तेलंगाना और इसकी राजधानी हैदराबाद, जो भारत में सबसे तेज़ी से विकास कर रहा मेट्रो है. ‘दीवारों पर लिखी इबारत’ पढ़ने से पहले ज़रा उनके रंग पर गौर कीजिए. के. चन्द्रशेखर राव ने और उनकी पार्टी टीआरएस ने पूरे राज्य को गुलाबी रंग में रंग दिया है. ऐसा लगता है कि यहां केवल एक ही पार्टी चुनाव में खड़ी हो.
मैं इतने वर्षों से चुनावों पर नज़र रखता आ रहा हूं, मगर मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा कि किसी एक राजनीतिक दल ने पूरे चुनावी परिदृश्य को इस तरह अपने रंग में रंग दिया हो. गुजरात में चुनावी परिदृश्य पर कब्ज़े का अनुपात भाजपा और कांग्रेस के बीच 20:1 का था. तेलंगाना में केसीआर के पक्ष में यह अनुपात 90:1 का दिखा और हम अभी भी कयास ही लगा रहे हैं. बीच शहर में अपनी खिड़की से मैं जिस चौराहे को देख पा रहा था उसे सात विशाल होर्डिंग्स ने जैसे अपनी आगोश में ले लिया हो. सातों होर्डिंग पर केसीआर और टीआरएस छाये हुए थे और सातों उनकी पार्टी के गुलाबी रंग में थे. मेरा अनुमान है कि राजधानी में उनकी ऐसी 698 होर्डिंग लगे होंगे. उनके विरोधियों के दो भी होर्डिंग लगे हों तो वे मुझे दिखे नहीं.
शासक दल को अपने विरोधियों- कांग्रेस के नेतृत्व वाला प्रजाकुटमी हो या भाजपा-पर हमला करने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई. यह एक दुर्लभ चुनाव अभियान था, जहां सत्ताधारी नेता केवल सिर्फ अपने कामकाज को चुनावी मुद्दा बना रहा था.
वे कोई नया वादा भी नहीं कर रहे थे. वे केवल दीवारों को रंग रहे थे- गुलाबी पेंट के ऊपर काले अक्षरों से, जिन पर रातों में अच्छी तरह रोशनी लगाई गई थी. काले अक्षरों में लिखा गया है कि वे अब तक लोगों को क्या-क्या सुविधाएं दे चुके हैं, उनके कल्याण के लिए क्या-क्या कर चुके हैं. विरोधियों को संदेश दिया जा रहा था- लो कर लो मेरा मुक़ाबला!
केसीआर के आत्मविश्वास के आगे तो आक्रामक बल्लेबाज़ विवियन रिचर्ड्स का पिच पर उतरने का शाहाना अंदाज़ भी फीका पड़ जाए. लेकिन क्या केसीआर की योजनाएं लागू की जा सकती हैं? क्या उनके राज्य का वित्तीय घाटा बेकाबू नहीं हो रहा है?
इस सवाल पर उनका जवाब था, ‘बकवास…. सब बकवास. ये घाटा क्या है? दुनिया मेँ किस देश का घाटा सबसे ज़्यादा है? अमेरिका का. उसके बाद जापान है. और चीन का क्या हाल है? लोगों को कुछ पता तो होता नहीं और बस बातें करते रहते हैं…’ इसके बाद प्रोफेसर केसीआर अपने अर्थशास्त्र पर एक छोटा सा टूटोरियल ले लेते हैं. मुफ्त उपहार बांटने की राजनीति तमिलनाडु, खासकर जयललिता के तमिलनाडु की देन है. और केसीआर ने इसे एक नया आयाम प्रदान किया है. यह चुनाव साबित कर देगा कि यह कारगर होता है या नहीं.
मेरे पाठकों को पता है कि उपहारों की राजनीति के प्रति मैं हमेशा शंकालु रहा हूं. अपने इस लेख में मैं पहले भी इस पर लिख चुका हूं और वोटरों ने जब-जब इसे खारिज किया, मैंने खुशी मनाई है. बाड़मेर में केर्न के तेल कुओं के रूप में मिली लौटरी के कारण राजस्थान 2008-13 में इस राजनीति की प्रयोगशाला बन गया था. उस चुनाव ने सोनिया गांधी और उनके एनएसी की कपोल कल्पनाओं का जवाब दे दिया था. अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार 200 विधायकों वाले सदन में मात्र 21 सीटों पर सिकुड़ गई थी.
‘गरीबवाद’ की कामयाबी का जश्न बाद में तब मनाया गया जब जयललिता दूसरी बार सत्ता में आ गईं. इसका श्रेय उनकी लोकोन्मुख अर्थनीति को दिया गया… मुफ्त में बांटे गए मिक्सरों-ग्राइन्डरों, मंगलसूत्रों, आदि को. लेकिन हकीकत यह है कि 13 प्रतिशत वोट उनकी झोली से खिसक गए थे, और विरोधियों के वोट बंटे न होते तो वे हार ही जातीं.
इसलिए, अभी यह साबित होना बाकी है कि उपहार वोट की पक्की गारंटी बन सकते हैं या नहीं. लेकिन यह सब आप केसीआर से मत कहिए, क्योंकि उन्हें दो चीज़ों पर बहुत गर्व है— योजनाएं लागू करवाने के अपने रिकॉर्ड पर और अपनी कल्पनाशीलता पर.
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उनके राज्य में आप घूम जाएं तो उनके दावे में आपको दम दिख सकता है. उन्होंने मुस्लिम लड़कियों की शादी पर 1 लाख रुपये का उपहार देने की ‘शादी मुबारक’ और बाकी समुदायों की लड़कियों के लिए ‘कल्याण लक्ष्मी’ योजना चला रखी है. इसके अतिरिक्त संपत्ति निर्माण के भी अभिनव तरीके उन्होंने ईज़ाद किए. मसलन, गरीबों के लिए दो बेडरूम फ्लैट बनाने की योजना जिसका सीधा-सा नाम दिया गया है– ‘टू बीएचके योजना’.
अपने पहले कार्यकाल में वे ऐसे पांच लाख फ्लैट बनवा रहे हैं. इसे आप तेलंगाना की दीवार पर सबसे नुमाया इबारत के रूप में हैदराबाद के पास कोल्लौर में 11 मंज़िली इमारतों, और खुद केसीआर के चुनाव क्षेत्र गजवेल से होकर गुज़रते हाइवे के किनारे उभर रहीं इमारतों के तौर पर देख सकते हैं. हम उनसे पूछते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ का वे क्या कर रहे हैं, तो उनका जवाब मिलता है, ‘यह बकवास योजना है. मोदी जो एक कमरे के मकान दे रहे हैं उनमें महिलाएं भला अपने कपड़े कहां बदलेंगी?’
लेकिन क्या वे साढ़े सात-सात लाख वाले टू बीएचके फ्लैट बनवाने का खर्च उठा सकते हैं? तो ज़रा उनके कुछ प्रयोगों पर गौर कीजिए. वे इनके लिए सरकारी ज़मीन उपलब्ध करा रहे हैं, सीमेंट पर टैक्स माफ कर रहे हैं, तापविद्युत संयंत्रों से उपलब्ध राख़ से बनने वाली ईंटों का उपयोग कर रहे हैं, और ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत हर मकान के लिए मिलने वाली 1.5 लाख रु. की मदद को 7.5 लाख की लागत में इस्तेमाल कर रहे हैं. आप इन टू बीएचके फ्लैटों पर नज़र डालिए, तो पाएंगे कि ये बुनियादी सुविधाओं के मामले में मुंबई की किसी भी स्लम पुनर्वास कॉलोनियों से कहीं बेहतर हैं. करदाता इनको लेकर शायद ही कोई शिकायत करेंगे.
यही नहीं, दूसरी भी अच्छी-खराब-दिलचस्प योजनाएं हैं. उन्होंने अच्छे, निःशुल्क सेवाएं देने वाले सरकारी अस्पताल बनवाए हैं. गर्भवती महिलाओं के लिए अस्पताल पहुंचाने तथा घर छोड़ने की मुफ्त एंबुलेंस सेवा भी उपलब्ध कारवाई है, जो कॉल सेंटर के जरिए बुलाए जा सकते हैं. अस्पताल से घर लौटने वाली हर प्रसूता और शिशु को तीन महीने तक काम आने वाले कपड़ों और सफाई के सामान के अलावा खिलौने से भरा एक मझोले आकार का बक्सा भेंट किया जाता है. बेशक इस बक्से को ‘केसीआर किट’ नाम दिया गया है और इसके ऊपर गुलाबी रंग के ऊपर उनका एक बड़ा चित्र बना होता है. करीमनगर के अस्पताल में हमने ये किट देखे और माताओं तथा उनके परिवार वालों से बात की, जो काफी कृतज्ञ थे.
लेकिन जिस योजना की सचमुच गहरी, खुले दिमाग से जांच करने की ज़रूरत है वह योजना है— ‘रैयतु बंधु योजना’. कृषि संकट एक राष्ट्रीय संकट है जिसे सुलझाने के लिए खेती के साधनों पर सब्सिडी देने के अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य तक तमाम उपाय किए गए हैं और वे विफल रहे हैं. तेलंगाना किसानों को हर साल प्रति एकड़ प्रति फसल सीधे 4000 रु. देता है, चाहे उनके पास कितनी भी ज़मीन हो. पिछले साल उसने इस योजना पर 12,000 करोड़ रु. खर्च किए. इसकी भारी समाजवादी आलोचना हुई है क्योंकि इससे अमीर तथा ‘100 एकड़ या उससे ज़्यादा’ ज़मीन वाले गैरहाज़िर ज़मींदारों ने भी लाभ उठाया.
लेकिन आंकड़े अलग ही कहानी कहते हैं. इससे लाभ उठाने वाले 58.3 लाख लोगों (3.5 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में ऐसे परिवारों की संख्या अच्छी-ख़ासी हो जाती है) में मात्र 14,900 ही ऐसे हैं जिनके पास 50 एकड़ या इससे ज़्यादा जमीन है. वास्तव में, 1.15 लाख (लाभ पाने वालों में से 2 फीसदी से भी कम) के पास ही 10 एकड़ या इससे ज़्यादा ज़मीन है. यानी, अगर आप चला सकें तो इस योजना में काफी रस है. क्या आप चला सकते हैं? केसीआर से अगर यह सवाल करेंगे तो उनका जवाब यही होगा कि बकवास मेरे लिए छोड़ दीजिए.
केसीआर की अर्थनीति में हर किसी के लिए कुछ-न-कुछ है. चरवाहों के लिए मुफ्त में 20 भेड़ें (और एक मेढ़ा भी). धोबियों के लिए बड़ी वॉशिंग मशीन, मछुआरों के लिए मछली के बीज, आदि-आदि. जाने-माने विद्वान कांचा इलैया शेफर्ड सवाल उठाते हैं कि क्या यह अगली पीढ़ियों को जाति आधारित पेशों की ओर नहीं धकेलेगा? उनका कहना है कि ये शुद्ध रूप से वोट खरीदने की योजनाएं हैं. मुफ्त उपहार तो हर किसी को अच्छा लगता है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वाकई इन चीज़ों के लिए वोट देते हैं? इसके प्रमाण अब तक तो मिले-जुले ही रहे हैं लेकिन मुख्यतः नकारात्मक ही हैं. हम पहले बता चुके हैं कि कांग्रेस 2013 में राजस्थान में अविश्वसनीय उपहार बांटने के बावजूद बुरी तरह हार गई थी.
उपहारों की राजनीति के सूत्रधार तमिलनाडु में सत्ता प्रायः हर चुनाव में दूसरी पार्टी को मिलती रही है. पंजाब में अकाली-भाजपा गठजोड़ मुफ्त बिजली के अलावा ‘आटा-दाल’ स्कीम (जिसने राज्य को दिवालिया बना दिया था) के बावजूद ध्वस्त हो गया था.
गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिक बंगाल जैसे कुछ राज्य अपने मुख्यमंत्रियों को बार-बार जिताते रहे हैं मगर ये ऐसे राज्य हैं जिन्हें ‘उपहारवीर’ नहीं कहा जा सकता. कर्नाटक में सिद्धरमैया की कांग्रेस ने जयललिता से भी बाजी मारते हुए हाथ खोल दिए थे. लेकिन भाजपा को मात नहीं दे पाई थी. आप कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में लगभग मुफ्त में चावल बांटकर ‘चावल वाले बाबा’ के रूप में मशहूर इसके सीधे-सादे मुख्यमंत्री वाले इसके बूते दो बार चुनाव जीत चुके हैं. लेकिन अब उनके प्रतिद्वंद्वी उनसे भी ज़्यादा उपहार की पेशकश कर रहे हैं.
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मतदाता चतुर हैं. उन्हें मालूम है कि जो उपहार एक बार पेश कर दिया गया उसे वापस नहीं लिया जा सकता. याद कीजिए कि नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव अभियान में मनरेगा को लेकर कितनी कठोर बातें कही थी. लेकिन इसके बाद वे इसके लिए पैसे खूब देते रहे हैं. मतदाता अपेक्षा रखते हैं कि विरोधी तो और बड़े उपहार लेकर आएगा. भाजपा वहां मुफ्त में गाय देने की पेशकश कर रही है. लेकिन अब आपको उपहारों से भी ज़्यादा कुछ देने पड़ेंगे- पहचान से लेकर राज्यों के बीच की होड़, धर्म, राष्ट्रवाद; और राज्यों के चुनाव में उपराष्ट्रीयता तक.
यह हमें फिर तेलंगाना की ओर लौटाता है. हम केसीआर के पुत्र को एक नुक्कड़ सभा को संबोधित करते देखते हैं, फिर उनके पिता को हैदराबाद के परेड ग्राउंड में बड़ी सभा करते देखते हैं. ‘वे जय…’ बोलते हैं और लोग जवाब में ‘तेलंगाना…’ का उदघोष करते हैं. लेकिन आप महाकुटमी के मंच से, जिस पर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु सहयोगी के रूप में मौजूद हों, ‘जय तेलंगाना’ का नारा ज़ोर से नहीं लगा सकते. केवल उपहार ही केसीआर को दूसरी बार सत्ता नहीं दिला सकते. तेलंगाना का गौरव इसमें जुड़ जाता है तो यह जीत एक ज़ोरदार मसाला बन सकता है.
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