सीधे कहानी की बात. अंग्रेजों और उनके पिठ्ठू दारोगा ने शमशेरा के कबीले को बंदी बना लिया और शमशेरा को मार दिया. बरसों बाद उसी शमशेरा के बेटे ने अपने कबीले को आजादी दिलवाई और पिता की मौत का बदला भी लिया.
अब जरा कहानी के भीतर झांकते हैं. 1871 के भारत का एक काल्पनिक शहर है काजा जहां सारे ‘ऊंची जाति’ के लोग अमीर, संपन्न, सुखी, खुशहाल मजे से रह रहे हैं. अंग्रेजी हुकूमत है लेकिन कहीं कोई अत्याचार, कोई दिक्कत, कोई आजादी की सुगबुगाहट तक नहीं. हर तरफ रामराज्य है. बस ये लोग परेशान हैं तो खमीरन नाम के ‘नीची जाति’ के उन लोगों से जिन्हें इन्होंने बस्तियों से दूर जंगलों में रहने को भेज दिया था. ये खमीरन लोग इन अमीर लोगों को लूटते हैं, डाके डालते हैं, इनका पैसा, सोना ले जाते हैं लेकिन पता नहीं उसका क्या इस्तेमाल करते हैं क्योंकि रहते तो ये लोग एकदम गंदे, बिना नहाए, फटे-पुराने कपड़ों में हैं.
अब ये सारे अमीर लोग अंग्रेजों से कहते हैं कि ये लो 50 किलो सोना और हमें इन खमीरन के जुल्म से आजादी दिलाओ. अंग्रेजों का नौकर दारोगा शुद्ध सिंह इन दो-ढाई सौ लोगों को पकड़ कर काजा के किले में कैद कर देता है जहां से भागने की कोशिश में शमशेरा मारा जाता है.
अब हैरानी यह है कि 25 साल बीत जाते हैं और सिर्फ इस काजा के किले को छोड़ कर हर तरफ फिर से सुकून, शांति, सुख-चैन की वर्षा हो रही है. अंग्रेज और हिंदुस्तानी मिल कर रह रहे हैं. बस, काजा के इस किले में इन दो-ढाई सौ लोगों को बेड़ियों से बांध कर पता नहीं क्यों, इन पर अत्याचार किए जा रहे हैं.
एक दिन शमशेरा का बेटा यहां से भाग कर अपना गिरोह बना कर इन्हें आजाद कराने वापस आता है. काजा के करीब नगीना नाम का एक कस्बा है जो मंदिरों का शहर है लेकिन फिल्म कहती है कि लोग यहां अपने पाप छुपाने आते हैं क्योंकि धर्म से बड़ा कोई मुखौटा नहीं होता.
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इतिहास में कल्पनाओं का छौंक लगा कर उम्दा कहानियां बनती रही हैं. मनोज कुमार वाली ‘क्रांति’ और आमिर खान वाली ‘लगान’ इसकी उन्नत मिसालें हैं. इस फिल्म में 1871 का साल दिखा कर इसे आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 से जोड़ने की फूहड़ कोशिश हुई है जिसके द्वारा अंग्रेजी सरकार ने भारत की कई जनजातियों को ‘अपराधी’ घोषित कर दिया था.
फिल्म के शमशेरा का स्टाइल सुल्ताना डाकू वाला है जो बीसवीं सदी के दूसरे दशक में सक्रिय था लेकिन यह फिल्म जिम कॉर्बेट की किताब ‘माई इंडिया’ के उस अध्याय ‘सुल्ताना-इंडियाज रॉबिनहुड’ पर भी आधारित नहीं निकली क्योंकि सुल्ताना अंग्रेजों को लूटता था जबकि खुद को ‘कर्म से डकैत धर्म से आजाद’ कहने वाला शमशेरा हिंदुस्तानी लोगों को ही लूट रहा है. कल्पनाओं का ऐसा भी छौंक क्या लगाना कि आप इतिहास को सिरे से ही गायब कर दें.
अपने तेवर से ‘क्रांति’ और अपने कलेवर से ‘बाहुबली’ व ‘के.जी.एफ.’ लगती यह फिल्म अपने फ्लेवर से ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ हो जाती है जिसमें कभी भी, कुछ भी, कहीं भी हो रहा है और इधर थिएटर में बैठे दर्शक उससे जुड़ाव ही महसूस नहीं कर पा रहे हैं.
न खमीरन पर हो रहे अत्याचार हमें दहलाते हैं, न उनकी बगावत हमें उकसाती है. फिल्म के भीतर ऑफसैट प्रैस से छपे सुंदर हिन्दी में लिखे बैनर दिखते हैं लेकिन फिल्म की लेखिका खिला बिष्ट का नाम पर्दे पर खिला बीस्ट लिखा हुआ आता है. अब बेचारे निर्देशक करण मल्होत्रा हर तरफ तो पैनी नज़र नहीं रख सकते थे न.
रणबीर कपूर बेचारे बहुत मेहनत करते हैं. उनकी मेहनत दिखती भी है. संजय दत्त ने खलनायक के रोल में जान फूंकी है. रोनित रॉय, इरावती हर्षे व अन्य कलाकार सही रहे. सौरभ शुक्ला अपनी अदाकारी और संवाद अदायगी से बेहद प्रभावी रहे. वाणी कपूर पर्दे पर आती हैं तो सुकून मिलता है. फिल्म में गाने बहुत सारे हैं. इतने सारे कि थोड़े ही समय में ये खिजाने लगते हैं. हां, इसके सैट, कम्प्यूटर ग्राफिक्स, कैमरावर्क, एक्शन आदि सब भव्य है. लेकिन उन भव्य संसाधनों का क्या फायदा जो एक कमजोर कहानी को सहारा तक न दे पाएं.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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