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Monday, 25 November, 2024
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भारत के शैव संन्यासियों ने किस तरह कंबोडिया का धर्म परिवर्तन किया था

हमारी धारणाओं के विपरीत, कंबोडिया को शैव बनाया हिंदू संतों द्वारा करवाए गए धर्मांतरण, बाजार की ताक़तों के उभार, और ‘भारतीय’ विचारों के साथ कंबोडियाइयों के संवाद में विवेक के प्रयोग ने.

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करीब 1000 साल से लगभग पूरा दक्षिण एशिया उन धर्मों का पालन करता रहा है जिन्हें हम लोग विशिष्ट रूप से मूलतः ‘भारतीय’ मानते रहे हैं. कंबोडिया के क्रोंग सिएम रीप में विशाल अंकोरवाट मंदिर, जिसका बहुत सुंदर विवरण विलियम डैलरिंपल ने हाल में ‘फाइनांशियल टाइम्स’ में छपे अपने लेख में किया है, के अलावा अंकोर के भग्नावशेष (जिनमें हिंदू देवी-देवताओं की शांतचित्त आकृतियां खुदी हुई हैं) अक्सर हमें यह प्रमाण देने में मदद करते हैं कि भारत ने कभी दक्षिण-पूर्व एशिया को किस तरह प्रेरित और प्रभावित करके एक तरह से अपना उपनिवेश बनाया था.

मध्ययुग की तमाम चीजों के मामले में प्रायः जैसा होता है, अक्सर यही सामने आता है कि आज जो धारणाएं हावी हैं वे सत्य से कितनी दूर हैं. यह तो निर्विवाद है ही कि कई सदियों— करीब 8वीं सदी सीई से लेकर 15वीं सदी तक—कंबोडिया की धार्मिक संस्कृति शैव प्रधान थी. लेकिन वह जिस प्रक्रिया से शैव मत वाली बनी वह चकित कर देने वाली है. हमारी धारणाओं के विपरीत, इस प्रक्रिया में ये चीजें भी शामिल थीं— हिंदू गुरुओं-उपदेशकों द्वारा करवाए गए धर्मांतरण, कंबोडियाई दरबारों से बाजारू ताक़तों का उभार, बेहतर संभावनाओं की खोज में भारतीयों का प्रवास, और ‘भारतीय’ विचारों के साथ कंबोडियाइयों के संवाद में काफी हद तक विवेक बुद्धि का प्रयोग.

भारत और विदेश में पाशुपत संप्रदाय के मठ

किंवदंतिया बताती हैं कि करीब दूसरी सदी ईसापूर्व में गुजरात के कारोहना (आज के कारवान) में एक युवक के शव को जीवित किया गया था. लकुलीश नाम के इस युवक ने शैव मत का प्रचार शुरू कर दिया. इस मत के अनुसार, वैराग्य और ध्यान के माध्यम से जादुई शक्तियां हासिल की जा सकती हैं. इस तरह पाशुपत नाम के संप्रदाय की उत्पत्ति हुई. यह मध्ययुग के प्रारंभिक काल में शैव मत के संप्रदायों में सबसे प्रभावशाली और व्यापक संप्रदाय बन गया.

पाशुपत संप्रदाय ने अपने मिशनरी उत्साह के कारण खुद को शुरू से ही दूसरे शैव संप्रदायों से अलग और विशिष्ट संप्रदाय के रूप में स्थापित किया. लकुलीश ने दूर बसे मथुरा की यात्रा की और वहां अपने चार ब्राह्मण शिष्यों को अपनी गूढ़ परंपरा में शामिल किया और हर एक को अलग-अलग शहरों में लोगों का धर्मांतरण करवाने के लिए भेज दिया. या पाशुपत उपदेशक गंगा के अपेक्षाकृत शहरी मैदानी इलाकों में तेजी से फैल गए और कुछ पीढ़ियों के बाद ही (चौथी सदी ईसापूर्व) उनका उल्लेख गुप्त साम्राज्य के शिलालेखों में किया जाने लगा. वे नीचे दक्षिण में कृष्णा-गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्र में भी पहुंच गए. 7वीं सदी तक वे नेपाल के काठमांडू में आज के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर के पास भी स्थापित हो गए.

चीनी यात्रियों का दावा है कि उस समय अकेले वाराणसी में ही, पूरे शरीर पर राख़ लगाए रखने वाले इन संन्यासियों की संख्या करीब 10 हजार हो गई थी. यहीं उन्होंने महान ‘स्कंदपुराण’ की लगभग पूरी रचना की थी. लगभग इसी समय, वे उन नये, तेजी से शहरीकरण करते उन क्षेत्रों में कदम रखने की कोशिश कर रहे थे जहां शासन का जटिल ढांचा आकार ले रहा था और जिनके कुलीन वर्ग को अनुष्ठान आदि करवाने वालों की जरूरत थी और इसके लिए वे काफी खर्च करने को तैयार थे. इस तरह, हम उन्हें दक्कन और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी देखने लगते हैं.

660 ईसापूर्व का दक्कन का एक शिलालेख इस प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालता है. चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य-1 को शैव बनाने के अनुष्ठान के लिए पाशुपत गुरु सुदर्शन को ईपरुमकल गांव दान में दिया गया. सुदर्शन ने इस गांव में 27 शैव ब्राह्मणों को जमीन दी; चालुक्यों के साथ करीबी संबंध रखने वाला यह क्षेत्र, आज के तेलंगाना का आलमपुर, शैव मतावलंबियों का बड़ा गढ़ बन गया.


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इस संदर्भ के साथ हम आज के कंबोडिया की तरफ मुड़ते हैं. उस समय, दक्कन की तरह कंबोडिया में भी आपस में लड़-भिड़ रहे कई रियासतों का जमावड़ा था. लाओस समेत आम क्षेत्र में शिव उपासना के कई केंद्र थे, जो आमतौर पर पहाड़ों और चट्टानी खंभों (जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग माना जाता था) के इर्द-गिर्द केंद्रित थे. कंबोडिया में चट्टानों को उस भूमि से जुड़े पूर्वजों की आत्माओं का निवास स्थल माना जाता था; चट्टानी शिवलिंगों को स्वाभाविक रूप से इस भूमि का भी आदि देवता माना जाने लगा. पाशुपतों ने इस भूमि पर 5वीं सदी में ही कदम रखा होगा, उनके प्राचीनतम पुरालेखीय प्रमाण 7वीं सदी के मिलते हैं.

कंबोडिया ने पाशुपत संन्यासियों को अपनाया तो इसके पीछे शासन व्यवस्था के बारे में उनकी मान्यता का भी हाथ था. अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ कंबोडिया’ में डेविड शेंडलर ने लिखा है कि लोगों का नेतृत्व करने और लड़ाइयां जीतने वालों को आध्यात्मिक शक्तियों से लैस भी माना जाता था, या इसका उलटा भी माना जाता था. यह धारणा पाशुपतों की इस अवधारणा से मेल खाता था कि शैव अनुष्ठानों से जादुई शक्तियां हासिल की जा सकती हैं. शैव मतवाद के विद्वान एलेक्सिस सैंडरसन ने ‘द शैव रेलीजन एमंग द खमेर्स’ किताब में लिखा है कि पाशुपत अनुष्ठानों का ज्ञान हासिल करने और उसका प्रयोग करने को इच्छुक कंबोडियाई शासकों ने मेकोंग नदी के किनारे और कई शहरों, राजनीतिक तथा धार्मिक स्थानों पर कई शैव मंदिर बनवा दिए.

उनमें से कई के नाम भारत के पाशुपत शैव केन्द्रों (सिद्धेश्वर, अमृत्केश्वर, अमरेश्वर) के नाम पर रख दिए. इन मंदिरों के निर्माण के पीछे मकसद भारत की ‘नकल’ बनना नहीं बल्कि शिव को कंबोडियाई भगवान, और कंबोडिया को शैव भूमि बनाना नहीं था, जैसा कि उस समय दक्षिण भारत में शाही परिवार मंदिरों का निर्माण करवा रहे थे.

बाजार की ताकत और शैव अनुष्ठान

6ठीं से लेकर 9वीं सदी ईसापूर्व तक कंबोडिया के शासक और नव शैवों ने देश को शैव बनाना जारी रखा. मंत्रमार्ग, शैव सिद्धान्त, तांत्रिक शैववाद के विकास के कारण भारतीय शैववाद में भी बड़ा परिवर्तन आया. मंत्रमार्गी पाठ पाशुपतों के गूढ़ मतों के मुक़ाबले कुछ सरल थे और वे आगम— ग्रंथ और व्यवहार के स्वरूप— उपलब्ध कराते थे जिन्हें मंदिरों, निजी उपासना और सार्वजनिक अनुष्ठानों में प्रयोग के लिए तैयार किया जा सकता था.

मंत्रमार्गी पाठ ने कंबोडिया में क्रांति ला दिया. 802 ईसापूर्व में, जब युवा सम्राट जयवर्मन अंकोर का साम्राज्य स्थापित करने के लिए आगे बढ़े तो उन्होंने ब्राह्मण पुरोहित हिरण्यदम के साथ एक अनुष्ठान किया. पुरोहित ने देवराज संप्रदाय का आधार तैयार करने वाली ‘पद्धति’ नामक विस्तृत निर्देशिका तैयार की. इसने इसके बाद कई सदियों के लिए अंकोर साम्राज्य का राजधर्म तय कर दिया. देवराज संप्रदाय राजा को शिव से जोड़कर देखता था और उसे देवों के राजा के रूप में पूजता था. इसके बाद दर्जनों मंदिर और मठ स्थापित किए गए, जो मंत्रमार्गी विद्वानों द्वारा रचित ‘पद्धति’ के अनुसार काम करते थे.

ये पाठ मध्ययुगीन शैववाद के बारे में दिलचस्प बातें उद्घाटित करते हैं. मंत्रमार्गियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी ‘पद्धति’ की रचना अपने संप्रदाय और अपनी परंपरा की आगमों के आधार पर करेंगे. व्यवहार में यह होता था कि शाही यजमान जिन अनुष्ठानों की मांग करते थे उसे पूरी करने के लिए अक्सर उनकी ‘पद्धतियों’ की कई परंपराओं का मिश्रण कर दिया जाता था. शैव विशेषज्ञों का कंबोडियाई बाज़ार ऐसा था कि मई भारतीय, खासकर ब्राह्मण रोजगार के लिए वहां पहुंच जाते थे. उनमें से कुछ का दावा यह था कि वे राष्ट्रीय देवता शिव भद्रेश्वर की पूजा करने के लिए वहां आए थे. (लेकिन इस बात के कम ही प्रमाण मिलते हैं कि दक्षिण एशिया के लोग भारत में पवित्र स्थलों की यात्रा करने आए, जबकि इसके विपरीत के कई प्रमाण उपलब्ध हैं).

तो, मध्ययुग के कंबोडिया के साथ भारत के रिश्ते के बारे हम वास्तव में क्या कह सकते हैं? जब हम भारत के आधुनिक दौर के शुरू में यूरोपीय सैन्य सलाहकारों पर नज़र डालते हैं तब हमें पता लगता है कि भारत उनसे कहीं ज्यादा समृद्ध था और उनके हुनर के वश में आने को तैयार था, हम देखते हैं कि वे अपने मेहमानों की संस्कृति और जरूरतों के मुताबिक ढलने को राजी थे और भारतीय गुमाश्तागीरी को पहचानकर उन्हें अपना मातहत बनाते थे.

अगर हम अपने राष्ट्रीय गौरव से आगे बढ़कर देखें, जो मध्ययुगीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक विनिमयों के साथ गलत रूप से नत्थी हो हो गया है तो हमें मध्ययुगीन दौर में भी ऐसा ही कुछ नज़र आएगा. वह ऐसा दौर था जब बाजार की ताक़तें और मेहमानों का उद्यम उतना ही जीवंत था जितना आज है. जब भारत के धर्म कट्टरता के आवेशों के मामले में दूसरे धर्मों से भिन्न नहीं थे; जब राजनीतिक अर्थव्यवस्था उतनी ही समृद्ध और नैतिकता के लिहाज से उतनी ही जटिल थी जितनी आज है.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टी एक लेखक और डिजिटल पब्लिक ह्यूमैनिटीज स्कॉलर हैं. वह लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, जो मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक नया इतिहास है और इकोज़ ऑफ इंडिया और युद्धा पॉडकास्ट को होस्ट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)

(यह लेख ‘थिंकिंग मिडीवल’ श्रृंखला का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर नज़र रखती है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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