महान उपन्यासकार चार्ल्स डिकेन्स अपने चर्चित उपन्यास ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज़’ की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं, ‘यह सर्वोत्तम समयों में से एक था, यह सबसे बुरे वक्तों में से एक था, यह प्रज्ञा का युग था, यह मूर्खता का युग था, यह विश्वास का काल था, यह अविश्वसनीयता का काल था, यह प्रकाश का मौसम था, यह अंधेरे का मौसम था, यह आशा का वसंत काल था, यह निराशा का शीतकाल था, हमारे पास सब कुछ था, हमारे पास कुछ भी नहीं था…’
एक ऐसे वक्त में जबकि भारत की राजनीति में विपक्ष की अपेक्षित व प्रभावी भूमिका को शिथिल करने के लिए सत्ता द्वारा देश की स्वायत्त संस्थाओं का दुरुपयोग करने की बातें जनमानस के बीच तेज़ी से प्रसारित हो रही हों, विपक्षी दलों, खासकर क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की कुत्सित कोशिशें हो रही हों, बिहार के हालिया सियासी प्रयोग ने देश के उदास लोगों को राहत की सांस दी है एवं विभिन्न प्रांतों के विपक्षी नेताओं के चेहरे पर पसरी निराशा की लकीरों को कुछ हद तक मिटाने का काम किया है.
बिहार में यह चौंकाने वाला, किंतु दुस्साधनों का प्रयोग किये बगैर स्वत:स्फूर्त सत्ता परिवर्तन अपने साथ बड़ी ऊर्जा व संदेश समेटे हुए है. 2024 के लोकसभा चुनाव में अभी 2 वर्ष हैं, पर अभी से अगर लोगों के ज़ेहन में गहरे तक यह बात घुसा देने में कॉरपोरेट-कम्युनल ताक़तों का गठजोड़ कामयाब होता दिख रहा था कि आएगी तो भाजपा ही, तो उस भ्रांति व प्रोपेगैंडा को बिहार के इस स्वाभाविक राजनैतिक महागठबंधन ने धारणा के मामले में ज़बर्दस्त आघात पहुंचाया है.
डॉ. लोहिया सितंबर 1952 में ‘द विल टू पावर‘ में कहते हैं, ‘किसी भी राजनैतिक दल की सबसे बड़ी परीक्षा सत्ता में आने की उसकी इच्छा में निहित होती है. अपने देश में इस इच्छा के इर्द-गिर्द एक जिज्ञासा भरी अस्पष्टता को पनपने दिया गया मानो सत्ता की इच्छा रखना पाप हो या कम-से-कम बदसूरत हो! स्वस्थ इच्छा झूठ, ठगी व हिंसा का सहारा नहीं लेती. सिर्फ कुंठित इच्छा कुत्सित-विकृत आचरण में लिप्त होती है, और अपनी ही निराशा द्वारा लील ली जाती है.’
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राजद का मकसद बिहार व देश में फासीवादी ताकतों को रोकना
इस कड़ी में लोहिया व जयप्रकाश के वैचारिक शिष्य लालू प्रसाद ने आरंभ से ही इस देश व समाज के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को महफ़ूज़ रखने की भरसक कोशिश की है. भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणी की उन्मादी रथयात्रा को रोकने से लेकर सीतामढ़ी में भड़के दंगे को शांत कराने के लिए वहां कैंप करने तक अनेक मिसालें दी जा सकती हैं.
इससे दुनिया भर में जहां उनके यश में इजाफ़ा हुआ, वहीं इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी. वर्चस्वशाली ताकतों ने उन्हें तबाह करने में कोई कसर नहीं रखी. लेकिन राजद का सबसे बड़ा मकसद बिहार व देश में फासीवादी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकना रहा है और इसके लिए लालू प्रसाद व तेजस्वी यादव किसी भी लोकतांत्रिक हद तक जाने को तैयार हैं. समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ां ने 2017 में कहा था, ‘सबक लो समाजवादियों, बिहार से सबक लो. लालू प्रसाद जी पर कौन-सा सितम नहीं ढाया गया, पर सीबीआई, ईडी व इनकम टैक्स का ख़ौफ लालू जी के क़दमों को डगमगाने में क़ामयाब नहीं हो सका.’
भाजपा जिस तरह से क्षेत्रीय दलों को अमर्यादित और अनैतिक तरीकों से नेस्तनाबूद करने में लगी थी, ऐसे में राजद यह अपनी ज़िम्मेदारी समझता है कि अपनी पूरी ताकत से बीजेपी का मुकाबला करे और क्षेत्रीय पार्टियों को बचाए. हम ये मानते हैं कि रीजनल पार्टीज़ ओरिजिनल पार्टी हैं जो क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति में सर्वथा सक्षम होती हैं और देश के सम्यक विकास में सहायक भी.
2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन ने शानदार सफलता अर्जित की, पर सरकार बनाने हेतु आवश्यक आंकड़े से थोड़ा-सा दूर रह गया. पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, कमाई, सुनवाई व कार्रवाई जैसे जनसरोकार के मुद्दों को चुनावी विमर्श का हिस्सा बनाने व अपने इस एजेंडे पर एनडीए को आने को मजबूर करने के उनके तेवर को बिहारियों ने जाति-बिरादरी से ऊपर उठकर न सिर्फ पसंद किया, बल्कि उन पर मुहर भी लगाई. तबसे तेजस्वी यादव का देश की राजनीति में अपना अलग आभामंडल दिखा. उन्होंने हर 10 वर्ष में होने वाले जनगणना को जातिवार कराने की मांग पुरज़ोर तरीक़े से उठाई व हर राजनीतिक दल को इस पर स्टैंड लेने के लिए बाध्य किया. उनके प्रस्ताव पर नीतीश कुमार एक शिष्टमंडल लेकर प्रधानमंत्री से मिलने गए. लेकिन, कोई ठोस आश्वासन व पहलकदमी देखने को नहीं मिली.
उधर, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व लगातार नीतीश कुमार पर अवांछित टिप्पणियों की बौछार सदन से लेकर सड़क तक करता रहा. स्पीकर और मुख्यमंत्री के बीच जो सहयोगात्मक रिश्ता होता है, उसकी मर्यादा भी गिराई गई. विधानसभा के अंदर पुलिस को बुलवाकर विधायकों को पिटवाया गया. जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात छेड़कर अल्पसंख्यक समुदाय को चिढ़ाया जाता रहा. इन सब से नीतीश कुमार असहज होते रहे. तेजस्वी यादव ने सदन में दहाड़ते हुए कहा, ‘किसी माई के लाल में दम नहीं है जो मुसलमान भाइयों से उनका वोटिंग राइट छीन ले!’
धर्म को आत्मपरिष्कार व चित्तशुद्धि का माध्यम मानने के बजाय मस्जिद के पास जाकर हनुमान चालीसा पढ़ने का औचित्य किसी को समझ नहीं आ रहा था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पर्याय लालू प्रसाद ने अस्पताल से छूटते ही कहा, ‘ये सब बहुत गलत बात है. ये देश को टुकड़ा करने के बराबर है. आप क्यों जा रहे हो मस्जिद के पास? हनुमान चालीसा पढ़ना है तो अपना मंदिर में पढ़ो न भाई! इ तो इरिटेट किया जा रहा है न लोगों को कि इ लोग रिएक्ट करे और दंगा-फ़साद हो! इ बहुत बुरा चीज़ होगा देश के लिए, बहुत खराब!’
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दूरदर्शी लालू प्रसाद
दूरदर्शी लालू प्रसाद यादव ने 2017 में नीतीश कुमार के महागठबंधन से अलग होकर दोबारा एनडीए में जाने पर कहा था, ‘हमको अफसोस है कि भाजपा हमारे छोटे भाई को खा जाएगी.’ वहीं शरद यादव ने कहा था, ‘हम अब भी महागठबंधन के साथ हैं. हमने 5 साल के लिए गठबंधन किया था, वो ईमान का करार था. वो टूटा है.’
70 साल के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जहां दो पार्टी या गठबंधन जो चुनाव में आमने-सामने लड़े हों और जिनके मेनिफेस्टो अलग हों, दोनों के मेनिफेस्टो एक हो गए हों. यह लोकशाही में विश्वास का संकट है.’
अब 2022 में जहां नीतीश कुमार को अपने उस निर्णय पर अफसोस है, वहीं शरद यादव कहते हैं, ‘देर आयद, दुरुस्त आयद.’ बिहार की अब तक की इकलौती महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने खुशी का इजहार करते हुए कहा, ‘बिहार के लोग खुश हैं.’ लालू प्रसाद की छोटी बेटी राजलक्ष्मी उनका स्वागत करते हुए कहती हैं, ‘अब वे सही रास्ते पर आ गये हैं शायद.’
हम जहां थे, वहीं हैं. हम बीजेपी के खिलाफ कल भी थे और बीजेपी के खिलाफ आज भी हैं. बीजेपी को रोकने के लिए जो भी ज़रूरी है, हम करेंगे. इसलिए ही हम फिर से अपने उन पूर्व सहयोगियों के साथ आ रहे हैं जो किन्हीं कारणों से हमसे दूर चले गए थे. पूरे देश में विपक्ष को लामबंद करने के काम में लालू प्रसाद जुटे थे. पर, 2017 के प्रकरण से उस मुहिम को थोड़ा पलीता लग गया था. जहां तक 2015 के बाद एक बार फिर संख्या में अधिक रहने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की बात है, तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि राजद और लालू जी ने हमेशा बड़ा दिल दिखाया है.
तेजस्वी यादव के भीतर कोई अहंकार नहीं है. उन्होंने देशहित में सिर्फ हाथ ही नहीं, दिल भी मिलाया है. 2013 में भी नीतीश कुमार जब एनडीए से अलग हुए थे, उनकी सरकार खतरे में आ गई थी. लेकिन, लालू प्रसाद ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया और सरकार बचाई. लोक-लाज से लोकराज जब चलता है, तो संख्याबल हमें और विनम्र, उदार व जवाबदेह बनाता है. हमारा मूल मकसद किसी भी तरह से धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय को बचाना है ताकि इस उदारीकरण के नाम पर उधारीकरण के दौर में लैंगिक न्याय, आर्थिक न्याय व जलवायु न्याय को सुनिश्चित किया जा सके. लालू जी बार-बार कहते हैं कि शांति रहेगी तभी समता व समृद्धि की यात्रा हम पूरी कर सकेंगे.
10 अगस्त 2022 को जब नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने शपथ ली, तो एक बात क़ाबिले-गौर रही. दोनों ने ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान’ किया. इसमें दोनों नेताओं की समाजवाद के आंगन में धर्मनिरपेक्ष परवरिश की खूबसूरत झलक मिलती है व इससे भारत के लोकतंत्र व संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है. जिस तरह शपथ ग्रहण के दौरान देश में जय श्रीराम के नारे सुनाई पड़ते थे, वहीं पटना राजभवन में जय हिन्द का नारा सुनने को मिला. पुरखों की विरासत को संभालते हुए यह भविष्य के स्वप्न का इशारा है, धार्मिक उन्माद के शालीन प्रतिरोध की अनुगूंज है.
बहरहाल, पूरे देश में नये उत्साह का संचार हुआ है. हमें आशान्वित रहना चाहिए कि चीज़ें बदलेंगी. हां, ये ज़रूर है कि जो लोग समाजवादी आंदोलन व पार्टियों के बनने-बिखरने-जुड़ने का इतिहास जानते हैं, वे न तो बहुत हतोत्साहित होते हैं, न बहुत आह्लादित.
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूं मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्रां की तमन्ना मिरे आगे.
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे. (ग़ालिब)
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पहले भी विपक्ष ने लड़ी है लड़ाई
लेकिन अब तक तीन ऐसे मौके आए हैं जब देश ने विभिन्न दलों को अपना-अपना अहम छोड़कर इकट्ठा होकर साझा विरासत को बचाने की लड़ाई लड़ते देखा है. 1974 की संपूर्ण क्रांति से लेकर 1988-89 में देश को साफ-सुथरी सरकार देने के राष्ट्रीय मोर्चा के आह्वान और फिर 1996 में संयुक्त मोर्चा का देश की गद्दी संभालना- ये सब साझा प्रयास से मुमकिन हो पाया.
पर, हम न भूलें कि कांग्रेस ने देश को 6 प्रधानमंत्री (जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह) दिये हैं और उन्होंने 55 साल हुकूमत चलाई, वहीं समाजवादियों ने भी देश को 6 प्रधानमंत्री (मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल) दिये हैं और वे बमुश्किल 7 साल गद्दी संभाल पाये. 3 बार सरकार बनी और तीनों बार एक प्रधानमंत्री से हमारा काम नहीं चला.
बड़ी मुश्किल से पूरब से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण मिला था, तो नेशनल फ्रंट बन सका था. वीपी सिंह, आर के हेगड़े, एस आर बोम्मई, एनटी रामाराव, एम करुणानिधि, प्रफुल्ल कुमार महंत, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत, इंद्रजीत गुप्ता, मुफ़्ती मोहम्मद सईद, मधु दंडवते, बीजू पटनायक, जॉर्ज फर्णांडीस, चंद्रशेखर, ताऊ देवीलाल, मान्यवर कांशीराम, अजित सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, एच डी देवेगौड़ा, आई के गुजराल, आदि के निरंतर प्रयास से एक मोर्चा बन पाया व देश को विकल्प मिल सका.
पर, पता नहीं समाजवादी परिवार क्यों इतना अभिशप्त है कि साल-दो साल में ही बिखराव शुरू हो जाता है. हम अब और इस तरह चंचलचित्त होना नहीं झेल सकते. आज की तारीख में स्थितप्रज्ञ होकर पूरे जीवट के साथ मौजूदा हुकूमत की ज़्यादतियों से मुकाबला करने की ज़रूरत है और नई पीढ़ी के नेताओं में तेजस्वी प्रसाद में वह अपेक्षित ठहराव, गांभीर्य व प्रखरता दिखती है. पहले भी उन्होंने उपमुख्यमंत्री के रूप में शालीनता के साथ अपना दायित्व निभाया है और पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर रहते हुए 20 महीने में 5000 किलोमीटर सड़कों का गुणवत्तापूर्ण निर्माण कराया, जेपी सेतु बनवाया, 53 आरओबी बनवाये, सीआरएफ फंड को 200 करोड़ से 1000 करोड़ तक बढ़ाया. जहां पहले टेंडर व वैरिएशन की फाइल मंत्री के पास आती थी, वहीं उन्होंने पारदर्शिता सुनिश्चित की कि ठेके, वैरिएशन व ईओटी की कोई भी फाइल मिनिस्टर तक न भेजी जाए.
जहां लालू प्रसाद के मार्गदर्शन में पार्टी चलाने के कौशल व नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार में नीति-निर्माण व क्रियान्वयन में तेजस्वी यादव की दक्षता से प्रदेश व देश में सोशल जस्टिस व डेवलपमेंट का एक सुंदर मॉडल देखने को मिलेगा, वहीं देश के बाकी प्रांतों में भी 2024 के समर के लिए लामबंदी सही दिशा में तेज़ हो सकेगी.
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं, और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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