गांधीधाम: एक ओर जहां गुजरात के शहरों में लंपी स्किन रोग से मरने वाले मवेशियों की भारी संख्या को सामूहिक दफनगाहों में डाल दिया जा रहा है और स्वयंसेवक चौबीसों घंटे इस रोग के प्रकोप को रोकने के लिए काम कर रहें हैं, वहीं, कच्छ जिले के गांवों में रहने वाले लोगों के लिए हर एक पशु की मृत्य भ्रमित करने और दिल दहला देने की हद तक व्यक्तिगत मामला बनता जा रहा है.
दिप्रिंट द्वारा दौरा किए गए शहरों और कस्बों में इस रोग से ग्रसित मवेशियों के लिए गौ रक्षकों द्वारा स्थापित आइसोलेशन सेंटर्स चलाए जा रहे हैं. स्थानीय नेताओं ने इन जानवरों के इलाज, कई जगह और पैसों से साथ सहायता की है. हालांकि, इन आइसोलेशन सेंटरों में रहने वाली ज्यादातर गायें आवारा पशु हैं. इन गायों के पास उनकी मौत का शोक मनाने के लिए कोई मालिक नहीं हैं. इस संक्रमण के तेजी से हो रहे प्रसार को नियंत्रित करने के सभी प्रयासों के बीच इन पशुओं को गड्ढों में फेंक दिया जा रहा है.
मगर, ग्रामीण इलाकों में हर पशुधन का नुकसान परिवार के किसी सदस्य के नुकसान से कम नहीं माना जाता है.
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‘मुझे बताइये कि उसे कैसे बचाया जाए!’
नागवलादिया गांव के आज़ंभाई कांगर एक बीमार गाय, जो अब खुद से चलने में भी असमर्थ है, के चारों ओर असहाय होकर चक्कर काट रहे हैं. लंपी स्किन रोग से ग्रसित, वह गाय 200 मीटर से भी कम दूरी पर स्थित एक खेत में चर रही थी. लेकिन अचानक गिर पड़ी.
कांगर ने अपनी प्यारी गाय को घर वापस लाने में मदद करने के लिए उनके साथी ग्रामीणों का घंटों इंतजार किया. अंत में, जानवर को खड़े होने और कांगर के शेड में वापस लाने में मदद करने के लिए सात लोगों की जरूरत पड़ी जहां आने के बाद वह बुरी तरह से कांप रही थी और उसे सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए कांगर कहते हैं कि वह काफी ज्यादा भ्रमित हैं. वे बताते हैं, ‘शहर के डॉक्टरों ने आकर उसे टीका लगाया था और उसका इलाज करने के लिए नियमित रूप से दौरा भी कर रहे हैं लेकिन वह ठीक ही नहीं हो रही है.’
वर्तमान में लंपी स्किन रोग का कोई इलाज नहीं है और इसका उपचार ज्यादातर नैदानिक लक्षणों को लक्षित करते हुए किया जाता है. इसके लिए जो टीका लगाया जा रहा है वह वही टीका है जो गोटपॉक्स वायरस के लिए दिया जाता है.
कांगर निराशा होकर रोते हुए और अपने तंग शेड में अभी भी स्वस्थ मवेशियों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘मैं क्या करूं? मुझे बताइये कि क्या करना है ताकि मैं उसे बचा सकूं! मैं उसे कैसे बाकी सब से अलग (आइसोलेट) करूं? मेरे पास बस यही जगह है. अगर मेरी दूसरी गायें भी इससे प्रभावित होती हैं तो मैं क्या करूंगा?’
कांगर कहते हैं कि गांव की कुछ गायें जो अब इस वायरल बीमारी से उबर चुकी हैं एक दिन में सिर्फ आधा लीटर दूध दे रही हैं जबकि पहले वे लगभग 3 लीटर देती थीं.
उसी गांव की देवीबेन झटिया को इस बात की राहत है कि उनकी गाय अब लगभग ठीक हो गई है. अपने पशु को दुलारते हुए वह दिप्रिंट को बताती है कि उन्होंने काढ़ा और नीम जैसे घरेलू उपचारों का इस्तेमाल किया.
हालांकि, इस गाय का दुग्ध उत्पादन भी काफी कम हो गया है.
मथक गांव में, ग्राम गौशाला के मुखिया कसानभाई अहीर ने दिप्रिंट को बताया कि अब तक इस बीमारी से कई गायों की मौत हो गई है.
हालांकि ग्रामीण इस बात से हैरान हैं कि टीकाकरण के बावजूद मवेशियों की आबादी में यह रोग कैसे फैल गया, मगर वे इस बात के लिए आभारी भी हैं कि डॉक्टरों की एक टीम उनके जानवरों के इलाज के लिए नियमित रूप से अंजार से उनके यहां तक आती है.
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आइसोलेट करने के लिए जगह की कमी
हालांकि, मीठी रोहर गांव में रहने वाले कुछ परिवारों को इस बीमारी के बारे में अभी ही पता चला है.
एक बछड़ा उसकी मां का दूध पीने के दौरन गुलशन कास चावड़ा उसे पकड़े हुई हैं. बछड़े में लंपी स्किन रोग के लक्षण दिखाई दे रहे हैं जिसकी वजह से उसके पूरे शरीर में छोटे-छोटे पिंड बन गए हैं.
मगर फिर भी परिवार ने बछड़े को आइसोलेट नहीं किया है, न ही उनके पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त जगह है.
चावड़ा ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने कामधेनु गौ सेवा ट्रस्ट को फोन किया लेकिन वहां से कोई मदद के लिए नहीं आया.
वह आगे कहती हैं, ‘हमारी ही बच्ची है, हम ध्यान रखेंगे इसका.’
गांव की गौशाला ने भी रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग नहीं किया है. उप सरपंच अमर सिंह के अनुसार, ग्रामीण अपनी बीमार गायों को स्वस्थ गायों के साथ चरने भी दे रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘स्थानीय गौ सेवा समिति ने अब उन पशु मालिकों पर जुर्माना लगाने का फैसला किया है जो अपनी गायों को चरने के लिए घर से बाहर भेज रहे हैं.’
कादर शेर मोहम्मद भाटी – जिनका परिवार मीठी रोहर में तुलनात्मक रूप से एक बड़े परिसर में रहता है – लगभग 30 गायों और भैंसों, कई बकरियों के साथ ही मुर्गी पालन का काम करते हैं. वे कहते हैं कि वे अपने बीमार बछड़े को उसकी स्वस्थ मां से दूर नहीं रख सकते.
वे दिप्रिंट को बताते हैं, ‘जब हम ऐसा करते हैं तो वह पूरे दिन रोती रहती है.’
‘हम पहले उन्हें खिलाए बिना कुछ नहीं खाते’
इसी बीच उसी गांव के रहने वाले युसूफ नूर मोहम्मद के पास लंपी स्किन रोग वाली दो गायें थीं जो बाहर चरने जाने के बाद कभी नहीं लौटीं.
वो इस बीमारी से काफी कमजोरी हो जाती हैं, गायें अचानक गिर जाती हैं और फिर उनके लिए अपने पैरों पर वापस खड़ा होना असंभव हो जाता है.
मोहम्मद अपने गायों के खाली शेड दिखाते हुए कहते हैं, ‘मैंने अपने लड़के को उनकी तलाश के लिए भेजा है. हम उन्हें खिलाए बिना कुछ भी नहीं खाते हैं.’
इधर रत्नाल में 30 से अधिक गायों की मौत से ग्रामीण काफी चिंतित हैं.
अंतिम सांस लेती हुई गंभीर रूप से बीमार एक गाय की तरफ इशारा करते हुए, रत्नाल निवासी शंकर भाई अहीर कहते हैं कि वे इस बात से परेशान हैं कि किया क्या जाए? वे कहते हैं, ‘वह तो मूक पशु है. वह हमें यह भी नहीं बता सकती कि उसे कहां दर्द हो रहा है. अगर हम जान सकते, तो हम कम-से-कम उसके जीवन के आखिरी कुछ घंटों को उसके लिए आसान बना देते.’
जब हम इस गांव से जा रहे थे तभी एक ग्रामीण ने हमें आवाज लगाकर कहा, ‘कृपया अधिकारियों से इसकी कोई दवा खोजने के लिए कहिए. उन्हें हमारी मदद करने के लिए कहिए.’
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