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Thursday, 25 April, 2024
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आजादी के पहले सावरकर को कांग्रेस ने कहा था ‘रिक्रूटवीर’; बताया था अंग्रेजों का पिट्ठू

विभाजन के समय पाकिस्तान की तुलना में यदि सैन्य संतुलन भारत के विरुद्ध होता तो नए मुसलिम राष्ट्र ने भारतीय सीमावर्ती मुसलिम बहुल राज्यों-राजस्थान, गुजरात और यद्यपि बंगाल के मुसलिम बहुल क्षेत्रों को निगलने का प्रयास किया होता, जहां मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी.

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सावरकर का सर्वोत्तम सुरक्षा दृष्टिकोण इस तथ्य में प्रतिबिंब‌ित होता है कि एक ओर उन्होंने अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए बोस से धुरी देशों का समर्थन प्राप्त करने का अनुरोध किया, दूसरी ओर उन्होंने हिंदुओं को अपना सैन्यीकरण करने का आह्व‍ान किया, ताकि वे द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हो सकें. जो अंग्रेज बहुत पहले से ही भय और अविश्वास के कारण भारतीयों को निरस्त्र एवं अप्रस्तुत बनाए रखने का प्रयास कर रहे थे, वही अब अपनी फौजी जरूरतों की पूर्ति के लिए उन्हें सेना में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे.

सेना में जातीय भेद को समाप्त करने की दिशा में किया काम

सावरकर, मुंजे एवं हिंदू महासभा द्वारा की गई राष्ट्र की महानतम सेवाओं में एक सेवा यह भी थी कि उन्होंने 1930 में भारतीय युवकों को ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल करते समय योद्धा एवं अयोद्धा हिंदुओं के मध्य जातीय भेद को समाप्त करने के लिए राजी कर लिया था. मुंजे, जो कि सभी हिंदुओं के सैन्यीकरण के समर्थक थे, उन्होंने सावरकर के राजनीतिक परिदृश्य में आने से पूर्व ही सेना की भर्तियों में जातिगत भेद को समाप्त करने की दिशा में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था. बहरहाल सावरकर के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने के बाद अंग्रेजों की ओर से इस अभियान में व्यापक प्रोत्साहन मिला. अंग्रेजों को द्वितीय विश्वयुद्ध में उनके लिए लड़ने वाले सैनिकों की ही आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने उसके दीर्घकालिक परिणामों पर विचार किए बिना सावरकर के प्रस्ताव को लपक लिया. इसका श्रेय सावरकर की उस गुप्त योजना को जाता है, जिसके अंतर्गत वह भारतीयों के लिए एक समानांतर रणभूमि तैयार कर रहे थे, जिसके लिए वह धन्यवाद के पात्र थे. यह छत्रपति शिवाजी महाराज के उन आदर्शों के समान था, जो महाराष्ट्र में जातीय बंधनों को तोड़कर सभी हिंदुओं को अपनी सेना में भर्ती करके उन्हें लड़ाके बना रहे थे. इन सैनिकों में अस्पृश्य महार जाति भी शामिल थी.

हिंदुओं के सैन्यीकरण के सावरकर के आह्व‍ान का समर्थन सुदृढ़ कारणों एवं तर्कसंगत चिंतन द्वारा किया जा रहा था. उन्होंने देख लिया था कि किस प्रकार मुसलमान अपनी संख्या एवं देश में हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या के अनुपात के आधार पर सेना में हिंदुओं से बहुत आगे थे. वह वैश्विक इस्लामवाद के प्रति कांग्रेस की कायर प्रतिक्रिया को देखते हुए क्षितिज पर देश के विभाजन के बारे में विचार कर रहे थे और उनका मानना था कि भारत एवं पाकिस्तान के मध्य होने वाले अंतिम संघर्ष का निर्णय सैन्य शक्ति द्वारा किया जाएगा.


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मुस्लिम लीग की बढ़ गई थी चिंता

हिंदू महासभा के सैन्यीकरण अभियान के कारण लाखों हिंदू ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हो गए और पांच वर्षों के कालखंड (1939-43) में हिंदू सैनिकों की संख्या एक-चौथाई से बढ़कर लगभग 70 प्रतिशत हो गई. सेना में हिंदुओं की बढ़ती संख्या से चौकन्नी हुई मुस्लिम लीग ने 1941 एवं 1944 के मध्य चार बार अपनी चिंता जताई. इस विषय में दी गई दो चेतावनियों में एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति सर जियाउद्दीन अहमद की ओर से और दूसरी पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान, जो उस समय अखिल भारतीय मुसलिम लीग के सचिव थे, की ओर से दी गई थी.

सही था सावरकर का अनुमान

अनुगामी घटनाओं ने सिद्ध किया कि सावरकर अपने जगह पर एकदम सही थे. ब्रिटिश भारतीय सेना के कुल मुसलिम सैनिकों में से 90 प्रतिशत से अधिक ने विभाजन के समय पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का चुनाव किया. विभाजन के तत्काल बाद 1947 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया और जम्मू एवं कश्मीर के एक-तिहाई भाग पर कब्जा कर लिया. इन आक्रमकारियों में वे मुसलिम सैनिक भी ‌थे जो कभी आजाद हिंद फौज में शामिल थे. विभाजन के समय पाकिस्तान की तुलना में यदि सैन्य संतुलन भारत के विरुद्ध होता तो नए मुसलिम राष्ट्र ने भारतीय सीमावर्ती मुसलिम बहुल राज्यों-राजस्थान, गुजरात और यद्यपि बंगाल के मुसलिम बहुल क्षेत्रों को निगलने का प्रयास किया होता, जहां मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी.

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अपने सैन्यीकरण अभियान के दौरान सावरकर पूरे देश में घूमे और अपने इस दृष्टिकोण पर बल दिया कि द्वितीय विश्वयुद्ध हिंदू युवकों के लिए शस्‍त्र प्रशिक्षण प्राप्त करने का स्वर्णिम अवसर लेकर आया है, जिसका उपयोग वे समय आने पर राष्ट्र के लाभ हेतु कर सकेंगे. सावरकर ने उनसे कहा कि जब आप लोग एक बार सीख जाएंगे कि बंदूक कैसे चलाई जाती है तो यह निर्णय आपके हाथ में होगा कि अपने लाभ के लिए आप लोग अपनी बंदूकों की नली को किस ओर मोड़ना चाहेंगे. अंग्रेज राजनीति को सेना से दूर रखना चाहते थे, परंतु सावरकर ने इस बात पर बल दिया कि राष्ट्र की अंतिम लड़ाई के लिए भारतीयों को सेना में राजनीति को अवश्य ले जाना चाहिए. हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं ने सेना के भर्ती अधिकारियों से हाथ मिला लिया और अनेक राइफल क्लब शुरू कर दिए. सावरकर ने कोंकण, विशेषतया भंडारी एवं खारवी वर्गों के युवकों से, जो परंपरागत रूप से जन्मजात नाविक थे, अपील की कि आप लोग नौसेना में प्रशिक्षण प्राप्त करें और वहां महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार कर लें. उन्होंने कहा कि भले ही आज ये सैनिक विदेशी सरकार के वेतन पर सेना में मात्र दासों की भाँति दिखाई दे रहे हों, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि जब महत्त्वपूर्ण अवसर आएगा तो ये लोग खुद को सच्चा देशभक्त एवं कट्टर हिंदू सिद्ध करेंगे.

इस चरण के दौरान सावरकर ने अपनी अद्वितीय राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि का प्रदर्शन करते हुए कहा—

अतीत में युवकों को अपने पास पिस्तौल रखने के अपराध में जेलों में सड़ना पड़ता था, परंतु आज अंग्रेज स्वयं आपके हाथों में राइफलें, बंदूकें, तोपें एवं मशीनगनें थमा रहे हैं. आप लोग सैनिकों एवं सेनानायकों के रूप में पूर्णतया प्रशिक्षित हो जाएं. हजारों मिस्त्रियों को पोत कारखानों, विमानों, बंदूकों एवं आयुध कारखानों में भर्ती कराकर उन्हें दक्ष विशेषज्ञों के रूप में प्रशिक्षित कराएं.

मैं आप लोगों से सेना में शामिल होने और बंदूक चलाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने का अनुरोध करता हूं, ताकि आप समय आने पर उनका मुंह स्वतंत्रता-प्राप्ति की ओर मोड़ सकें. मैं आप लोगों से जो कुछ साफ-साफ कह रहा हूं, वही बात मैंने स्वयं वायसराय से भी कही है. आप लोग अनुबंधों (एग्रीमेंट) एवं प्रतिज्ञा-पत्रों (बाॅण्ड) की कदापि चिंता न करें. उन दस्तावेजों के पीछे का भाग पूर्णतया रिक्त है. समय आने पर आप उसमें नए समझौते और प्रतिज्ञा पत्र (बाॅण्ड) लिख सकते हैं. आप लोग इस तथ्य को भलीभांति समझ लें कि चाहे आप पूरी धरती को ऐसे प्रस्तावों एवं अनुबंधों से ढक दें, फिर भी आपको स्वराज कभी नहीं मिलेगा. परंतु यदि आप इन प्रस्तावों को अपने कंधों पर टंगी राइफलों से लिखेंगे तो आप उसे अवश्य प्राप्त कर लेंगे.


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सुभाषचंद्र बोस ने की थी उनकी नीति की प्रशंसा

सावरकर की सैन्यीकरण नीति ने उन्हें बोस से खूब प्रशंसा दिलाई. 25 जून, 1944 को सिंगापुर रेडियो से प्रसारित अपने संदेश में बोस ने कहा—

जब अपनी दिग्भ्रमित राजनीतिक चित्तावस्था एवं दूरदर्शिता के अभाव में कांग्रेस के लगभग सभी नेता भारतीय सेना के सभी सैनिकों को भाड़े के टट्टू कहकर उनकी निंदा कर रहे हैं, यह जानना दिल को छू लेने के समान है कि वीर सावरकर निर्भय होकर भारत के युवकों को सशस्‍त्र सेनाओं में अपना पंजीयन कराने हेतु प्रेरित कर रहे हैं. यही पंजीकृत युवक स्वयं हमें प्रशिक्षित सैनिक उपलब्ध कराएंगे, जिनमें से हम अपनी इंडियन नेशनल आर्मी (भारतीय राष्ट्रीय सेना) के लिए सैनिकों का चयन करेंगे.

रास बिहारी बोस ने भी अपनी रेडियो वार्त्ता में सावरकर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की—‘आपको प्रणाम करते हुए मुझे अपने एक वरिष्ठतम साथी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के आनंद की अनुभूति हो रही है. आपको प्रणाम करने के माध्यम से मैं स्वयं बलिदान के प्रतीक को प्रणाम कर रहा हूं. सावरकर के अद्वितीय त्याग, अकथनीय कष्टों एवं अजेय साहस को अपनी आदरांजलि देते हुए उन्होंने आगे कहा—‘आपकी बिना शर्त रिहाई के पीछे मैं ईश्वर के दैवीय हाथों को स्पष्टतया देख सकता हूं. आपने अपने इस विचार के प्रचार के माध्यम से एक बार फिर अपनी महानता सिद्ध कर दी है कि हमारी राजनीति को अनिवार्यतः दूसरों की विदेशी राजनीति पर आश्रित नहीं होना चाहिए. इंग्लैंड के शत्रु नि‌श्चय ही हमारे मित्र होंगे.’ रास बिहारी ने अपनी रेडियो वार्त्ता का समापन ‘वंदे मातरम्’ के जयघोष के साथ किया.

कांग्रेस ने सावरकर को कहा अंग्रेजों को पिट्ठू

सावरकर के राष्ट्रीय सुरक्षा निर्माण अभियान को मिलने वाले भारी जन-समर्थन से भयभीत होकर, कांग्रेस गंदा खेल खेलने पर उतारू हो गई. यहां तक कि उसने सावरकर को अंग्रेजों के पिट्ठू के रूप में प्रचारित करते हुए उन्हें ‘रिक्रूट वीर’ कहकर उनका मजाक उड़ाया. कांग्रेस के इस निंदा अभियान का उद्देश्य हिंदू महासभा की उस बढ़ती लोकप्रियता पर चोट करना था, जोकि उसके नैदानिक पाकिस्तान-विरोधी अभियान के कारण उसे प्राप्त हो रही थी. तथापि सावरकर अविचलित थे. राणा प्रताप की भांति सावरकर के लिए भी राष्ट्र सर्वोपरि था.

सन् 1946 में हुआ शाही भारतीय नौसेना विद्रोह यद्यपि एक संक्षिप्त घटना (18-23 फरवरी) था, परंतु उसे आज भी भारतीय इतिहास में उसका योग्य स्थान नहीं मिला है. वह विद्रोह अंतिम धमाका था, जिसने भारत में ब्रिटिश सम्राज्य के लिए मौत की घंटी बजा दी थी. बंबई के प्रारंभिक बिंदु से शुरू हुए उस विद्रोह को पूरे ब्रिटिश भारत में कराची से कलकत्ता तक समर्थन मिला और अंततोगत्वा 78 जहाजों में मौजूद लगभग 20,000 से अधिक नाविक उसमें शामिल हो गए, जिनमें एक बड़ी संख्या उन सैनिकों की थी, जो सावरकर के सैन्यीकरण अभियान के अंतर्गत नौसेना में शामिल हुए थे.

विद्रोह शुरू होने के ठीक एक दिन बाद 19 फरवरी को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ्रेड्रिक पैथिक-लाॅरेंस ने हाउस ऑफ लार्ड्स में घोषणा की कि भारत में कांग्रेस-मुसलिम लीग गतिरोध को हल करने के लिए तीन सदस्यीय कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा जाएगा. यथावत् रूप से भारत की समस्या के विषय में लेबर पार्टी अपने पूर्ववर्ती कंजर्वेटिव पार्टी से बिल्‍कुल भिन्न दृष्टिकोण रखती थी. विद्रोह के दो सप्ताह बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सम्राट् के साथ मुलाकात की और 5 मार्च, 1946 को भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय ले लिया गया था.

ये किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है. इसकी कीमत 400 रुपये है.

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