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Friday, 22 November, 2024
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किस अर्थव्यवस्था ने Covid में सबसे तेज वापसी की- जवाब हैरान करने वाला है, और भारत भी पीछे नहीं

महामारी के पहले साल में भारत का प्रदर्शन खराब रहा मगर वह इससे तेजी से उबरने वाले देशों में रहा लेकिन वैश्विक माहौल बहुत अनुकूल नहीं है इसलिए बहुत आशावादी होना भी ठीक नहीं.

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कोविड महामारी के दौरान किस बड़ी अर्थव्यवस्था ने सबसे अच्छा काम किया, उससे उबरने में तेजी दिखाई, और 2020 से लेकर 2022 तक की अवधि में, 2023 के लिए अनुमानों में बेहतर प्रदर्शन किया? इस दिलचस्प सवाल के कुछ आश्चर्यजनक जवाब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) की ताजा तिमाही की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक’ के आंकड़े दे रहे हैं.

महामारी के बाद आर्थिक वृद्धि दर्ज करने के मामले में सबसे असाधारण प्रदर्शन जिस देश ने किया है वह एक आश्चर्य ही है. उस देश का नाम है तुर्की. आश्चर्यजनक इसलिए कि तुर्की आम तौर पर अपनी मुद्रा की गिरावट और अटपटी मुद्रा नीति के लिए सुर्खियों में रहता है. लेकिन जब आप 2020 और 2021 के इसके व्यापक आर्थिक प्रदर्शन पर गौर करेंगे और 2022 और 2023 के लिए आईएमएफ की भविष्यवाणी पर नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि तुर्की की औसत आर्थिक वृद्धि दर 5.1 प्रतिशत रही, जो कि उन चार वर्षों के लिए सभी देशों के प्रदर्शन से बेहतर रहा.

30 देशों के लिए आईएमएफ के आंकड़ों के मुताबिक तुर्की के बाद चीन का नंबर है जिसकी औसत आर्थिक वृद्धि 2020-23 में 4.55 प्रतिशत रही. चीन के बाद एक और आश्चर्य मिस्र है, जिसकी आर्थिक वृद्धि 4.3 प्रतिशत रही. भारत 3.9 फीसदी के साथ चौथे नंबर पर है. इसके बाद (आपको यह कबूल करने में मुश्किल होगी लेकिन) नंबर संकटग्रस्त पाकिस्तान (3.6 फीसदी) का है. आर्थिक वृद्धि और विकास के कुछ पैमानों के लिहाज से बांग्लादेश असाधारण प्रदर्शन करता रहा है. इस तरह, ऐसा लगता है कि इस्लामी दुनिया ने अच्छी संख्या में विजेता दिए हैं. सऊदी अरब 2022 के लिए सबसे तेज वृद्धि दर्ज करने वाली अर्थव्यवस्था होगी (तेल की कीमतों की बदौलत).


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बड़ा सवाल चीन को लेकर उभरता है, जो कामकाजी आबादी की घटती उम्र के कारण एक मोड़ पर खड़ा है. आईएमएफ ने इस और अगले साल के लिए उसकी औसत वृद्धि 4 फीसदी से नीचे रहने का अनुमान लगाया है. कई दशकों में यह निचले स्तर पर होगी. रियल एस्टेट और वित्त सेक्टरों में जमा समस्याओं के कारण इसकी मैक्रो अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन भी प्रभावित होने लगा है. इसके अलावा, राजनयिक रूप से उग्र पश्चिमी दुनिया इसकी निर्यात आधारित आर्थिक वृद्धि के लिए रोड़ा बन रही है क्योंकि चीनी फ़र्मों पर छापे पड़ रहे हैं और कई तरह के अड़ंगे लगाए जा रहे हैं.

जहां तक भारत के रिकॉर्ड की बात है, महामारी के पहले साल (वित्त वर्ष 2020-21) में वह खराब रहा, क्योंकि इससे पहले वाले साल में उसने पहले ही तेज़ सुस्ती दर्ज की लेकिन बाद में उसने सबसे तेज सुधार दर्ज किया. अगले दो साल के लिए आईएमएफ के अनुमानों के मुताबिक उसकी 30 चुनिंदा देशों की सूची में भारत सबसे तेज वृद्धि दर्ज करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होगा. इस साल और अगले साल औसत वृद्धि 6.8 प्रतिशत रहने का अनुमान है. आईएमएफ का आशावाद कई बहुद्देशीय और निजी भविष्यवक्ताओं ने भी दोहराया है. कुछ घरेलू विश्लेषकों ने मध्यावधि वृद्धि 7.8 प्रतिशत तक रहने का अनुमान लगाया है.

समूह केंद्रित सोच में न फंसने के लिए मान्यताओं पर सवाल उठाना जरूरी है. पांच-पांच साल की केवल दो अवधियां ऐसी रही हैं जब भारत ने तेज वृद्धि दर्ज की थी. पहली अवधि 2003-04 से 2007-08 के बीच की थी, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था स्टेरोइड पर थी और भारत निर्यात में तेज वृद्धि का लाभ उठा रहा था. दूसरी अवधि 2014 से 2019 के बीच की थी, जब तेल की कीमतों में गिरावट के रूप में वृद्धि एक बोनस की तरह हासिल हो रही थी. दोनों अवधियों के बाद तेज सुस्ती का दौर आया था, जो पहले तो वित्तीय संकट की वजह से आई और अब महामारी की वजह से आई है. पिछले तीन वित्त वर्षों में भारत की वृद्धि दर केवल 1.9 फीसदी रही है.

एक तरह से, इस निचले आधार से वृद्धि में तेजी का अनुमान लगाना स्वाभाविक है. इसके लिए यह मान्यता निर्णायक होगी की अर्थव्यवस्था को महामारी से कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा है, और यह भी कि ट्रांसपोर्ट के इन्फ्रास्ट्रक्चर और डिजिटाइजेशन में निवेश से उत्पादकता में वृद्धि होगी. पहली मान्यता पर सवाल उठाया जा सकता है, क्योंकि छोटे और मध्यम आकार के व्यवसाय और रोजगार पर प्रभाव का सबूत उपलब्ध हैं, ज्यादा लोग दूसरे रोजगारों से खेती की ओर मुड़ रहे हैं जबकि इसका उलटा होना चाहिए.

उत्तरी अटलांटिक के इर्द-गिर्द के देशों में आशंकित ठहराव, जिद्दी वायरस, और युद्ध के कारण सप्लाई में अड़चनों के चलते वैश्विक वातावरण भी पूरी तरह अनुकूल नहीं है. इतनी ही वास्तविक हैं तीन घरेलू सीमाएं— जीडीपी के लिहाज से दहाई वाले अंक में पहुंचता वित्तीय घाटा (केंद्र और राज्यों को मिलाकर), चालू खाते का बढ़ता घाटा, सार्वजनिक कर्ज का ऊंचा स्तर जबकि ब्याज दरें बढ़ रही हैं. ये बातें प्रसारवादी वित्त एवं मुद्रा नीति को कठिन बना देती हैं. इसलिए आशावाद के साथ कुछ सावधानी की भी जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड के विशेष व्यवस्था से)


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