भारतीय थल सेना ने अपने ऐतिहासिक रेकॉर्डों के संग्रह और अपना सैन्य इतिहास लिखने की दो परियोजनाओं पर काम शुरू करके डबल्यूके स्वागतयोग्य कदम उठाया है. इन परियोजनाओं पर काम आर्मी ट्रेनिंग कमांड ने मऊ के आर्मी वार कॉलेज के साथ मिलकर शुरू किया है. म्हो-आधारित आर्मी वॉर कॉलेज इसकी केंद्रीय एजेंसी के रूप में काम कर रहा है, और भारत का सबसे पुराना थिंक टैंक यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट शोध कार्यों से संबंधित विशेषज्ञता के मामले में सहायता दे रहा है.
टीवी चैनल ‘न्यूज़-18’ ने सरकारी सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि वर्गीकृत और अवर्गीकृत ऐतिहासिक सैन्य रेकॉर्डों को डिजिटाइज और संग्रहीत करने की पहली परियोजना इस साल मई में शुरू हुई और यह अगले साल अप्रैल तक पूरी कर ली जाएगी. दूसरी परियोजना सेना का सैन्य इतिहास लिखने और इसके लिए एक वेब पेज तैयार करने की है. इस पर काम चल रहा है और उम्मीद है कि यह ‘इस महीने के अंत’ तक पूरा हो जाएगा. मुझे लगता है कि दूसरी परियोजना में ‘सैन्य इतिहास’ शब्द का इस्तेमाल ढीले-ढाले अर्थ में किया गया है. थल सेना शायद अपने ऑपरेशनों, लड़ाइयों, और सीखे गए सबक़ों से संबंधित अवर्गीकृत दस्तावेजों/विवरणों का इस्तेमाल करके एक वेबसाइट बना रही है, जिसे किसी भी तरह सैन्य इतिहास नहीं कहा जा सकता.
अधिकृत सैन्य इतिहास लिखने की ज़िम्मेदारी रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की है, जिसने युद्धों के इतिहास के संग्रहण, संकलन, प्रकाशन, और उसे अवर्गीकृत करने को लेकर जून 2021 में एक नयी नीति जारी की. सेना की नयी परियोजनाएं इसी नीति के दायरे में चलाई जा रही हैं. वायुसेना और नौसेना तथा भारत के युद्ध में अपनी भूमिका निभाने वाले दूसरे मंत्रालय भी शायद ऐसी ही परियोजनाएं शुरू कर रहे हैं.
उत्साहवर्द्धक बात यह है कि एमओडी ने सेना के अभिलेखों के रखरखाव और सैन्य इतिहास के लेखन के मामले में एक औपचारिक रुख अपनाया है. प्रामाणिक सैन्य इतिहास लेखन के मामले में हमारा जो पिछला रेकॉर्ड रहा है उसके संदर्भ में मैं नयी नीति की यहां मैं समीक्षा करूंगा और उसे सुधारने के उपायों की सिफ़ारिश करूंगा.
सैन्य इतिहास लेखन की नीति
रक्षा मंत्रालय ने जो नयी नीति बनाई है वह सार्वजनिक नहीं की गई है. पीआइबी की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, युद्ध/सैन्य ऑपरेशनों के इतिहास का संग्रहण, संकलन, प्रकाशन और उसे अवर्गीकृत करना इस नीति के दायरे में आता है. इसमें कहा गया है कि एमओडी के अधीन जो संगठन हैं वे सब अपने सभी रेकॉर्ड, ‘युद्ध डायरियां, कार्रवाइयों से संबंधित तमाम पत्र, और ऑपरेशनों से संबंधित सभी रेकॉर्ड बुक’ उचित रखरखाव, संग्रहण, और इतिहास लेखन के लिए मंत्रालय के हिस्टरी डिवीजन को सौंप देंगे. यह संगठन इन दस्तावेजों की इस दृष्टि से जांच करेगा कि उन्हें अवर्गीकृत किया जा सकता है या नहीं.
हिस्टरी डिवीजन इन अवर्गीकृत रेकॉर्डों का इस्तेमाल प्रामाणिक सांकलों और युद्धों का इतिहास प्रकाशित करेगा. यह प्रक्रिया युद्ध या ऑपरेशन के खत्म होने के पांच साल बाद समयबद्ध तरीके से की जाएगी. नीति आदेश देती है कि युद्धों और ऑपरेशनों के इतिहास के संकलन के लिए एमओडी के संयुक्त सचिव की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया जाए जिसमें तीनों सेनाओं, विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय, दूसरे संगठनों, प्रमुख सैन्य इतिहासकारों (अगर जरूरी लगे) के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए.
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नयी नीति का मतलब
सैन्य इतिहास के रेकॉर्ड के रखरखाव और अधिकृत सैन्य इतिहास के प्रकाशन के लिए एमओडी हमेशा एक विस्तृत नीति रखता रहा है. एमओडी का हिस्टरी डिवीजन 1953 में स्थापित किया गया. वह संयुक्त सचिव (प्रशिक्षण) के अधीन काम करता रहा और उसे नीति को लागू करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. उसे रक्षा मंत्रालय, तीनों सेनाओं से नियमित तौर पर यूनिटों/फॉर्मेशनों से युद्ध डायरियों के अलावा एक्शन के बाद की रिपोर्ट मिलती रही है ताकि वह उनका संरक्षण करे.
लेकिन अब तक सिर्फ 20 ऐतिहासिक विवरण आधिकारिक रूप से प्रकाशित किए गए हैं. 1947-48 में जम्मू-कश्मीर में किए गए ऑपरेशनों के अलावा, हैदराबाद मुक्ति के ‘ऑपरेशन पोलो’, गोवा मुक्ति के ‘ऑपरेशन विजय’, कोंगों में संयुक्त राष्ट्र के ऑपरेशनों (1960-63) में भारतीय सेना की भूमिका, कोरिया में भारतीय कस्टोडियन फोर्स की कार्रवाई के इतिहास के अलावा और किसी युद्ध का आधिकारिक इतिहास नहीं प्रकाशित किया गया है. 1962, 1965, 1971 के युद्धों के इतिहास लिखे तो गए मगर वे सुरक्षा एवं कूटनीति संबंधी विवादों उलझकर रह गए, जिन्हें हिस्टरी डिवीजन के पूर्व अधिकारियों ने अनधिकारिक इतिहास के रूप में प्रकाशित किया है.
इस डिवीजन का काम रक्षा मंत्रालय और तीनों सेनाओं से प्राप्त होने वाली अवर्गीकृत रेकॉर्डों पर निर्भर है. ‘पब्लिक रेकॉर्ड्स एक्ट 1993’ और ‘पब्लिक रेकॉर्ड्स रूल्स 1997’ में वर्गीकृत दस्तावेजों की हर पांच वर्ष पर समीक्षा करने और उन्हें 25 वर्ष बाद राष्ट्रीय अभिलेखागार को सौंपने की निश्चित प्रक्रिया बताई गई है. लेकिन ये एक्ट और नियम डिजिटल युग में काम के परिमाण के सामने अधूरे साबित हुए हैं. इसके अलावा, 1923 के पुराने ‘ऑफ़िशियल सेक्रेट्स एक्ट’ के मुताबिक सुरक्षा को लेकर आग्रहों ने समस्या को और बढ़ा दिया है. नतीजतन, गिनती के दस्तावेजों को ही अवर्गीकृत किया जाता है और शोध के लिए हिस्टरी डिवीजन तथा राष्ट्रीय अभिलेखागार को सौंपा जाता है. नयी नीति ने रेकॉर्ड्स को अवर्गीकृत करने के मसले पर ज़ोर तो दिया है मगर उसका पर्याप्त समाधान नहीं किया है.
नयी नीति इस बात पर बार-बार ज़ोर देती है कि सैन्य इतिहास के संकलन का काम हिस्टरी डिवीजन को करना चाहिए. यही बुनियादी गलती है. सैन्य इतिहास केवल युद्धों/ऑपरेशनों से जुड़े दस्तावेजों से तथ्यों का संकलन नहीं होता. यह युद्ध या संकट के दौरान देश के राजनीतिक, सामाजिक, सैन्य आचरण का गहरा विश्लेषण होता है. तथ्यों की तो कोई कमी नहीं होती. निष्पक्ष सैन्य इतिहास तो विशेषज्ञतापूर्ण शोध के जरिए तथ्यों के चयन, उनकी व्याख्या और उनके विश्लेषण से तैयार किया जाता है.
फिलहाल छह शोधकर्ताओं और उनके तीन सहायकों का स्टाफ तथ्यों के संकलन के अलावा कोई काम नहीं कर सकता. यही वजह है कि अब तक जो अधिकृत/अनधिकृत विवरण प्रकाशित किए गए हैं वे तथ्यों के संकलन भर ही हैं, वास्तव में सैन्य इतिहास नहीं हैं. संकलन का काम हिस्टरी डिवीजन के जिम्मे छोड़ा जा सकता है और इतिहास लेखन के लिए पेशेवर सैन्य इतिहासकारों को नियुक्त किया जान चाहिए. यह काम विश्वविद्यालयों को भी सौंपा जा सकता है.
हमारे सैन्य रेकॉर्ड्स के साथ समस्या
इतिहास बताता है कि सेनाएं अपने युद्धों/ऑपरेशनों का रेकॉर्ड रखने में ईमानदारी नहीं बरततीं. हमारी सेना भी इस मामले में अपवाद नहीं है. यूनिट/फॉर्मेशन की युद्ध डायरियों और एक्शन के बाद की रिपोर्टों से छेड़छाड़ की जाती है ताकि अपनी रेजीमेंट की इज्जत की रक्षा/वृद्धि की जा सके और ज्यादा इनाम हासिल किया जा सके. यहां तक कि ‘सीखे गए सबक’ में भी छेड़छाड़ की जाती है ताकि अपनी विफलताओं की सही ठहराया जा सके. युद्ध के गंभीरता के बारे में अतिशयोक्ति की जाती है जबकि मिशन को कम नुकसान उठाकर भी पूरा कर लिया जाता है, जो कि सैन्य कौशल का पराकाष्ठा मानी जाती है. आधुनिक तकनीक के कारण अब युद्ध में व्यक्तिगत शौर्य की शायद ही जरूरत पड़ती है. लेकिन वीरता पुरस्कार तो इसी के लिए मिलते हैं. इसलिए यूनिटें काल्पनिक विवरण देती हैं, जिनका ऊंचे मुख्यालय गहन आकलन करने की जगह उनकी अनुशंसा कर देते हैं ताकि फॉर्मेशन की या कमांडरों की शान बढ़े.
उच्चतम स्तर पर सरकारें और सेनाएं इस बात को लेकर दहशत में रहती हैं कि उन्हें विफल न माना जाए और इसके लिए उनसे जवाबदेही की जाए. राजनीतिक लाभ के लिए भी सैन्य सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है. नतीजतन, किसी भी युद्ध/संकट में सहकारी चुप्पी ओढ़ ली जाती है और लीपापोती, धोखा और बड़बोलेपन का सहारा लिया जाता है. सेना को कोई औपचारिक राजनीतिक निर्देश नहीं दिया जाता. सुरक्षा की आड़ में उच्च मुख्यालयों ने ऑपरेशन के औपचारिक आदेश देने बंद कर दिए हैं.
किसी भी सैन्य इतिहासकर को निष्पक्ष निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए अतिशयोक्ति, तोड़-मरोड़, और लीपापोती में से चयन करना पड़ता है.
आगे का रास्ता
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने युद्ध इतिहास लेखन के लिए नयी नीति जारी करके अच्छा किया है. सैन्य रेकॉर्ड के वर्गीकरण और आ-वर्गीकरण की प्रक्रिया की समीक्षा जरूरी है ताकि सैन्य इतिहास लेखन के लिए जानकारियां उपलब्ध हो.
हिस्टरी डिवीजन के संगठन और कामकाज में भारी फेरबदल जरूरी है. तथ्यों/सूचनाओं के संकलन और सैन्य इतिहास लेखन में फर्क करना जरूरी है. संकलन इतिहास लेखन का एक हिस्सा भर होता है. हिस्टरी डिवीजन का काम तथ्यों/सूचनाओं के संग्रह और संकलन तक सीमित करना व्यावहारिक ही होगा. नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में एक मिलिटरी हिस्टरी बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए. इतिहास लेखन के लिए जाने-माने सैन्य इतिहासकारों को नियुक्त किया जाना चाहिए.
और अंत में, जरूरी बात यह कि जब तक छोटी-मोटी सफलताओं के बारे में अतिशयोक्ति करने और विफलताओं की लीपापोती करके फर्जी आख्यान तैयार करने की राजनीतिक-सैन्य संस्कृति नहीं बदलती, तब तक भारत सैन्य इतिहास के गौरवपूर्ण मगर तोड़-मरोड़ कर पेश किए गए संस्करण को झेलता रहेगा.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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