दिसंबर में हमने वास्तविकता की जांच करने की एक आदत विकसित की है. लेकिन नए साल की पूर्व संध्या से हम इसे भूल जाते हैं, फिर अगले दिसंबर में हम इस पर विचार करते हैं.
पिछले दिसंबर गुजरात विधानसभा चुनाव ने पूरे देश का ध्यान ग्रामीण संकट की तरफ खींचा था. जीएसटी और पटेलों की नाराजगी के बावजूद शहरी गुजरात भाजपा के साथ खड़ा था, लेकिन ग्रामीण गुजरात इससे बिल्कुल अलग दिखा.
ऐसे समय जब राष्ट्रीय मीडिया में राम, राफेल, सीबीआई, आरबीआई, मोदी और राहुल छाए हुए हैं, सबसे बड़ी स्टोरी भारत का ग्रामीण संकट है. हमें फिर से 11 दिसंबर को ग्रामीण भारत की दिक्कतों के बारे में एक रिमाइंडर मिल सकता है.
यह सिर्फ भाजपा शासित राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की नहीं, बल्कि टीआरएस के नेतृत्व वाले तेलंगाना की भी यही कहानी है. इन चुनावों में मुख्य मुद्दा ग्रामीण संकट है.
इस बात से अलग कि इन चुनावों में कौन जीत हासिल करता है या कौन हारता है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण सीटों पर मतदान कैसे हुआ है. पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए 11 दिसंबर को परिणाम आएगा. अगर 11 दिसंबर के परिणामों में साफ-साफ ग्रामीण और शहरी विभाजन दिखता है तो यह 2019 में नरेंद्र मोदी की संभावनाओं पर असर डालेगा.
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अब तक, भाजपा के मतदाता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच ब्रांड मोदी और भारतीय जनता पार्टी के बीच का अंतर कर रहे हैं. कोई भी ऐसा भाजपा शासित राज्य नहीं है जहां यह कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री की तुलना में अधिक लोकप्रिय हैं- यहां तक कि मध्य प्रदेश में ‘मामा’ शिवराज भी नहीं.
अगर 11 दिसंबर गांव से टूटे हुए कनेक्शन की चेतावनी लेकर आता है तो यह 2019 में मोदी के दोबारा चुने जाने की संभावनाओं पर गंभीर सवाल खड़ा करेगा. ग्रामीण गुजरात द्वारा दी गई चेतावनी के बावजूद केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारों ने ग्रामीण भारत की बेहतर आर्थिकी के लिए कुछ खास नहीं किया है.
अभी इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दिया जा सकता है लेकिन एक अच्छा मौका है कि लोग नरेंद्र मोदी से यह सवाल पूछना शुरू दें.
आंकड़ों पर विचार करें
शहरी और ग्रामीण दोनों भारत आर्थिक मंदी की चपेट में हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में समस्या गंभीर है. ग्रामीण मजदूरी वृद्धि दर तीन सालों में सबसे न्यूनतम स्तर पर है. मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद वास्तविक मजदूरी वृद्धि वर्तमान में नकारात्मक है. दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण भारतीयों के पास अभी बहुत कम क्रय शक्ति है. वास्तव में वास्तविक ग्रामीण मजदूरी वृद्धि दर 10 सालों में सबसे न्यूनतम है.
2016 में जब ग्रामीण आय में इजाफा होता दिख रहा था तब मोदी सरकार ने नोटबंदी की घोषणा कर दी. उसके कुछ समय बाद सरकार ने जीएसटी लागू कर दिया. इन दोनों का प्रभाव ग्रामीण मजदूरी पर बुरी तरह से हुआ.
इन सबके बीच ग्रामीण भारत के लोगों के लिए राहत की बात कम मुद्रास्फीति है जो कि उनके क्रय शक्ति में वृद्धि की कमी को दर्शाता है और शहरी भारत की तुलना में ग्रामीण भारत में मुद्रास्फीति तेजी से कम हो रही है. जबकि ईंधन की कीमतों में वृद्धि ने मुद्रास्फीति में वृद्धि की है लेकिन खाद्य कीमतों में गिरावट जारी है.
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खाद्य मुद्रास्फीति विशेष रूप से कम रही है, यह कम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को दर्शाता है और अब जो वृद्धि भी हुई है, किसानों को उसका फायदा नहीं मिला है.
इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण भारत में भाजपा के समर्थन में धीरे-धीरे कमी आ रही है लेकिन सर्वेक्षणों में तेजी से गिरावट आई है. खाद्य मुद्रास्फीति में कमी से शहरी गरीब खुश हो सकते हैं लेकिन इसकी कीमत किसानों के जेब से जा रही है. अंतरराष्ट्रीय वस्तुओं की कम कीमतों ने खाद्य निर्यात में मदद नहीं की है.
धान और कपास के अलावा, उत्पादन लागत के 1.5 गुना के एमएसपी की घोषणा केवल कागजों पर किया गया वादा है. वादे और वास्तविक बाजार की कीमतों के बीच के अंतर को भरने के प्रयास अभी तक विफल ही रहे हैं.
भारत में इस साल मानसून के सामान्य रहने के बावजूद 640 जिलों में से 200 जिले सूखे का सामना कर रहे हैं. इसमें मध्य प्रदेश और राजस्थान के जिले भी शामिल हैं.
इतिहास खुद को दोहराता है
एक ऐसे समय जब कृषि अर्थव्यवस्था बहुत ही खराब दौर से गुजर रही है तो ग्रामीण भारत के लोग फैक्टरी में नौकरियों के लिए भी पलायन नहीं कर पा रहे हैं. मेक इन इंडिया सिर्फ सपना ही रह गया है. मोदी सरकार ने नरेगा पर ध्यान नहीं दिया जिसने भूमिहीन मजदूरों के जीवन को और कठिन बना दिया है.
हम यह पिक्चर पहने भी देख चुके हैं. मोदीनॉमिक्स कुछ-कुछ बाजपेयीनॉमिक्स जैसी है. 2004 में कृषि वृद्धि दर और वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में कमी हो रही थी. सरकार ने कृषि आय के बजाय बड़े बुनियादी ढांचे पर ध्यान केंद्रित करना चुना. हम जानते हैं कि उसका क्या प्रभाव हुआ.
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पिछले दिसंबर में भाजपा ने ग्रामीण सीटों के हाथ से निकल जाने के बावजूद गुजरात विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी. इसका कारण है कि गुजरात की लगभग 43 प्रतिशत जनता (जनगणना 2011 के अनुसार) शहरी इलाकों में रहती है.
मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा सिर्फ 28 फीसदी, राजस्थान में 25 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 23 प्रतिशत है. अगर इन तीनों राज्यों की ग्रामीण जनता ने पिछले दिसंबर में हुए गुजरात चुनाव की तरह भाजपा को नकार दिया तो पार्टी इन तीनों राज्यों में हार जाएगी. (केसीआर को इस मामले में थोड़ी राहत मिल सकती है क्योंकि राज्य की करीब 40 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्रों में है.)
क्या ब्रांड मोदी ग्रामीण भारतीयों को 2022 तक धैर्य रखने के लिए मना सकता है? हम 11 दिसंबर को जान लेंगे.
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