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Sunday, 24 November, 2024
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कैसे रहे कश्मीर के बीते तीन साल, 3 अच्छे बदलाव और 3 बातें जो और भी बुरी हुईं

पिछले तीन साल कश्मीर एक समस्या के रूप में सुर्खियों में और चिंता के रूप में हम सबके मन पर छाया नहीं रहा, इसे सबसे महत्वपूर्ण और बेहतर बदलाव माना जा सकता है.

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जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बड़े बदलावों के तीन साल पूरे हो गए हैं. पत्रकारिता की आम पाठशालाओं में आपको सबसे पहला एक सबक यह भी दिया जाता है कि अगर आपकी खबर में तीन बातें एक ही दिशा की ओर संकेत कर रही हों तो मानिए कि आपकी खबर पक्की है. इसलिए हम आज यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि 5 अगस्त 2019 के बाद से वहां कौन-से तीन अच्छे बदलाव आए हैं, कौन-सी तीन बातें ऐसी हुई हैं जो नहीं होनी चाहिए थीं और कौन-सी तीन बातें हैं जो और भी बुरी हो गई हैं.

लेकिन बार-बार कश्मीर की बात ही क्यों? आप में से कई यह सवाल कर सकते हैं कि आज कश्मीर के बारे में सोच भी कौन रहा है? और यही सबसे महत्वपूर्ण बेहतर बदलाव है.

अगर कश्मीर हमारे सोच में गौण हो गया है, वहां हुए बदलावों की तीसरी वर्षगांठ पर मीडिया में अगर उन पर कोई सुर्खियां नहीं बन रही हैं, उनको लेकर टीवी के प्राइम टाइम पर अगर कोई बड़ी बहस नहीं हो रही है या ट्विटर पर वे एक घंटे के लिए भी ट्रेंड नहीं हो रहे हैं, तो इसका मतलब है कि उस नाटकीय और दुस्साहसिक कदम का कुछ ठोस नतीजा निकला है.

इस बारे में थोड़ा शांत मन से विचार कीजिए. पिछले 75 साल में 1972 से 1987 के बीच के थोड़े शांतिपूर्ण दौर को छोड़ दें तो बाकी समय जम्मू-कश्मीर हमारे दिमाग पर और खबरों में एक स्थायी संकट के रूप में छाया रहा है.

यहां ‘हमारे’ का अर्थ है पूरे भारत और खासकर जम्मू-कश्मीर का जनमत. पूरा देश अगर इसे स्थायी रूप से अशांत क्षेत्र के रूप में देखता रहा, तो इस राज्य के लोग खुद को प्रत्यक्ष भुक्तभोगी मानते रहे.

लेकिन कश्मीर अगर हमारे सोच में एक समस्या के रूप में नहीं रह गया है तो यह पहला बड़ा सकारात्मक बदलाव है. कश्मीर मसला हमारी राजनीति पर हमेशा संकट के एक बादल की तरह छाया रहा क्योंकि घाटी, आतंकवाद, अलगाववाद, इस्लाम और पाकिस्तान के बीच बड़ी आसानी से एक समीकरण बना लिया जाता रहा है.

यह हमारे राजनीतिक अखाड़े के एक पक्ष को राष्ट्रीय हित को एक खास तरीके से परिभाषित करने में मदद करता रहा. जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का निधन कश्मीर में हुआ और उनके समर्थकों को उनकी मौत रहस्यमय लगी. इस तरह वे इस मुद्दे को लेकर हमेशा के लिए एक शहीद मान लिये गए. यही वजह है कि दशकों बाद भाजपा में नेतृत्व की होड़ में आगे बढ़ने के लिए मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर में तिरंगा फहराने के लिए दिसंबर 1991-जनवरी 1992 के बीच एक मार्च का नेतृत्व किया. यह और बात है कि उस आयोजन की ऐतिहासिक तस्वीर में नज़र आने वालों में से जिस व्यक्ति ने अपनी हस्ती सबसे ज्यादा बढ़ाई वह उस समय के लगभग गुमनाम युवा कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी हैं.

1989 के बाद से कश्मीर में पाकिस्तान की अकाट्य मिलीभगत से होने वाले सशस्त्र हमले हमारे राष्ट्रीय मानस का हिस्सा बन गए थे और उनका असर हमारी लोक संस्कृति पर भी पड़ा. इसने बॉलीवुड में ‘सनी देओल मार्का’ फिल्मों की बाढ़ ला दी जिनमें पहली बार, मुसलमान को प्रायः बुरा आदमी या आतंकवादी या पाकिस्तानी दलाल के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा.

अब वह चलन कमजोर हो चला है.

एक बात यह भी हुई है कि पिछले तीन साल में चीन और तुर्की को छोड़कर किसी भी महत्वपूर्ण देश ने कश्मीर ‘मसले’ का नाम तक नहीं लिया है. ऐसा लगता है कि खाड़ी के सभी देश और इस्लामी जगत भी इस बात से राहत महसूस कर रहा है कि अब यह कोई मसला नहीं नज़र आ रहा है. ‘ओआईसी’ के बयानों की अब कोई अहमियत नहीं रह गई है. दूसरी वजहों के अलावा, इसकी यह भी एक वजह है कि यह संगठन चीन के यूइगरों के मसले पर तो चुप्पी साधे रहता है लेकिन अपने शिखर सम्मेलन में चीन के विदेश मंत्री को सबसे प्रमुख मेहमान के रूप में निमंत्रित करता है.

इसके बाद पाकिस्तान! इमरान खान ने जी-जान लगा दी लेकिन किसी ने उनकी मुहिम पर ध्यान तक नहीं दिया. भारत के खिलाफ उन्होंने तनाव खूब बढ़ाया, व्यापार बंद कर दिया, अपने देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया. और आज भारत से ज्यादा परमाणु हथियार रखने वाला यह मुल्क सुबह में ‘एफएटीएफ’ के तहत राहत देने की गुजारिश कर रहा है, तो शाम में ‘आईएमएफ’ से चिरौरी कर रहा है कि वह उसे संकट से उबार ले.

सीमा पर शांति हुई है और वह कायम है, यही सारी कहानी कह देती है. आतंकवादी हमले तो जारी रह सकते हैं मगर आज कश्मीर के मामले में पाकिस्तान की कोई अहमियत नहीं रह गई है.

इस उपलब्धि की व्यापक वैश्विक स्वीकृति का एक महत्वपूर्ण नतीजा यह हुआ है कि भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता का समीकरण बदल गया है. पाकिस्तानी निजाम हमेशा यही मानता रहा कि अगर वह भारत को बातचीत करने के लिए मजबूर कर देगा तो उसे कुछ-न-कुछ फायदा तो होगा ही. इसी उम्मीद में वह पिछले दशकों में खुली या गुप्त कार्रवाई करता रहा. यह अब बंद हो गया है. जो हो गया है उसे भारत की कोई भी संसद अब पलट नहीं सकती.


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भाजपा के नेता इस बात पर गर्व करते हैं कि हुर्रियत नेतृत्व नाम के बीते दिनों के उत्पाती उद्यमियों का युग खत्म कर दिया गया है. लेकिन इसके बाद जो खाली जगह बनी है उसके कारण खतरा बना हुआ है. चुनाव कराने की जरूरत है ताकि हरेक सामान्य राज्य को अधिकार के रूप में जो स्वायत्तता हासिल है वह वहां के स्थानीय निर्वाचित नेताओं को भी मिले. मुख्यधारा के अब्दुल्ला, मुफ़्ती और दूसरे नेताओं को प्रतिस्पर्द्धी माहौल मिले. केंद्र सरकार अगर तीन साल बाद भी उसी आशंका से ग्रस्त है, तो यह एक विफलता ही मानी जाएगी.

दूसरी विफलता यह है कि जम्मू-कश्मीर के भीतर सांप्रदायिकता का नया जहर भरा गया है. हाल में जो राजनीतिक कदम उठाए गए हैं उन्होंने हिंदू जम्मू और मुस्लिम कश्मीर के बीच की खाई को और बढ़ाया है. भाजपा अगर जम्मू-कश्मीर में अपना मुख्यमंत्री चाहती है तो यह बिल्कुल जायज है. लेकिन यह मकसद सांप्रदायिक फूट डालकर हासिल करना अब लगभग असंभव है, जब तक कि आप यह न चाहते हों कि चुनावी धांधली और कठपुतली मुख्यमंत्री बनाने का चक्र शुरू हो. यह घाटी में घड़ी की सुई उलटी दिशा में मोड़ देगा और पहले जो होता था वह सब सामान्य बात हो जाएगी.

इन तीन सालों में जो कुछ हासिल हुआ है उसे हम गंवा देंगे. सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया में इतनी देर कर दी गई है कि अब ऐसा लग रहा है कि यह देरी जानबूझकर की गई है.

तीसरी विफलता यह है कि शांति बहाली का घाटी के लोगों को कोई फायदा नहीं पहुंचाया गया है. स्थानीय बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि दहशत में हैं. कई लोगों पर आतंकवाद विरोधी सख्त कानूनों का इस्तेमाल करके उन्हें लंबे समय से जेलों में बंद रखा गया है, कई लोगों को विदेश यात्रा की इजाजत नहीं दी गई है और लोगों को तमाम तरह से परेशान किया जा रहा है. अब तक तो केंद्र सरकार में इतना आत्मविश्वास पैदा हो जाना चाहिए था कि वह लगाम ढीली करती. किसी बड़े क्षेत्र को और लंबे समय से विस्फोटक हालात में रहे क्षेत्र को हमेशा के लिए कड़े नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता. इसका उलटा ही नतीजा निकलेगा.


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पिछले तीन साल में सबसे बड़ा नकारात्मक बदलाव यह हुआ है कि घाटी के युवाओं में अलगाव की भावना और गहरी हुई है. आज का युवा वह नहीं है जो 1960 के दशक का युवा था. ये युवा आधुनिक हैं, प्रायः पढ़े-लिखे हैं और देश के दूसरे हिस्सों (और अगर मैं अपनी नाजुक गर्दन निकालकर कहूं तो हिंदी पट्टी) के युवाओं की तुलना में अपनी बात ज्यादा खुल कर कह सकते हैं.

वे भी प्रतिभाशाली, महत्वाकांक्षी और साइबरस्पेस से जुड़े विश्व नागरिक हैं. सरकार की विफलता या अनिच्छा (या कुछ-कुछ दोनों) ने उनमें गुस्सा भर दिया है. घाटी के किसी वरिष्ठ खुफिया अधिकारी या सेनाधिकारी से बात कीजिए, वे आपको बताएंगे कि आज वहां स्थानीय स्तर पर उग्रवाद को जिलाए रखना कितना आसान हो गया है. लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी ब्रांड विचारधारा और हथियारों का निर्यात करते हैं लेकिन अफसोस कि उनके लिए लोग या अंततः मरने वाले तो भारतीय ही मिलेंगे. यह शर्मनाक है.

इसके अलावा राज्य में बाहर से कोई दर्शनीय निवेश लाने या उद्यमी उपक्रम शुरू करने में भी लगभग पूरी विफलता ही रही. कई घोषणाएं की गईं, कई इरादे जाहिर किए गए लेकिन जमीन पर खास कुछ दिखा नहीं. इसका अर्थ यही हुआ कि मोदी सरकार बाहर के उद्यमियों को अभी तक यह भरोसा नहीं दे सकी है कि कश्मीर सुरक्षित, स्थिर और दूसरे राज्यों की तरह ही है. आखिर, उसका विशेष दर्जा खत्म करने के पीछे मुख्य रणनीतिक और वैचारिक मंशा यही तो थी.

2020 की गर्मियों में जब लद्दाख में तनातनी शुरू हुई थी तब मैंने जो लिखा था, उसके मुताबिक मैं मानता हूं कि कश्मीर के दर्जे में परिवर्तन ने चीनी सेना को हमारे दरवाजे पर लाया. वह आज भी हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर वहां खड़ी है.

चीन इस मामले को जिस तरह देखता है उस तरह देखने की कोशिश कीजिए. चीन सोचता है- भारत ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को बांट दिया. लद्दाख अब केंद्र सरकार के अधीन होगा. हमारे कब्जे में अक्साई चीन लद्दाख के भारतीय नक्शे पर है. मोदी सरकार ने संसद में दावा किया है कि वह उसे हमसे वापस ले लेगी. तो हम खुद ही वहां क्यों न पहुंच जाएं और इन भारतीयों को याद दिला दें कि कश्मीर विवाद में शामिल एक पक्ष हम भी हैं?

मैं इस कदर भ्रमित भी नहीं हूं कि चीन के दिमाग को पढ़ने का दावा करूं. न ही मैं इतना मूर्ख हूं कि यह मान लूं कि चीनी सेना ने अपने एक लाख से ज्यादा सैनिकों के लाव-लश्कर 15 हजार फुट से ज्यादा की चढ़ाई पर पिकनिक मनाने के लिए भेजा होगा. सो, पिछले तीन साल की यह सबसे महत्वपूर्ण और सबसे गंभीर नकारात्मक बात लगती है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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