कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का पार्टी से मोहभंग होने का सिलसिला थमने का नाम नही ले रहा है. नेहरू गांधी परिवार के करीबी रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. उन्होंने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी पर निशाना साधा है जिससे कांग्रेस के भीतर और बाहर राजनीतिक माहौल गर्माने लगा है. आजाद ने नई पार्टी बनाने के संकेत दिये हैं और उनके समर्थन में जम्मू कश्मीर के कांग्रेस के नेताओं के इस्तीफे की झड़ी लग गई है. आजाद ने 4 सितंबर को जम्मू में रैली करने की घोषणा की है जिस दिन कांग्रेस की दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली पहले से प्रस्तावित है. माना जा रहा है कि आजाद जम्मू रैली में अपनी नई पार्टी बनाने का औपचारिक ऐलान कर सकते हैं. जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद राज्य का नये सिरे से परिसीमन का काम पूरा हो चुका है और वहां पर अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं. आजाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनकी छवि एक बेदाग और ईमानदार नेता की रही है.
आजाद कांग्रेस के पुराने और अनुभवी नेता रहे हैं और विरोधी भी उनके चुनावी गणित का लोहा मानते हैं. नेहरू गांधी परिवार से उनका नाता इंदिरा गांधी के समय से रहा है और उन्होंने अपना अधिकतर समय संगठन की मजबूती में लगाया. राजीव गांधी के समय से वह संगठन के काम को बड़ी संजीदगी से करते रहे. वह सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उनके भी विश्वास पात्र रहे और सोनिया गांधी ने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये 1999 में अमेठी से नामांकन दाखिल किया था लेकिन यह सीट बहुकोणीय मुकाबले में फंस गई थी. यह देखते हुये खुद गुलाम नबी आजाद ने उनके लिये कांग्रेस के लिये सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट का चयन किया और उन्हें वहां से भी चुनाव लड़ाया.
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सोनिया के लिए आजाद की रणनीति काम आई थी
भाजपा सोनिया गांधी को घेरने में लगी हुई थी और इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वहां पर उन्हें घेरने के लिये भाजपा ने अपनी कद्दावर नेता सुषमा स्वराज को चुनाव लड़ाया. आजाद की रणनीति काम आई और सोनिया के खिलाफ भाजपा अपने मंसूबे को पूरा नही कर पाई. 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलाने में भी आजाद की भूमिका की पार्टी के भीतर और बाहर जमकर सराहना हुई थी. दरअसल, उस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की जीत तय मानी जा रही थी. कांग्रेस ने शहरी सीटों के साथ ग्रामीण इलाकों की सीटों को लेकर खास रणनीति अख्तियार किया और भाजपा की फिर से सत्ता में वापसी की योजनायें धरी की धरी रह गईं. चुनाव प्रचार के दौरान हमारी आजाद से मुलाकात हुई थी और तब उन्होंने कटाक्ष किया था कि भाजपा को शहर पर फोकस करने दीजिये, कांग्रेस तो ग्रामीण इलाकों पर फोकस कर रही है.
गांधी परिवार का आजाद पर भरोसे का आकलन उनके राजनीतिक सफर से लगाया जा सकता है. वह राजीव गांधी, नरसिंह्मा राव और मनमोहन सिंह की सरकार में संसदीय कार्य मंत्री रहे और राज्यसभा में दो बार नेता प्रतिपक्ष रहे. कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को बनाने में भी आजाद की भूमिका को उसके सहयोगी दल याद करते हैं. कुछ ऐसा ही नजारा जम्मू कश्मीर में भी देखने सुनने में आ रहा है. कांग्रेस ही नहीं, बल्कि राज्य के बाकी छोटे बडे़ दलों के नेताओं ने जिस तरह से आजाद के इस्तीफे पर प्रतिक्रिया दी उससे साफ सहानुभूति की लहर उनके साथ कहीं ज्यादा है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की आजाद से मुलाकात का सिलसिला थमने का नाम नही ले रहा है. आजाद से मिलने वाले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ तो उनकी प्रतिद्वंदी कुमारी शैलजा ने मोर्चा खोल दिया है और पार्टी हाईकमान से कारण बताओं नोटिस जारी करने की मांग की है.
कांग्रेस की स्थिति खासकर संगठनात्मक दृष्टि से 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद असंतोष के भंवर में फंसती चली जा रही है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के एक समूह ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर राहुल गांधी की कार्यशैली की आलोचना की थी, जिसे जी23 के नाम से जाना जाता है. यह एक गोपनीय पत्र था लेकिन इसके सार्वजनिक होने के बाद इससे जुडे़ नेताओं की अनदेखी की रिपोर्टें आने लगी. मायूसी के इस दौर में कांग्रेस के हाथ से और राज्य निकल गये लेकिन उसे सबसे बड़ा सदमा मध्य प्रदेश की सत्ता जाने से लगा. कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गये. दरअसल, राहुल गांधी के लिये यह बड़ा झटका था जो अपनी मां और कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी बनने की कोशिश में हैं. मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा के पिछले चुनावों में क्रमश: ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट की भूमिका की सर्वत्र सराहना हुई थी लेकिन जब सत्ता सौंपने की बात आई तो पार्टी हाईकमान ने दिग्गज नेताओं कमलनाथ और अशोक गहलोत पर ज्यादा भरोसा जताया और वे मुख्यमंत्री बने.
दरअसल, सोनिया गांधी ने पुराने कांग्रेसी नेताओं को संदेश देने की कोशिश की थी कि उनके सम्मान में कमी नहीं होने दी जायेगी. लेकिन इस निर्णय को कांग्रेस की कमान को नई पीढ़ी को सौंपने के सपने पर कुठाराघात के रूप में लिया गया. राहुल गांधी की टीम के सदस्य माने जा रहे इन नेताओं को अपने भविष्य को लेकर चिंता सताने लगी और पार्टी युवा एवं पुराने दिगगज नेताओं में द्वंद में फंसती चली गई. पहले यह लग रहा था कि राहुल गांधी पार्टी के सर्वमान्य नेता बन सकते हैं लेकिन उनकी युवा टीम के बाकी नेताओं के बढ़ते प्रभाव के कारण उनके कट्टर समर्थक असहज हो गये. पिछले लोकसभा चुनाव में बड़ी पराजय ने राहुल गांधी की छवि को लेकर अनेक सवालिया निशान लगाये. राहुल गांधी पार्टी का नेतृत्व संभालने से हिचकिचाते दिखे जिसके कारण एक बार फिर सोनिया गांधी पर कांग्रेस को एकजुट करने और उसे मजबूत करने की जिम्मेदारी आ गई.
एक रिपोर्ट के अनुसार, 2014 और 2021 के बीच हुए चुनावों के दौरान 222 चुनावी उम्मीदवारों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी, जबकि 177 सांसदों और विधायकों ने पार्टी को अलविदा कहा. आजाद से पहले कांग्रेस पार्टी छोड़ने वाले अन्य प्रमुख नेताओं में अमरिंदर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, अजीत जोगी, शंकर सिंह वाघेला, कपिल सिब्बल, जयंती नटराजन, हेमंत बिस्वा सरमा, रीता बहुगुणा, जगदंबिका पाल, आरपीएन सिंह, सुनील जाखड़, हार्दिक पटेल, अश्विनी कुमार, नरेश रावल, राजू परमार, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव, मुकुल संगमा, पीसी चाको, टाम वडक्कन, नारायण राणे, सतपाल महाराज, प्रियंका चतुर्वेदी शामिल हैं.
गांधी परिवार को लेकर असंतोष का लंबा इतिहास
आजाद ने कांग्रेस छोड़ने की वजह गिनाते हुये जिस तरह से राहुल गांधी पर निशाना साधा उससे कांग्रेस में यह बहस तेज हो गई कि गांधी परिवार के सदस्य को फिर कांग्रेस की कमान सौंपी जानी चाहिये या नहीं. नेहरू गांधी परिवार के हाथ में कांग्रेस की कमान को लेकर असंतोष का लंबा इतिहास है. आजादी के आंदोलन से लेकर देश के आजाद होने तक यह परिवार सुर्खियों में रहा है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को पंडित जवाहरलाल नेहरू पर बहुत भरोसा था और कई मौकों पर उन्होंने नेहरू को आगे करके अनेक दिग्गज नेताओं की अनसुनी की. यही नहीं नेहरू को कांग्रेस की कमान सौंपने के लिये गांधी जी ने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया और सरदार वल्लभ भाई पटेल को नेहरू का साथ नही छोड़ने के लिये राजी किया. देश आजाद हुआ और नेहरू के हाथ में सत्ता की बागडोर आई. नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने और नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी उनके मंत्रिमंडल में सूचना प्रसारण मंत्री बनीं. पुराने दिग्गज कांग्रेसी नेता जो इस परिवार को लेकर असंतोष जाहिर करते रहते थे उन्होंने लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने भरपूर कोशिशें कीं लेकिन वे कामयाब नही हुये.
यही नहीं, 1969 में राष्ट्रपति के चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार बने लेकिन इंदिरा गांधी ने वीवी गिरी को उम्मीदवार बनवाया और चुनाव से ऐन पहले अपील की कि लोग अपनी अंतरआत्मा की आवाज से वोट दे सकते हैं. नतीजा यह हुआ कि नीलम संजीव रेड्डी हार गये और अंतत: कांग्रेस का विभाजन हो गया. कांग्रेस की कमान और देश की सत्ता इंदिरा गांधी के हाथ में आ गई. इमरजेंसी लगने से पहले और बाद में कांग्रेस के पुराने दिग्गज नेता इंदिरा गांधी के खिलाफ थे और जनता पार्टी बनाकर उन्होंने सत्ता भी हासिल की लेकिन फिर आपसी कलह के कारण बिखर गये. नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई. इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी उत्तराधिकारी बने और सहानुभूति की लहर के सत्ता पर काबिज हो गये.
बोफोर्स घोटाले के कारण राजीव सत्ता से बाहर हो गये लेकिन उन्होंने विपक्ष में रहते हुये फिर सहानुभूति बटोरी और कांग्रेस की जीत सुनिश्चित की. चुनाव प्रचार के दौरान राजीव की हत्या के बाद पीवी नरसिंह्मा राव प्रधानमंत्री बने और उनके कार्यकाल में गांधी परिवार ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था लेकिन फिर सोनिया गांधी आगे आईं और 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत ने इस परिवार की धाक फिर से कायम कर दी. 10 साल केंद्र की सत्ता में रहने के बाद 2014 में कांग्रेस भाजपा से हार गई और तब से यह परिवार अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है. संगठन के लिहाज से कांग्रेस कमजोर हो रही है और गांधी परिवार इस सच को जान रहा है, अब देखना होगा कि वह अपनी कमियों को दूर करने के लिये कौन सा रास्ता अख्तियार करेगी.
बहरहाल, कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद आजाद के लिये अलग से पार्टी बनाने का विकल्प खुला है. वह ममता बनर्जी की तर्ज पर तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी का गठन करके अपनी राजनीति की अगली पारी की शुरुआत जम्मू कश्मीर से कर सकते हैं. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार को उखाड़ फेंकने में कामयाब रही थीं और भाजपा के कडे़ विरोध के बावजूद वहां पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये हुये हैं. आजाद जम्मू कश्मीर के कद्दावर नेता हैं और राजनीतिक पंडित अटकलें लगा रहे हैं कि वह नेशनल कान्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट और भाजपा को बहुकोणीय चुनावी मुकाबले में कड़ी टक्कर दे सकते हैं.
इतना तो तय माना जा रहा है कि आजाद जम्मू कश्मीर के बदले हुये नये राजनीतिक समीकरण में अपनी उपस्थिति का एहसास कराने में पीछे नही रहेंगे.
(लेखक अशोक उपाध्याय वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @aupadhyay24 पर ट्वीट करते हैं . व्यक्त विचार निजी हैं)
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