तुम पाजी तो हम अति पाजी./बदकर कभी देख लो प्यारे! कुछ भी रख लो बाजी./तुम हो जोंक तो पिसे नमक हम, तुम कुश तो हम छाछ./बने बुखार मियादी तुम तो हम चिरैत के गाछ./पढे़ पहाड़ा उलटा तो हम पूछेंगे कठबइठी./गोल-गोल बतियाये तो झोकेंगे ऐंठी-गोंइठी./आगे काठ धरे तुम तो हम भी धर देंगे आरी./अभी गरज लो किंतु न फिर मिमियाना अपनी बारी./…चाल चले बगुले की तो हम बन जायेंगे कउवा./हमें समझते दोपाया यदि तो हम तुमको चउवा.
बिहार की सत्ता-राजनीति में गत मंगलवार को जो कुछ हुआ और जिसके तहत राजनीति में किसी के भी स्थायी दोस्त या दुश्मन न होने को पुनप्र्रमाणित करते हुए कुछ पुराने दोस्त दुश्मनों में और कुछ दुश्मन दोस्तों में बदल गये, उसकी सबसे अच्छी व्याख्या अवध के लोकप्रिय कवि अष्टभुजा शुक्ल के पद {पढ़िये: कुपद} की इन पंक्तियों से ही की जा सकती है, क्योंकि उसके सिलसिले में किसी नीति-नैतिकता, सदाचार या कदाचार की बात फिजूल है. बकौल अटल बिहारी वाजपेयी: कौरव कौन, कौन पांडव टेढ़ा सवाल है./दोनों ओर शकुनि का फैला कूट जाल है.
इसीलिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत यह कहते हुए वस्तुनिष्ठ नजर आते हैं कि नीतीश कुमार ने अपने नये मूव से कुछ सिद्ध किया है तो यही कि सत्ता के खेल में भाजपा डाल डाल है तो वे पात-पात. अगर वे भाजपा को छकाने और चकित करने वाला यह कदम न उठाते तो कौन जाने वही अपने को इक्कीस साबित करती हुई बजरिये आरसीपीसिंह, जिन्हें वह करीब-करीब अपने पाले में खींच ही ले गई है, नीतीश को उद्धव ठाकरे की गति को प्राप्त करा देती और तब मीडिया मुक्त कंठ से उसके चाणक्यों के गुन गाता.
पार्टी विद डिफरेंस
लेकिन उसके चाणक्यों की एक नहीं चली और अपनी चलाने की कोशिश में उनके हाथ जल गये तो रवीश कुमार के अनुसार मामला कुल मिलाकर इतना ही है कि बिहार की राजनीति का मिजाज दूसरा है, वहां के नेताओं को ड्रिल पसन्द नहीं है और वे किसी भी दल के हों, स्वायत्त होते हैं. यह उनकी अच्छाई भी है और बुराई भी कि आप उनको बार-बार टोंकेंगे कि यहां मत थूको तो वे गुस्साकर वहीं थूक देंगे और इंतजार करेंगे कि मना करने वाला क्या करता है.
फिर भी कुछ लोग भाजपा के चाणक्यों के हाथ चलने को नीति व नैतिकताओं की कसौटी पर कसना ही चाहें तो उन्हें इतना याद दिला देना काफी है कि कभी ‘पार्टी विद डिफरेंस’ होने और मूल्याधारित राजनीति करने का दावा करने वाली इस पार्टी ने पिछले आठ सालों में प्रायः सारी राजनीतिक नैतिकताओं को बदल डाला है.
इस कदर कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में जो रास्ता उत्तर प्रदेश में उसके लिए आपद्धर्म था, वह अब सारे देश में स्वधर्म में बदल गया है. इसलिए वह भले ही नीतीश पर सबसे बड़े धोखे का आरोप लगाकर आन्दोलन व धरने-प्रदर्शन पर उतरी हुई है, उसके सिलसिले में किसी नीति या नैतिकता की दुहाई नहीं दे रही. क्योंकि उससे बेहतर कोई नहीं जानता कि ऐसी कोई भी दुहाई उलटे उसी पर आ घहरायेगी. वह दबी जुबान में भी मूल्यहीनता की बात शुरू करेगी तो उसके लिए अपनी मूल्यहीनताओं का बचाव करना मुूश्किल हो जायेगा.
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मिसाल के लिए उसका यह कहना भी कि नीतीश ने पाला बदलकर उस जनादेश के साथ विश्वासघात या उसका अपमान किया है जो उन्हें भाजपा के साथ राज्य के गत विधानसभा चुनाव में प्राप्त हुआ था, उसे इस सवाल के सामने ला खड़ा करता है कि इससे पहले के विधानसभा चुनाव में उन्हें जो जनादेश महागठबंधन के साथ प्राप्त हुआ था, पांच साल पहले उसके अपहरण में वह साझीदार क्यों थी? वह कहे कि महागठबंधन में सबसे बड़ा घटक होने के कारण राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाली नीतीश सरकार में वास्तविक सत्ता राजद के तेजस्वी यादव के हाथ में होगी और नीतीश को उनके हाथ में खेलना पड़ेगा तो भी याद रखना पडे़गा कि भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार में भी नीतीश की स्थिति ऐसी ही थी.
बीजेपी ने गवा दिए पुराने सहयोगी दल
बहरहाल, भाजपा को यह भी पता ही है कि पिछले आठ सालों की कोई भी नियम-कायदा न मानने और कोई भी सीमा स्वीकार न करने वाली उसकी राजनीतिक आक्रामकता ने उसके विपक्ष के सामने उस खुले खेल के अलावा, जो नीतीश ने खेला, अपनी जमीन खोते जाने का विकल्प ही रहने दिया है. इतना ही नहीं, सहयोगी दलों की अस्तित्वहीनता की कीमत पर भी उसे अपना असीम विस्तार ही अभीष्ट है और इसके लिए साम-दाम, दंड व भेद कुछ भी बरतने से परहेज नहीं है.
तेजस्वी यादव ने इसी बात को एक वाक्य में इस तरह कहा है कि भाजपा का रास्ता ‘जो डरता है, उसे डराओ और जो बिकता है, उसे खरीदो वाला है.’ इसीलिए उसने एक-एककर अपने प्रायः सारे पुराने सहयोगी गंवा दिये हैं. आज की तारीख में उसका सबसे बड़ा सहयोगी शिवसेना का एकनाथ शिन्दे गुट ही है, जो ‘सबसे नया’ भी है.
लेकिन यह कहे बिना बात पूरी नहीं हो सकती कि देश की राजनीति के नीतियों व नैतिकताओं से विचलन में भाजपा के सबसे बड़े हिस्से की आड़ लेकर उसके विपक्षी उसे ढर्रे पर लाने की अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते. न ही बिहार में नीतीश माॅडल की जीत को लेकर दिया जा रहा यह तर्क उन्हें बहुत दूर तक ले जा सकता है कि उन्होंने भाजपा के चाणक्यों को उनके ही हथियार से शिकस्त दे दी है. क्योंकि भाजपाई चाणक्यों के हथियार से ही उन्हें हराने को वे उन्हीं की राह चलकर उनका विकल्प बनने की कोशिश का समानार्थी बनाने चलेंगे तो विकल्प के खोल में भाजपाई अक्स वाली उपसत्ताएं बने रहने की नियति से कतई पीछा नहीं छुड़ा पायेंगे.
देश की जनता को जो पहले ही एक जैसे चेहरे वाले दलों के बीच होते आ रहे चुनावों में सरकारें बदल-बदलकर हार चुकी है और निराश ही करेंगे, सो अलग. दूसरे शब्दों में कहें तो इस रूप में वे विपक्षमुक्त भारत के भाजपा के दुःस्वप्न को पूरा करने में उसकी मदद ही करेंगे. वैसे भी, जब से देश में भूमंडलीकरण व्यापा है और राजनीति पूरी तरह बिग मनी की चेरी बन गई है, उसमें वास्तविक विपक्ष के दर्शन दुलभ हो चले हैं.
दूसरे पहलू पर जायें तो कई प्रेक्षक संभावनाएं जता और अनुमान लगा रहे हैं कि अब नीतीश कुमार कें बिहार से बाहर निकलकर अपनी क्रास पार्टी स्वीकार्यता के बूते राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने और 2024 में ‘नरेन्द्र मोदी से बदला चुकाने’ की संभावनाएं बढ़ गई हैं. उनकी और सोनिया गांधी की कथित भेंट के बहाने, जिसका दोनों पक्षों में किसी ने भी खंडन नहीं किया है, कयास लगाये जा रहे हैं कि कांग्रेस उन्हें 2024 के लिए प्रधानमंत्री पद का साझा विपक्षी उम्मीदवार बनाने में दिलचस्पी लेगी या नहीं.
लेकिन भले ही कांग्रेस बिहार में नीतीश सरकार में शामिल होगी, उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने में दिलचस्पी लेने से पहले उसे इस बहुत बड़े और असुविधाजनक सवाल का सामना करना पडेगा कि ‘चुनाव तो हिटलर भी जीत जाता था’ कहकर राहुल भाजपा से अपनी जिस लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई बताते हैं, उसे नीतीश जैसे अवसरवादियों के भरोसे ही जीतेंगे क्या? तब वे उसे जीत भी लें तो उसको हार में बदलते कितनी देर लगेगी?
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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