पैगंबर मुहम्मद (स०) के दुनिया से चले जाने के लगभग सौ से डेढ़ सौ साल बाद अनेक इस्लामी विद्वानों द्वारा उनके कार्यों और कथनों का संकलन किया गया जिसे हदीस कहा जाता है. यह हदीस उसके संकलनकर्ता के नाम से जाना जाता है जैसे इमाम बुखारी द्वारा संकलित हदीस को बुखारी की हदीस और इमाम मुस्लिम द्वारा संकलित हदीस को मुस्लिम की हदीस कहा जाता है. हदीस की पुस्तकें कुरान के बाद इस्लामी ज्ञान का सबसे प्रमुख श्रोत मानी जाती हैं.
पैगंबर मुहम्मद के व्यक्तित्व और उनके द्वारा किए गए कार्यों से यह बात साफ हो चुका है कि वो जन्म आधारित भेदभाव के ना सिर्फ विरोधी थे बल्कि अपने जीवन काल में इसे खत्म करने की पूरी कोशिश भी की है. मगर एक अजीब विडंबना है कि हदीस की किताबो में ऐसे बहुत से मुहम्मद (स०) के कथन मिलते हैं जो नस्लवाद/जातिवाद का खुल कर समर्थन करतें हैं जैसे कुरैश (सैय्यद,शेख) ही खलीफा होगा, कुरैश जनजाति के लोग ही सारे अरबी लोगों के सरदार हैं. ठठेरा, सोनार, जुलाहे, मोची, रंगरेज आदि पेशेवर कामगार जातियों को ईश्वर के साथ धोखा करने वाला, बुरा और कमतर बताना आदि.
गौरतलब है कि इन्हीं हदीस की किताबों में पैगंबर मुहम्मद के ऐसे भी कथन (हदीस) मिल जाएंगे जो पूरी तरह से नस्लवाद/जातिवाद का विरोध करते हैं जैसे एक मुसलमान, दूसरे मुसलमान का भाई है, स्वयं की नसब (जाति) पर गर्व करने और दूसरे की जाति को बुरा या कमतर समझने को अज्ञानता का काम बताना आदि.
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पसमांदा आंदोलन का मूल मंत्र
इनमें सबसे प्रमुख हदीस, पैगंबर मुहम्मद द्वारा उनके आखिरी हज के अवसर पर दिया गया भाषण है जिसमें कहा गया है कि किसी अरबी को किसी अजमी (अरब लोगों के अलावा अन्य क्षेत्र और जाति के लोग) पर न किसी अजमी को किसी अरबी पर, न गोरे (रंग वाले व्यक्ति) को काले (रंग वाले व्यक्ति) पर, न काले को गोरे पर, कोई श्रेष्ठता है. मैं तुम्हारे बीच अल्लाह की किताब और मेरा तरीका दो ऐसी चीजें छोड़कर जा रहा हूं कि अगर इसे मजबूती से थामे रखोगे तो मेरे बाद कभी गुमराह ना होंगे. ( मुहम्मद द्वारा आखिरी हज के समय दिया गया उद्बोधन से, बुखारी हदीस न० 1623,1636,6361)
ऊपर लिखे अंतिम हज के अवसर पर दिया गया मुहम्मद के भाषण में नस्लवाद का जबरदस्त विरोध है जिसे पसमांदा आंदोलन से जुड़े कुछ लोग इसे आंदोलन का मूलमंत्र मानते हैं. कुछ अशराफ उलेमा इसे पैगंबर मुहम्मद का अंतिम सार्वजनिक भाषण नहीं मानते हैं और हज से मक्का के तरफ लौटते हुए समय गदीर नाम की जगह पर केवल चंद लोगों के सामने दिए गए भाषण को अंतिम मानते हैं. इसी खुत्बे में पैगंबर मुहम्मद ने कहा था कि मैं तुम में ईश्वर की किताब (कुरान) और मेरे घर वाले/मेरी औलाद एवं रिश्तेदार दो ऐसी चीजें छोड़कर जा रहा हूं कि अगर मजबूती से इसे थामे रखोगे तो गुमराह ना होंगे. (हदीस न०2408, तिर्मिज़ी)
अहले बैत और इतरत (घर वाले, औलाद और रिश्तेदार) वाला पैगंबर मुहम्मद का यह कथन, हदीस के अन्य प्रमुख संग्रह ‘मुस्लिम’ और ‘मिश्कात’ में भी हैं. कुछ अशराफ उलेमा पैगंबर मुहम्मद के इस कथन को आधार मानकर सैय्यद जाति के उच्च होने और उसकी श्रेष्ठता को इस्लामी विश्वास (ईमान) का एक महत्वपूर्ण अंग स्थापित करते है.
इसी संदर्भ में वरिष्ठ पसमांदा कार्यकर्ता परवेज हनीफ कहते हैं कि ‘वो अशराफ उलेमा, जो गदीर के खुत्बे को सही नहीं मानते और उसे शिई रिवायत (शिया सम्प्रदाय के अशराफ उलेमा द्वारा उद्धरित) मानते हैं, के द्वारा आयोजित होने वाले इस्लाहे मुआशरा (समाज सुधार) के जलसों और सम्मेलनों में भी अंतिम हज के अवसर पर दिए गए आखिरी खुत्बे की चर्चा आमतौर से नहीं की जाती है.’
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‘आखिरी’ हज और गदीर के भाषण पर बहस
यहां यह बात ध्यान देने की है कि आखिरी खुत्बे से संबंधित कोई किताबचा (हैंड बुक, छोटी किताब) आप को बाजार में ढूंढे नहीं मिलेगी जबकि छोटी से छोटी इस्लाम से जुड़ी जानकारी की किताबें अनेकों लेखकों द्वार लिखी आमतौर से आसानी के साथ उपलब्ध हैं. अशराफ द्वारा पैगंबर मुहम्मद के आखिरी भाषण का इस प्रकार उपेक्षा अशराफ उलेमा की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा लगती है ताकि पसमांदा समाज में इस्लाम का जातिविरोधी पक्ष ना खुल जाए और मुस्लिम समाज पर उनके वर्चस्व को पसमांदा की ओर से चुनौती ना मिलने लगे.
मक्के में आखिरी हज पर और गदीर में दिए गए भाषण में कही गई बात बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत है. एक में पैगंबर मुहम्मद अपने द्वारा किए गए कार्यों का पालन करने का निर्देश देते हैं और दूसरे में अपनी औलाद और रिश्तेदारों का अनुसरण करने को निर्देश देते हैं जो आगे चल कर इस्लाम में नस्लवाद/जातिवाद को प्रोत्साहित करता है. दोनों ही भाषण प्रमाणिक हदीस की किताबों में दर्ज हैं. इस प्रकार इस्लामी ज्ञान का दूसरा बड़ा श्रोत नस्लवाद के विषय में भ्रम की स्तिथि उत्पन्न करता है जिसका फायदा साधन संपन्न अशराफ वर्ग अपने सुविधानुसार उठता रहा है.
उदाहरण के तौर पर कुछ हदीसों की ही चर्चा की जाए तो जातिवाद के पक्ष में अनगिनत हदीसें है जिसमें बनू क़ुरैश जनजाति, बनू हाशिम जनजाति, बनू फातिमा जनजाति और अली (र०) के श्रेष्ठता का और कामगर (दस्तकार/शिल्पकार) जातियों के नीचता का बखान है. इनकी संख्या जातिवाद के विरोध वाली हदीसों से बहुत अधिक हैं. अक्सर अशराफ उलेमा और बुद्धिजीवियों द्वारा जातिवाद की पक्ष-विपक्ष की हदीसों को अवसर, काल और आवश्यकता के अनुसार अपने स्वार्थ के मुताबिक बताया जाता है.
(1.बुखारी हदीस नम्बर 7140
2.पेज 139; फि सुन्ना क़ज़ा फिल कन्ज़ मिनल फ़ज़ाईल, भाग:7, पेज न०12, निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर,
3.पेज न० 201, कंजूल आमाल, भाग- 2, पेज न०12, निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर.)
(यह दिप्रिंट-इस्लाम डिवाइडेड में चार-भाग की श्रृंखला का दूसरा भाग है)
(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस कॉपी को एडिट हिना फातिमा ने किया है)
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