भारतीय आज़ादी के 75वें साल में अंततः हरेक भारतीय नागरिक को यह औपचारिक ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है कि वह राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान एवं गरिमा प्रदान करे. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के अपने आदेश में हरेक भारतीय नागरिक को राष्ट्रीय झंडा फहराने का अधिकार दिया था मगर राष्ट्रीय झंडे से संबंधित नियम ‘फ़्लैग कोड’ में हाल में किए गए दो संशोधनों ने झंडा फहराने के समय और उसकी उपलब्धता का दायरा बढ़ा दिया है. पहले, इसे केवल सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच ही फहराया जा सकता था और वह खादी का ही होना चाहिए था. अब, झंडे को ’24 घंटे’ फहराया जा सकता है और वह मशीन से बने सूती, पॉलिएस्टर, ऊनी या रेशमी कपड़े का भी हो सकता है.
नरेंद्र मोदी सरकार के इस कार्यक्रम को ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ नामक अभियान के हिस्से के रूप में ‘हर घर तिरंगा’ नाम दिया गया है. इसका मकसद लोगों को आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ को अपने घरों पर राष्ट्रीय झंडा फहराकर मनाने के लिए प्रेरित करना है. लक्ष्य लोगों में देशभक्ति की भावना और राष्ट्रध्वज के बारे में जागरूकता बढ़ाना है.
मीडिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि केंद्र सरकार का इरादा देश भर में झंडे के साथ 20 करोड़ घरों का व्यापक प्रदर्शन करने का है. 1.6 लाख डाकघरों में झंडों की बिक्री की जा रही है. झंडे बनाने वाले खादी केंद्रों, स्व-सहायता समूहों, और लघु व मझोले सेक्टरों की इकाइयों में भी झंडों की बिक्री की जाएगी. इस अभियान की वेबसाइट पर उन बिक्रेताओं के नाम और मोबाइल नंबर प्रदर्शित किए गए हैं. 13 से 15 अगस्त के बीच जिस विशाल पैमाने पर यह अभियान चलाने की कोशिश की जाएगी वह उल्लेखनीय है. लेकिन इसे सामूहिक आयोजनों से व्यक्तिगत आयोजनों में बदलने का जो वैचारिक परिवर्तन किया जा रहा है वह भी उल्लेखनीय है.
तिरंगे का रखरखाव
अब तक यह होता रहा है कि विशेष अवसरों पर सार्वजनिक आयोजन में लोग तिरंगे के इर्दगिर्द जमा होते थे और देशभक्ति की भावना से भरकर मौके के मुताबिक प्रक्रियाएं करते थे. यह तो चलता रहेगा मगर ‘फ़्लैग कोड’ में परिवर्तन के बाद कुछ भारतीय घरों पर निरंतर झंडा फहराता रहेगा और उन्हें ‘झंडा घर’ के रूप में जाना जाएगा.
लेकिन आश्चर्य नहीं कि ‘फ़्लैग कोड’ के मानदंडों के पालन के लिए किए जाने वाले इंतज़ामों और खर्चों के कारण बाद में यह उत्साह ठंडा पड़ जाए. ‘फ़्लैग कोड’ कहता है कि नष्ट या बदरंग झंडा नहीं फहराया जाए, और उसे सम्मानित स्थान पर प्रमुखता से लगाया जाए. इस ‘कोड’ का उल्लंघन करने पर ‘प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट्स टु द नेशनल ऑनर एक्ट 1971’ लागू किया जा सकता है और उसे तीन साल तक की बामशक्कत कैद की सज़ा दी सकती है.
ऐसा लगता है कि साधनसंपन्न लोग ही इन शर्तों का पालन कर सकते हैं. सबसे पहली बात यह कि सत्य और शांति के प्रतीक के रूप में झंडे में जो सफ़ेद पट्टी है वह मौसम की मार और भारत के अधिकांश भागों में उच्च प्रदूषण के कारण जल्द गंदी हो सकती है. इसलिए जल्दी-जल्दी तो नहीं मगर समय-समय पर झंडे को बदलना पद सकता है, जो सबके बस में नहीं हो सकता. भारत में बड़ी आबादी फ्लैटों/ झोपड़ियों/ कुटियों आदि में रहती है जिनमें झंडे को प्रमुखता से सम्मानजनक स्थान पर लगाने की शर्त पूरी नहीं की जा सकती.
झंडा फहराने का दबाव व्यक्तियों पर डालने का यह नतीजा सामने आ सकता है कि उनके बीच असमानता और खुल कर सामने आ सकती है और वह और गहरी हो सकती है. झंडे का मकसद लोगों में एक लक्ष्य के लिए एकता स्थापित करना होता है लेकिन अगर यह उनके बीच की असमानता को उजागर करने का प्रतीक बन जाएगा तो यह शर्म की बात होगी.
इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय समाज में आर्थिक और सामाजिक कुलीन वर्ग नहीं हो सकते, लेकिन उच्च वर्ग वालों को अपनी कोठियों पर प्रमुखता से झंडा फहराने की क्षमता देशभक्ति के मामले में समानता नहीं स्थापित नहीं कर सकती. जो देश अपने करोड़ों लोगों को गरीबी, बीमारी, अशिक्षा से उबारने पर अपनी पूरी ऊर्जा और संसाधन लगा रहा है वहां इससे बचा जाना चाहिए. यह चुनौती तब और बड़ी हो जाती है जब इन प्रयासों को जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते हुए आगे बढ़ाया जाता है.
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जलवायु और निबटारे का मामला
अब जबकि मशीन से बने पॉलीएस्टर कपड़े के झंडे की इजाजत दे दी गई है, आसान उत्पादन और कम कीमत के कारण ये ज्यादा प्रचलित हो जाएंगे. लेकिन याद रहे कि सूती कपड़े के टीशर्ट बनाने में जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है उससे दोगुना उत्सर्जन पॉलीएस्टर कपड़े के टीशर्ट बनाने में होता है. अगर पॉलीएस्टर कपड़े के झंडे का उद्योग चल पड़ा तो जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए कार्बन उत्सर्जन को घटाने के भारत के वादे को झटका लगेगा.
चूंकि हर घर तिरंगा फहराने के आह्वान को प्रधानमंत्री का पूरा समर्थन है तो उम्मीद की जा सकती है कि 13 से 15 अगस्त के बीच हर घर कई आकार के झंडे से भर जाएगा. वे 20 करोड़ झंडे जब बेकार हो जाएंगे तब उन्हेंकिस तरह नष्ट किया जाएगा इस पहलू पर भी विचार करना जरूरी है. ‘फ़्लैग कोड’ के मुताबिक इस झंडे को ऐसे ही, अनादरपूर्वक फेंक नहीं दिया जा सकता, उन्हें इसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही जलाया या नष्ट किया जा सकता है.
जिन लोगों को जल्दी ही इन झंडों को निबटाने की जरूरत महसूस होगी उन्हें निजी तौर पर उन्हें जला कर या दूसरे तरीके से निबटान की चुनौती का सामना करना पड़ेगा. हमारे समाज के अधिकांश हिस्से में जो सामाजिक मानदंड प्रचलित हैं उनके मद्देनजर उम्मीद की जा सकती है कि झंडे चुपके से कचरा निबटारा व्यवस्था के हवाले किए जा सकते हैं. कुछ लोग उन्हें इस पक्के विश्वास के साथ अपने घरों में ही किसी रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं कि सरकार उल्लंघन की जांच करने के लिए घरों में नहीं पहुंचेगी.
अभियान पर गंभीर चिंतन करें
राष्ट्रध्वज जिस पैमाने पर फैल जाएंगे उनके कारण सरकारी एजेंसियों के लिए उनसे संबंधित नियमों के उल्लंघन पर नज़र रखना असंभव हो जाएगा. दूसरी ओर, इसके बहाने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए आसानी से झूठे आरोप लगाए जा सकते हैं और सबूत भी गढ़े जा सकते हैं. जो लोग झंडा नहीं फहराएंगे उन पर उनके राजनीतिक विरोधी ‘राष्ट्र विरोधी’ का ठप्पा भी लगा सकते हैं. आधिकारिक रूप से तो बेशक, भारतीय नागरिकों को तिरंगा फहराने के लिए ‘प्रोत्साहित’ ही किया जाएगा. लेकिन इस झंडा अभियान से आपसी वैमनस्य बढ़ने के खतरा भी जाहिर है.
‘हर घर तिरंगा’ अभियान की गति को धीमा करने के लिए अब काफी देर हो चुकी है. लेकिन झंडे को निबटाने की व्यवस्था बनाने और लोगों को सलाह देने का अभियान शुरू करने के लिए कोई देर नहीं हुई है. इसके साथ ही मोदी सरकार को 15 अगस्त 2022 के बाद अपने इस अभियान को वापस लेने पर विचार करना चाहिए ताकि लोग ’24 घंटे’ झंडा फहराने से परहेज करें. जो संशोधन किए गए हैं उन्हें केवल आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ के लिए सिर्फ एक बार का कदम माना जाए. इन्हें आगे कायम रखना गलत होगा और भारत की वास्तविकताओं की ओर से आंख मूंदना होगा.
सार्वजनिक नीति के दायरे में राष्ट्रीय नैतिकता को लेकर आचरण और उपयोगिता के बीच अंतर किया ही जाना चाहिए. आचरण शास्त्र उद्देश्य और साधन पर ज़ोर देता है जबकि उपयोगिता शास्त्र उपलब्धि पर ज़ोर देता है. ‘हर घर तिरंगा’ के मामले में उपयोगिता वाले पहलू को तरजीह देनी चाहिए. जो भी हो, देशभक्ति नागरिकों के मन की बात होती है, वह झंडे के कपड़े में निहित नहीं होती. प्रतीकात्मकता को वास्तविकता समझने की गलती नहीं की जानी चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
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