हाल में एक मीडिया इंटरव्यू में भारतीय सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत स्त्री-पुरुष समानता पर बहस के गलत पक्ष में खड़े नज़र आए. उन्होंने न्यूज़18 को बताया कि भारतीय सेना अभी लड़ाकू भूमिकाओं में महिलाओं के लिए तैयार नहीं है.
सेना प्रमुख गत जून महीने में दिए अपने ही बयान से पलट गए हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि लड़ाकू भूमिकाओं के लिए महिलाओं की भर्ती की प्रक्रिया जोर-शोर से चल रही है और शुरुआत सेना पुलिस के जवानों के रूप में महिलाओं की तैनाती से होगी. सेना प्रमुख का अपनी बात से पलटना और इसके लिए दिए गए तर्क अधिकतर प्रशासनिक प्रकृति के हैं, और इस प्रक्रिया में बड़ी तस्वीर को नहीं देखा जा रहा है.
अदालत दखल दे सकती है
सेना के लिए विचारणीय मुद्दा ये नहीं है कि महिलाओं को लड़ाकू भूमिकाओं में रखा जाए या नहीं, बल्कि इसे कार्यरूप देने का है. वरना, सिर्फ समय की बात है जब देश की कानून प्रणाली इसके लिए सेना को बाध्य करेगी. महिलाओं को सेना में स्थाई कमीशन दिए जाने के मामले में ऐसा हो भी चुका है. साथ ही, भारतीय वायु सेना पहले ही तीन महिलाओं को फाइटर पायलट बना चुकी है, जबकि नौसेना ने हाल ही में पुष्टि की है कि महिलाओं को नौसैनिकों के रूप में भर्ती किए जाने पर विचार चल रहा है.
नि:संदेह, सेना के मोर्चे पर परिस्थितियां बहुत कठोर होती हैं तथा सहकर्मियों और दुश्मनों से निकटता के कारण सामने बहुत चुनौतियां होती हैं. पर मुद्दे की बात यह है कि यदि इन चुनौतियों के बाद भी महिलाएं भर्ती के लिए आगे आती हैं तो सेना को विरोध नहीं करना चाहिए. सेनाध्यक्ष का यह सांस्कृतिक तर्क कि चूंकि सेना के अधिकांश आम जवान मुख्यत: ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं और वे शायद एक महिला को अपने अधिकारी के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हों, हो सकता है सही हो, पर निश्चय ही यह कोई अपरिवर्तनीय स्थिति नहीं है.
यह भी पढ़ें: दुश्मन नए हथियार के साथ सामने खड़ा है, भारतीय सेना को जागने की ज़रूरत है
जिन देशों ने महिलाओं को लड़ाकू भूमिकाओं में तैनात किया, उनके लिए भी इस बदलाव को सहज बनाना आसान नहीं था, और सांस्कृतिक परिवेश अलग होने के बावजूद उनके अनुभवों से सीखा जा सकता है. जो भी हो, यह मानसिकता की बात है और इसमें बदलाव के लिए भारतयी सेना से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है.
जब तक सेना का नेतृत्व महिलाओं की लड़ाकू भूमिकाओं में तैनाती को लेकर अपना दृष्टिकोण नहीं बदल लेता, न्यायिक हस्तक्षेप की आशंका बनी रहेगी. सिर्फ इंटरव्यू में सेना प्रमुख की कही बातों को लेकर भी मामला अदालत के सम्मुख जा सकता है.
योजनाबद्ध तैनाती
हकीकत में, चुनौतियां बहुत सारी हैं जिनसे एक-एक कर व्यावहारिक तौर पर निबटते हुए भर्ती की एक योजनाबद्ध प्रक्रिया विकसित करनी होगी. सिद्धांतत:, लड़ाकू भूमिका में कोई महिला लैंगिक आधार पर कोई विशेष सुविधा नहीं मांग सकती. महिलाओं के लिए भी शारीरिक मानक वही होंगे जो लड़ाकू भूमिकाओं के लिए किसी आम सैनिक से अपेक्षित होते हैं. परंतु, प्रशासनिक/संस्थागत नीतियों के ज़रिए मातृत्व अवकाश के उनके अधिकार की रक्षा सुनिश्चित करनी होगी.
कोई ठीक से नहीं कह सकता कि लड़ाकू भूमिकाओं में भर्ती के लिए अनिवार्य कठोर शर्तों को लेकर महिलाओं की प्रतिक्रिया क्या होगी. यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जवान के स्तर पर महिलाओं की नियुक्ति को लेकर मां-बाप सहज नहीं महसूस करेंगे, पर इसका मतलब ये नहीं कि इसके लिए अपनी मर्ज़ी से आगे आने वालों की कमी होगी. कम संख्या में भी भर्ती के लिए महिलाएं सामने आती हैं तो वो भी एक बड़ी उपलब्धि होगी.
क्या शुरुआती प्रयोग सिर्फ अधिकारी के स्तर पर हो या फिर इसमें ऑफिसर और जवान दोनों को शामिल किया जाए? आदर्श स्थिति दोनों ही स्तर पर भर्ती की होनी चाहिए, क्योंकि तब तमाम संबद्ध मुद्दों की समझ विकसित हो पाएगी. वर्तमान में, सेना में महिलाओं की सिर्फ ऑफिसर के स्तर पर गैर-लड़ाकू भूमिकाओं के लिए भर्ती होती है. समय आ गया है कि लड़ाकू भूमिकाओं के लिए अधिकारी स्तर के साथ-साथ जवान स्तर पर भी महिलाओं की भर्ती हो, और सशस्त्र सेनाओं की अन्य सेवाओं में भी ऐसा हो.
राजनीतिक स्वीकार्यता
लड़ाकू भूमिका में महिलाओं की भर्ती से सशस्त्र सेनाओं की कर्मचारी नीति में एक बड़ा बदलाव आएगा, ख़ास कर थलसेना में, जहां वायुसेना और नौसेना के विपरीत आमने-सामने की लड़ाई के लिए तैयार रहना होता है. यह एक बड़ा अंतर है जिसे लैंगिक समानता के नाम पर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
यह मुद्दा राजनीतिक और सामरिक महत्व का भी है. इस बात की राजनीतिक स्वीकार्यता होनी चाहिए कि महिला सैनिकों को युद्धबंदी बनाए जाने या आंतरिक संघर्ष की किसी स्थिति में उनके उग्रवादियों के हाथों में पड़ने की भी आशंका रहेगी. यह स्वीकार्यता ज़रूरी है क्योंकि लोकप्रिय राजनीति के संदर्भ में इसके सामरिक और राजनीतिक प्रभाव गहरे और प्रतिकूल होने तय हैं. इस बात के मद्देनज़र कि सेना की आंतरिक सुरक्षा तैनाती लंबे समय के लिए हुआ करती है, महिला सैनिक विशेष तौर पर उग्रवादी गुटों के निशाने पर रहेंगी. लड़ाकू भूमिका में इस तरह के खतरे सन्निहित होते हैं, और राजनीतिक एवं सैन्य स्तर पर इसकी पूर्वस्वीकार्यता आवश्यक होगी.
आमतौर पर, किसी भी बदलाव का संस्था के स्तर पर प्रतिरोध अवश्यंभावी होता है. भारतीय सेना इसका अपवाद नहीं, बल्कि शायद वहां अधिक प्रभावी प्रतिरोध होता है. पर दूसरे स्तर पर देखें तो भारत के एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में भारी बदलाव आवश्यक है. कई मायनों में, सशस्त्र सेनाओं के लिए यह उस बदलाव में भागीदार होने का अवसर है, दुनिया में अपनी सही जगह पाने के लिए जिससे गुज़रना भारत के लिए ज़रूरी है.
(ले. जन. (डॉ.) प्रकाश मेनन, पीवीएसएम, एवीएसएम, वीएसएम बेंगलुरू स्थित तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं, और पूर्व में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में सैन्य सलाहकार रहे हैं.)
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.