपने मार्ग, स्थान, पद, गरिमा व चरित्र के मद्देनजर उचित व्यवहार न करे. इसी तरह मुंज है. यानी एक खास तरह की घास की करधनी, जिसे कमर में बांधा जाता है. हिंदी का मुंज शब्द दरअसल बना है संस्कृत के मौंज से. मौंज जिससे रस्सी बुनी जाती है. जनेऊ, उपनयन या यज्ञोपवीत के वक्त इसे पहनना अनिर्वाय होता है. तड़ातड़ शब्द भी संस्कृत की तड् धातु से बना है. तड् माने आघात करना. तड़ाक तड् से ही निकला है. बंदूक से निकली गोलियों के लिए भी तड़ातड़ जैसा शब्द ही प्रचलित है. आकाशीय बिजली के लिए संस्कृत का तड़ित शब्द हिंदी में भी प्रचलित है. ऐसे ही बहुप्रचलित शब्द सूप है. संस्कृत में बनी-बनाई दाल को सूप कहते हैं. दाल खाने में नहीं परंतु सब्जियों को उबालकर प्रयुक्त सूप. धूम शब्द भी ऐसा ही है. संस्कृत में अर्थ है धुआं. हिंदी में इसे चहल-पहल, छा जाने के अर्थ में अपना लिया. पत्री या पत्रिका संस्कृत में है. इसका अर्थ है चिट्ठी. हमने कर दिया चिट्ठी-पत्री. चिट्ठी का चिठी और पत्री का फिर हमने पाती कर दिया. प्रेम की पाती. घड़ी शब्द भी तो संस्कृत से ही आया है. घटी यंत्र से घटी घड़ी हो गया.
संस्कृत की यही सामयिकता है. ऐसे दैनंदिनी प्रयोग के और शब्द खोजे जाएंगे तो उनका कोई अंत नहीं होगा. माने संस्कृत आज भी सब ओर व्याप्त है. आवश्यकता इस बात की है कि संस्कृत शब्दों को हम सर्वग्राही बनाते उन्हें नष्ट-भ्रष्ट न करें. मेरी अपनी सीमा है, नौकरी की व्यस्तताएं और अर्थ चिंता न होती तो संस्कृत शब्द संचयन कर उनके अधुनातन प्रयोग के काम में ही लग जाता.
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