ब्रांड गुरु अलिक पदमसी हमेशा दावा किया करते थे कि ‘क्लाएंट मुझसे कहते हैं कि मैं उनके ब्रांड को नई पहचान दे दूं. मैं उनसे कहता हूं कि मैं अपने ब्रांड को नई पहचान नहीं देता बल्कि प्रतिद्वंद्वी के ब्रांड को अलग पहचान दे देता हूं’.
दुर्भाग्य से अलीक का पिछले दिनों निधन हो गया. वे जीवित होते तो उनसे यह बात करने में खूब मज़ा आता कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने किस तरह उनके इस दावे के ठीक उलट काम किया है. इन दोनों ने 2014 में वोट बाज़ार को फतह करने वाली अपनी ब्रांड छवि को किस तरह उलट दिया है.
2014 की गर्मियों में चुनाव से पहले मोदी के मुंह से नकारात्मकता या निराशा का शायद ही कोई शब्द सुना गया. उनका संदेश बिलकुल पक्का,अटूट और विश्वसनीय था— विकास, ग्रोथ, रोज़गार, कर्मठ सत्ता, सभी क्षेत्रों के लिए अच्छे दिन. उन्होंने साफ़सुथरी, अधिकतम शासन वाली न्यूनतम सरकार का वादा किया. वे भविष्य की बातें कर रहे थे कि वे उसमें किस तरह क्रांतिकारी परिवर्तन ला देंगे, खासकर देश के युवाओं के लिए. अगर वे बीते दिनों की बातें करते भी थे तो वे बातें यूपीए-2 की नाकामियों, उसकी नीतिगत पंगुता, शासनहीनता, उसके प्रधानमंत्री के अपमान, पर्यावरण संबंधी मंजूरियों में घपलों और दूसरे तमाम घोटालों की होती थीं. वे कोई ध्रुवीकरण या विभाजन नहीं कर रहे थे. उनके अभियान का नारा था—‘सबका साथ, सबका विकास’. संकेत यह था कि मुझे समस्याओं की समझ है, मैं समाधान लेकर आया हूं. मुझे जनादेश दो, समय दो और मेरे ऊपर भरोसा करो. दावा ज़ोरदार था, उसने प्रतिद्वंद्वियों का सफाया कर दिया.
अब अगले चुनाव के छह महीने रह गए हैं. और उनका संदेश कुल मिलाकर इसका उलटा है. वे इंदिरा गांधी के बाद सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में उभरे थे, लेकिन अब वे शिकायत कर रहे हैं कि कांग्रेस उन्हें काम नहीं करने दे रही. एक चुनावी सभा में उन्होंने कहा कि वह उन्हें ‘भारत माता की जय’ तक नहीं बोलने देती. यानी 10 जनपथ की जिस मंडली ने मनमोहन सिंह को दबाए रखा वह अब केवल 47 सांसदों के बूते उन्हें भी दबा रही है. मोदी ने न्यूनतम सरकार देने का वादा किया था मगर अब वे अपनी ज़्यादा से ज़्यादा सरकारी स्कीमों को गिना रहे हैं. उन्होंने भ्रष्टाचार पर कितनी रोक लगाई, कितने घोटाले पकड़े, कितने भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलवाई, यह सब बताने की जगह वे गांधी तथा चिदम्बरम परिवारों के कथित नए-पुराने पापों की लीपापोती में लगे हैं. और यह सब 54 महीने राज करने और ‘एजेंसियों’ का भरपूर दुरुपयोग करने के बाद हो रहा है.
न्यूनतम सरकार, और गुजरात की तरह उद्यमियों के बूते ग्रोथ आर्थिक वृद्धि लाने की जगह वे पर्चे थमाने में लगे हैं. अब वे भविष्य की बात शायद ही करते हैं. उनके ऊपर अतीत, वह भी दूर के अतीत का भूत समाया है— जवाहरलाल नेहरू, उनके पिता और उनकी बेटी, पटेल और शास्त्री का. रोज़गार, विकास, समृद्धि के वादे दरकिनार कर दिए गए हैं. एकता, सबका साथ वगैरह के बदले अब धार्मिक ध्रुवीकरण ही इस सीज़न का मिशन है. योगी आदित्यनाथ और शाह इसके तीर-कमान हैं.
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तो, ज़रा देखिए कि उन्होंने अपने ब्रांड या माल का रूप किस नाटकीय ढंग से बदल डाला है; वे अपने कामकाज या भविष्य के वायदों की जगह अपने विरोधियों के अतीत के लिए वोट मांग रहे हैं. यह तो लगभग यह कहने जैसा है कि ‘अरे, वे रोज़गार मांग रहे हैं? उन्हें गाय दे दो!’
भारत की बेरोज़गार सेना गांवों में चौराहों पर कैरम या ताश खेलते या सिगरेट-बीड़ी पीते, गप्प लड़ाते या फिर चीनी स्मार्टफोन पर लगभग मुफ्त में उपलब्ध डाटा के साथ बकवास चीज़ें देखते समय काट रही है. उसके अंदर गुस्सा और हताशा बढ़ती जा रही है. क्या वह अपनी उन आकांक्षाओं और आत्मसम्मान को, जिसने मोदी को गद्दी पर बिठाया, त्याग कर अपना सब कुछ गाय की रक्षा पर कुरबान करने को तैयार है? ताज़ा चुनावों के नतीजे ऐसा कोई संकेत तो नहीं देते.
मोदी के उल्लसित आलोचक और एक्टिविस्ट अगर इन नतीजों के लिए केवल गांवों और किसानों के असंतोष को ज़िम्मेवार बता रहे हैं तो वे गलत सोच रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि भाजपा इन राज्यों में अधिकतर शहरों में हारी है. मोदी के सबसे बड़े, मुखर और आशावादी समर्थक अर्ध-शहरी मध्यवर्ग और बेरोज़गार युवा थे. 2018 में नेहरू को फिर से जिंदा करने और फिर से दफन करने की कोशिशों ने उनमें कोई उत्साह नहीं पैदा किया.
2014 के चुनाव परिणामों के बाद मैंने लिखा था कि यह नई सदी के उस भारत का जागरण है, जो विचारधाराओं से मुक्त है, उस हाथ दे और इस हाथ ले वाली तथा ‘हमने तुम्हारा कोई उधर नहीं खाया है’ वाली पीढ़ी का भारत है. उसे तमाम तरह के, खासकर वंशानुगत विशेषाधिकारों से नफरत है. इसलिए उसने कांग्रेस का लगभग सफाया कर दिया. मोदी और शाह उससे फिर उसी परिवार से लड़ने का आह्वान कर रहे हैं. यह कारगर नहीं हो रहा है. मतदाता हैरान है, वह कह रहा है- ‘लेकिन आप तो ऐसे न थे’.
2014 के अभूतपूर्व अभियान में मोदी सोनिया गांधी और उनकी एनएसी के जनकल्याणवाद पर हमला करने के लिए एक दिलचस्प कथा सुनाया करते थे. एक किसान जंगल से गुज़र रहा था कि उसके सामने एक भूखा शेर आ गया. शेर उसे खाने के लिए आगे बढ़ा मगर किसान शांत रहा. उसने शेर से कहा, ‘अपनी जान को जोखिम में मत दाल. मैं तुम्हें अपनी बंदूक से मार दूंगा.’
शेर ठहर गया और गुर्राने लगा, उसने किसान को गौर से देखा और पूछा, ‘लेकिन तुम्हारी बंदूक कहां है?’
किसान अपने कुर्ते की जेब से कागज़ का एक पन्ना निकालकर बोला, ‘ये रहा शेर भाई, सोनिया जी ने अभी बंदूक तो नहीं, उसका लाइसेंस दिया है.’
हज़ारों की भीड़ इस कथा पर हंसती थी और इसके संदेश को समझ जाती थी. संदेश यह था कि जनकल्याण की बेमानी योजनाओं के बूते न तो गरीबी–बेरोज़गारी दूर की जा सकती है और न जनाकांक्षाओं को पूरा किया जा सकता है, भले ही उन योजनाओं को जनाधिकार के क़ानूनों का सहारा क्यों न दिया जाए. मोदी ने दशकों तक कांग्रेस सरकार की विफलता के सबसे बड़े प्रमाण के तौर पर ‘मनरेगा’ का ज़िक्र किया. अब वे खुद ही उसमें ज़्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं, वैसी ही कई योजनाएं ला रहे हैं. गरीबों को स्वास्थ्य सेवा देने के नाम पर लाई गई ‘आयुष्मान भारत’ योजना मोदी का‘बंदूक लाइसेन्स’ ही है. 2014 और पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश तक जिन विचारधारा मुक्त वोटरों ने उनका साथ दिया, वे आज उलझन में हैं और यह ज़ाहिर हो रही है.
भाजपा सरकार के शुरू के दिनों में ही अरुण शौरी ने भविष्यदर्शी की तरह उसके लिए कहा था कि यह तो ‘गाय के साथ कांग्रेस सरकार’ है. शौरी ने आलोचना में थोड़ी राहत ही दी थी. यह गाय के साथ कांग्रेस तो है ही, मगर कांग्रेस भी इंदिरा युग वाली. यह सार्वजनिक क्षेत्र की वकालत करती है और करदाताओं के पैसे उन बैंकों में डलवाती है जिनका इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण किया था. एक पीएसयू को दूसरा पीएसयू खरीदने के लिए कहती है, और विरोधियों को देशद्रोही कहकर उन्हें बदनाम करती है. अगर मोदी की भाजपा गाय के साथ पुरानी कांग्रेस है, तो वह सबसे अलग किस मायने में है? माना कि मोदी, शाह, या मोहन भगवत भी किसी वंश के उत्तराधिकारी नहीं हैं, लेकिन वे जो कुछ सामने ला रहे हैं उसे इतना अलग या आकर्षक कैसे माना जाए? क्या यह विशिष्टता अल्पसंख्यकों के डर के कारण है? मगर इसमें तो कुछ दम नहीं है.
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भाजपा का एक प्रमुख वादा भ्रष्टाचार मिटाने का था. इसके राज में बेशक कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आया है और मोदी की अपनी बेदाग छवि में चमक बरकरार है, लेकिन जहां नागरिकों का सामना राज्यतंत्र से होता है उस निचले स्तर पर तो हालात पहले से भी बुरे हो गए हैं. कठोर नियमों से लैस होकर तमाम तरह के टैक्स वाले अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उपद्रव मचाए हुए हैं. उदाहरण के लिए, मुंबई में लगता है कि बिल्डिंग परमिट और प्रोपर्टी ट्रांसफर की पुरानी, कांग्रेसी दौर वाली रेंट वसूली फिर शुरू हो गई है और हर कोई परेशान है. बेशक लोग अपनी परेशानी कानाफूसियों में ही ज़ाहिर कर रहे हैं. कौन चाहेगा कि कोई टैक्स वाला या ईडी अथवा सीबीआई का कोई आदमी उसके घर आए.
इस बीच, ज़रा देखें कि घोटाले की जांच में इस सरकार का रेकर्ड कैसा रहा है? टूजी घोटाले के सभी संदिग्ध बरी हो चुके हैं. कोयला घोटाले में कांग्रेस/यूपीए के सभी नेता, और कोर्पोरेट बेदाग बच निकले हैं. बेकसूर आइएएस अफसर जेल भेज दिए गए हैं जबकि उन्होंने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया, वह भी उस कानून के तहत जिसे इस सरकार ने रद्द कर दिया है. कॉमनवेल्थ खेल, आदर्श, एअर इंडिया खरीद, जैसे वे तमाम घोटाले भुला दिए गए हैं जिन्होंने देश की राजनीति में उथलपुथल मचा दिया था. उनके लिए किसी को सज़ा नहीं मिली, चंद लोगों पर ही मामले चल रहे हैं. सरकार और उसकी एजेंसियां नए मामलों में विरोधियों को फंसाने में जुटी रही हैं मगर उनमें भी नाकाम रही हैं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी इस छवि के साथ अवतरित हुए थे कि ऐसी कोई गड़बड़ी नहीं है जिसे वे दुरुस्त नहीं कर सकते. अब उनकी बातों से लगता है कि उनमें द्वेष, गुस्सा, नकारात्मकता, प्रतिशोध भर गया है, और अपने लिए नहीं बल्कि बुरी तरह पराजित अपने विरोधियों के खिलाफ वोट मांग रहे हैं. अगर आपका पलड़ा भारी है तब भला आप अपनी छवि में इस तरह का भारी बदलाव क्यों कर रहे हैं? अलीक पदमसी आज होते तो इस पर ठहाके लगाते.
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