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Friday, 22 November, 2024
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आज़ादी के 75वें साल किस बात का जश्न? संवैधानिक संस्थाओं के ढहने का या क्रूर होती लोकतांत्रिक सत्ता का

जब भारत 2022 में आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है तो यहां एक सवाल सबसे जरूरी हो जाता है कि हमारे लिए आजादी के मायने क्या हैं, क्या इसका मतलब हम लोगों के बीच ठीक तरह से ले जा पाए?

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भारत अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है और संयोग से इसी वर्ष आजाद मुल्क में मेरे भी 25 साल पूरे हुए हैं. कहीं मैंने अपनी वास्तविक उम्र बताकर कोई गलती तो नहीं कर दी! खैर. मैंने आजादी के शुरुआती 50 साल तो नहीं देखे या जीए लेकिन उसके बाद के 25 साल को मैंने बेहद ही संजीदगी और बारीकी से देखा है और उसके सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं को अलग-अलग पहलुओं से समझा और जाना है. हालांकि शुरुआती 50 सालों को मैंने अलग-अलग बेहतरीन किताबों और सिनेमा के जरिए से ही जाना.

लेकिन मैं भारत के इन 75 सालों को दो खांचों में खींचकर देखने का जोखिम उठा रहा हूं. शुरुआती 50 साल यानी की 1947 से लेकर 1996 तक और बाकी के 25 साल यानी की 1997 से 2022 तक. इन सालों में भारत ने एक लंबी यात्रा तय कर ली है. ये यात्रा बेहद रोमांचक है लेकिन कहीं-कहीं इस यात्रा में इतने गहरे धब्बे भी हैं जिसे कोई भी मुल्क दोहराना नहीं चाहेगा. इस यात्रा में समाजवाद से बाजारवाद की तरफ बढ़ते कदम की तारीख भी है और समाज के राजनीतिक होने की कहानी भी.

जब भारत 2022 में आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है तो यहां एक सवाल सबसे जरूरी हो जाता है कि हमारे लिए आजादी के मायने क्या हैं, क्या इसका मतलब हम लोगों के बीच ठीक तरह से ले जा पाए. क्या लोगों ने इसे ठीक तरह से समझा और उसका पालन किया? इसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस संबोधन से समझा जा सकता है जो उन्होंने 15 अगस्त 1947 को दिया था.

नेहरू ने कहा था, ‘हमारा मुल्क आजाद हुआ, सियासी तौर पर एक बोझा जो बाहरी हुकूमत का था, वह हटा. लेकिन आजादी भी अजीब-अजीब जिम्मेदारियां लाती हैं और बोझे लाती हैं. अब उन जिम्मेदारियों का सामना हमें करना है और एक आजाद हैसियत से हमें आगे बढ़ना है और अपने बड़े-बड़े सवालों को हल करना है. सवाल हमारी जनता का उद्धार करने का है, हमें गुरबत को दूर करना है, बीमारी दूर करनी है. आजादी महज एक सियासी चीज नहीं है. आजादी तभी तक ठीक पोशाक पहनती है, जब जनता को फायदा हो.’

नेहरू के कहे शब्दों पर अगर मौजूदा समय में गौर करें तो एक मुल्क के तौर पर हम काफी आगे बढ़ चुके हैं लेकिन कहीं न कहीं जिम्मेदारियों को लेकर आज भी लोगों के मन में झिझक है. नेहरू ने जिस भारत का सपना देखा वो आज एक महत्वपूर्ण मुहाने पर आ गया है जहां आर्थिक रूप से कुछ संपन्नता तो जरूर आई है लेकिन सामाजिक और राजनीतिक तौर पर जो विफलता हाथ लगी है, वो एक आजाद मुल्क के लिए तो कतई अच्छा नहीं है. ये सबसे बेहतर समय है कि सांप्रदायिकता, वैमन्स्यता के मुहाने से मुल्क को अलग कर सही राह पर ले जाया जाए.

नेहरू ने भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समृद्धता की बुनियाद डाली. इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर देश के लिए महत्वपूर्ण संस्थाओं को बनाने का काम किया. इसरो से लेकर आईआईटी तक आज भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं लेकिन इसके उलट अभी भी बड़ा तबका भूखमरी और गरीबी की चपेट में है और आर्थिक खाई गहराती जा रही है. बेरोजगारी ने देश को घेर रखा है और समय-समय पर युवाओं का उबाल सड़कों तक पहुंच जाता है. दूसरी तरफ कोविड महामारी ने जिस तरह भारत के स्वास्थ्य ढांचे की असल तस्वीर पेश की वो एक बेहतर मुल्क के लिए तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं है. इतने सालों बाद भी अगर लाशें गंगा किनारे पड़ी हुई मिलती हैं तो हमारी साझा संवेदनशीलता पर ही ये प्रश्न चिन्ह लगाता है.

जब हम आजादी के बाद अब तक के समय का विश्लेषण कर रहे हैं तो एक बुनियादी चीज़ जो सबसे ज्यादा खतरे में है, वो है आजादी. बीते कुछ समय में ये शब्द ही विवादास्पद बन चुका है और एक ऐसा माहौल निर्मित हुआ है कि खुलकर बोलने और कहने का स्पेस घट गया है.

नेहरू भारत को झूठे आडंबरों से छुटकारा और वैज्ञानिक तौर-तरीकों से जीने की बात किया करते थे लेकिन आज के राजनीतिक दायरों से ही ‘काला जादू’ की बात खुलकर कर दी जाती है. धर्म और जाति के घोल ने इस देश की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को बुरी तरह चोट पहुंचाया है और अगर 75वें साल में इसे दुरुस्त नहीं किया गया तो फिर आजादी के कोई मायने रह नहीं जाएंगे.


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विवादास्पद बन चुकी है ‘आजादी’

भारत की यह यात्रा अभी जिस पड़ाव पर है वहां सबसे ज्यादा विवादास्पद चीज़ ‘आजादी’ शब्द ही है. इस पर बीते सालों में सुनियोजित तरीके से हमले हुए हैं. कहीं किसी को अपनी बात रखने पर मारा-पीटा जा रहा है तो कहीं अभिव्यक्ति को राष्ट्रविरोध से जोड़ा जा रहा है. बीते सालों में दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सभ्य समाज से जुड़े लोगों को मुखरता से अपनी बात रखने को लेकर जेल में डाल दिया गया.

असहमति को लेकर लोग आजकल जितना नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं उतना आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं देखा गया. अमर्त्य सेन ने तो अपनी बहुचर्चित किताब द आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन में भारत के उस समृद्ध इतिहास को विस्तार से बताया है जहां एकदूसरे से संवाद की परंपरा काफी मजबूत रही है. लेकिन जैसे-जैसे आजादी मिले साल बीतते जा रहे हैं, वैसे-वैसे संवाद और साझी परंपरा भी कमजोर होती चली जा रही है. और ये स्पष्ट तौर पर मौजूदा भारतीय समाज में दिख भी रहा है.

आजादी के 75वें साल आते-आते जहां देश को अपनी बहुलता के सहारे खुद को ज्यादा मजबूत करने की दिशा में काम करना चाहिए था वहीं चीज़ें इसके उलट होती दिख रही हैं. समाज में विभाजन की गहरी खाई बन चुकी है कि लंबे समय से आसपास रहने वाले लोग ही रातोंरात एक दूसरे को शक की नज़र से देखने लगे हैं.

कोई भी समाज जब तक अपनी विविधता को नहीं अपनाता है तो आगे बढ़ने की उसकी सारी संभावनाएं धूमिल होती जाती हैं. भारत अपनी विविधता और लोकतंत्र को लेकर बाहर के मुल्कों में तो जोरदार तरीके से पेशकश करता है लेकिन उसके भीतर लोकतंत्र की जो स्थितियां बनती जा रही हैं, उसे लेकर कुछ नहीं कर पा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट्स इस बात को दर्ज करती है कि भारत का लोकतंत्र लगातार कमजोर होता जा रहा है.

भारत के शुरुआती 50 साल काफी अहम रहे हैं. उस दौरान बुनियादी संरचनाओं के जरिए देश को आगे तो बढ़ाया गया लेकिन राजनीति इतनी हावी होती चली गई कि आर्थिक विकास और सामाजिक विकास उसी में उलझ कर रह गया.

हालांकि शुरुआती दशकों में ही भारत में इमरजेंसी लगी जो कि भारतीय लोकतंत्र पर अब तक का सबसे बड़ा कुठाराघात है. जब न्यायापालिका से लेकर प्रशासन तक हर कोई एक लीक में चलने को मजबूर हो गया. नागरिकों के अधिकार छीन लिए गए. लेकिन बेहतर लोकतांत्रिक बुनियाद होने के कारण देश उस स्थिति से आगे बढ़ निकला और आने वाले दशकों में उदारवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धातों को अपनाते हुए विकास की ओर निकल पड़ा.


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तिरंगा और उभरते संकट

भारत सरकार आजादी के 75वें साल को अमृत महोत्सव के तौर पर मना रही है. हर घर तिरंगा अभियान चलाया जा रहा है. राष्ट्रभक्ति की नई समझ विकसित की जा रही है. इन दिनों जहां देखो वहीं सिर्फ तिरंगे की ही बात हो रही है.

हालांकि बीते सालों में दो ऐसे मौके भी आए जब तिरंगे के मायने को सही तरह से प्रदर्शित किया गया. पहला मौका सीएए-एनआरसी को लेकर हुए लंबे आंदोलन में आया जब बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोगों ने हाथों में तिरंगा थामा वहीं दूसरा मौका साल भरे चले किसान आंदोलन में आया जब किसानों ने तिरंगे को हाथों में लेकर मोदी सरकार से बेरोकटोक सवाल किए और अपने अधिकारों की मांग की.

ये अच्छी बात है कि भारत एकसाथ मिलकर आजादी के 75वें साल का जश्न मना रहा है लेकिन क्या देश के लोग आजादी की साझी परंपरा का भी जश्न मना रहे हैं? क्या तिरंगे में निहित आइडिया ऑफ इंडिया की जो बात है, उसे लोग समझ रहे हैं या सरकार क्या इस दिशा में लोगों के बीच जागरूकता ला पा रही है. 75वें साल में सिर्फ घरों पर तिरंगा लगाने से देशभक्ति नहीं प्रदर्शित होगी, इसके लिए जरूरी है कि तिरंगे में छिपे संदेश को आत्मसात किया जाए.

भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा की बैठक में अपनाया गया था. सभा में डॉ. एस राधाकृष्णन ने तिरंगे के तीनों रंगों के बारे में बताया था, ‘भगवा या केसरिया रंग वैराग्य के त्याग को दर्शाता है. केंद्र में सफेद रंग, हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने के लिए सत्य का मार्ग है और हरा मिट्टी व पौधे के जीवन से हमारे संबंध को दर्शाता है … अशोक चक्र धर्म का पहिया है और शांतिपूर्ण परिवर्तन की गतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है.’

आजादी के 75वें साल भारत के हर व्यक्ति को इस संदेश को समझाने की जरूरत है. सिर्फ तिरंगा फहराने से उसके असल मतलब को नहीं समझा जा सकता.

यह जरूरी है कि अमृत महोत्सव मनाते हुए हम पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए आने वाले भविष्य को बेहतर करने की दिशा में काम करें. एक ऐसा मुल्क बनकर उभरे जहां किसी भी तरह का वैरभाव न हो, सांप्रदायिक तौर पर कटुता की जगह न हो, संकीर्णता न हो.

विश्व-बंधुत्व की जब हम सीख दुनिया के सामने पेश करते हैं, तो उससे पहले ये जरूरी है कि देश के भीतर रहने वाले सभी जाति, धर्म समाज के लोग मिलकर रहें क्योंकि एक साथ आगे बढ़ने में ही किसी भी मुल्क की बेहतरी है. वरना अगर कौम थोड़ी भी गफलत में रहेगी तो हमारी आजादी खतरे में पड़ जाएगी.

आजादी को पाने का संघर्ष जितना शानदार था उसे कायम रखने में हम उतने ही नाकाम हो रहे हैं. छोटी-छोटी घटनाओं और प्रयासों से हमारी कायम आजादी पर हमले किये जा रहे हैं. और देश की बड़ी आबादी मौजूदा खतरे को समझ नहीं पा रही है. क्योंकि उसे तरह तरह के गैरजरूरी बहसों और मुद्दों में उलझा दिया गया है. और इसके पीछे एक बड़ी साज़िश अंजाम ले रही है जो कई मौकों पर उभर कर सामने आ जाती है. ये बेहद खतरनाक है. देश के लिए, नागरिकों के लिए और हमारी मेहनत से अर्जित की गई बहुमूल्य आजादी के लिये.

75वें स्वतंत्रता दिवस पर हम किस चीज का जश्न मनाएं? घटते नागरिक बोध का, संवैधानिक संस्थाओं के ढहने का, छिनती आजादी का, बढ़ते वैमनस्य का या क्रूर होती लोकतांत्रिक सत्ता का? इसलिए इस साल आजादी को फिर से कायम करने के लिए नागरिक बोध पैदा करने की जरूरत है. छोटे-छोटे प्रयासों से इसे हासिल करना ही होगा. यही देश के लिए असल आजादी का जश्न होगा.

(व्यक्त विचार निजी हैं)


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