नई दिल्ली: दिल्ली पुलिस की हेड कांस्टेबल वंदना दुबे के लिए, ‘तेजस्विनी’ होना एक ‘एड्रेनालाईन रश’ है. तो वहीं हेड कांस्टेबल अनुराधा चौधरी के लिए ये लड़कों और लड़कियों के बीच के भेद को तोड़ने और महिलाओं से ईर्ष्या करने वालों को हराने का रोमांच है.
दुबे और चौधरी जैसी उत्तर पश्चिमी दिल्ली की दर्जनों महिला कर्मियों के लिए, ‘तेजस्विनी’ सशक्तिकरण का वो जरिया है जिसका उन्हें लंबे समय से इंतजार था.
पुलिस उपायुक्त (उत्तर पश्चिमी दिल्ली) उषा रंगनानी के नेतृत्व में तेजस्विनी: महिला केंद्रित सुरक्षा एवं अधिकारिता पहल पिछले साल 10 जुलाई को जिले भर में तैनात 52 महिला बीट कर्मियों के साथ शुरू की गई थी.
दिल्ली पुलिस के अनुसार, इन समर्पित ऑल-वीमेन बीट सिस्टम की वजह से एक साल के भीतर जिले में सड़क अपराध में कुल 37 फीसदी की गिरावट आई है.
तेजस्विनी चोरों, लुटेरों और स्नैचरों को पकड़ने और छेड़छाड़ करने वालों को सही रास्ते पर लाने से लेकर अवैध शराब और अवैध हथियारों के व्यापार पर नकेल कसने तक सब कुछ करती हैं. बीट पुलिस कर्मी लगभग 3 किलोमीटर के अपने निर्धारित ‘संवेदनशील बीट्स’ दायरे में काम करती हैं. इसमें जहांगीरपुरी, शकूरपुर की झुग्गी-झोपड़ी और पीतमपुरा के आवासीय क्षेत्र, भलस्वा गांव, बाजार और मॉल परिसर, मेट्रो स्टेशन, स्कूल और कॉलेज शामिल हैं.
चौधरी ने कहा, ‘फील्ड ड्यूटी करना सिर्फ पुरूषों का काम नहीं है.’ उन्होंने बताया कि एक्शन फिल्मों में महिला पुलिस अधिकारियों की भूमिका निभाने वाली कई अभिनेत्रियों को देखकर उन्हें बल में शामिल होने की प्रेरणा मिली.
वह पूरे जोश के साथ कहती हैं, ‘हम उनसे कैसे अलग हैं? हम दौड़ सकते हैं, हम लड़ सकते हैं, हम जांच कर सकते हैं और फिर हम घर वापस जाकर अपनी अन्य जिम्मेदारियों को भी पूरा कर सकते हैं.’
आदर्श नगर पुलिस स्टेशन के शिकायत डेस्क पर बैठी दुबे ने बताया की वह कब से इस दिन का इंतजार कर रही थी, जब वह खाकी वर्दी पहनकर शहर भर में घूमते हुए अपराधियों से लड़ सके.
दिप्रिंट से बात करते हुए, रंगनानी ने कहा कि तेजस्विनी पहल ‘महिला पुलिस कर्मियों को सशक्त बनाने के लिए शुरू की गई थी. इसमें मुख्य रूप से महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण पर ध्यान दिया गया है.’
उन्होंने कहा,’पहले भी महिला बीट पुलिस थी. लेकिन उनकी भूमिका ज्यादातर कागजी कार्रवाई तक ही सिमटी हुई थी. उनके लिए इतना ज्यादा फील्ड वर्क नहीं था.’
वह आगे कहती हैं, ‘इस सिस्टम में तेजस्विनी अपने पुरुष समकक्षों की डमी नहीं हैं. वे फील्ड में जाती हैं, अपराधियों से लड़ती हैं और मामलों की खोजबीन भी करती हैं.’
यह समझने के लिए कि वे कैसे अपने काम को अंजाम देती हैं, उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ता है और कैसे वे अपनी हिम्मत और बहादुरी से घर, कार्यस्थल और सड़कों पर पितृसत्ता को चुनौती देती हैं, दिप्रिंट ने आदर्श नगर पुलिस स्टेशन में तैनात दो तेजस्विनी दुबे और चौधरी के साथ एक दिन बिताया.
दुबे पिछले 13 साल और चौधरी 16 साल से पुलिस बल में तैनात है. उन दोनों के लिए एक सामान्य दिन है. वो सुबह 6 बजे जल्दी उठती हैं और घर के कामों को निपटाकर अपनी स्कूटी से सुबह 9 बजे तक थाने पहुंच जाती हैं.
वो पुलिस स्टेशन में पहले एक घंटा दर्ज शिकायतों की सूची पर नजर डालने में बिताती हैं. जिसके बाद शिकायतकर्ताओं को कर्मियों से मिलने के लिए दिन में उनसे मिलने आने का सही समय दिया जाता है. जैसे ही घड़ी में 10 बजते हैं,ये दोनों तेजस्विनी अपने-अपने बीट्स पर गश्त करने के लिए निकल पड़ती हैं.
दोपहर करीब 12.30 बजे, वे अपने इलाके के स्कूल के छोटे बच्चों को सड़क पार करने और घर जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन पर चढ़ने में मदद करने के लिए पहुंच जाती हैं. इसके तुरंत बाद वे क्षेत्र के वरिष्ठ नागरिकों से मिलने जाती हैं, उनके स्वास्थ्य की जांच करती हैं और उनसे उनकी परेशानियों के बारे में पूछती हैं. यहां तक कि जरूरत पड़ने पर कभी-कभी उनके लिए किराने का सामान और दवाओं जैसी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था भी करती हैं.
दोपहर 2 से 5 बजे का समय शिकायतकर्ताओं से मिलने का होता हैं. शाम को गश्त पर बाहर जाने से पहले इसी बीच उन्हें अपने लिए लंच करने का समय भी निकालना है.
कई बार तो अपने काम की वजह से उन्हें घर लौटते हुए आधी रात हो जाती है. और तब बच्चों से बात करने का समय भी उनके पास नहीं होता. जिस दिन वे रात 9 बजे तक घर पहुंचती है तब जरूर उन्हें बच्चों के साथ आधा घंटा बिताने के लिए मिल जाता है. वैसे आमतौर पर बच्चे उनके आने से पहले अपना ट्यूशन, अपना होमवर्क सब पूरा कर चुके होते हैं.
चौधरी ने कहा, ‘यह आसान नहीं था. जब उषा मैडम ने इस नए सिस्टम के बारे में घोषणा की, तो हम रोमांचित थे. हालांकि सभी खुश नहीं थे. हमारे परिवार के कुछ लोगों ने मुंह बनाया, कुछ पुरुष पुलिसकर्मियों ने हमें ताना मारते हुए कहा, ‘दस दिनों की बात है बस, वापस जाएंगी डेस्क पे’
दुबे ने कहा, ‘लेकिन हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा. समय के साथ लोग हमारा सम्मान करने लगे और हमारे साथ काम करने लगे.’ उन्होंने कहा ‘अब हमारी बीट में हर कोई हमारी ओर देखता है.’
रूढ़ियों को तोड़ना
दूबे ने अपनी स्कूटी की सीट को कपड़े से साफ किया और सड़क की ओर चल निकली. उन्होंने बताया, ‘इसकी स्पीड काफी ज्यादा है. हममे से जिसे भी बाइक चलानी आती है, उन्हें ये दी जाती है.’
दो हफ्ते पहले दिल्ली की रहने वाली 38 साल की एक महिला ने एक तेजस्विनी को हरकत में आते हुए देखा.
ममता एक बस स्टॉप पर खड़ी थीं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘कुछ लड़के मुझे परेशान करने लगे.’
बस स्टॉप के पास से गुजर रही दुबे ने देखा कि कुछ तो गड़बड़ है. वह रूक गईं. उसने शुरू में लड़कों से माफी मांगने और मौके से जाने के लिए कहा. जब उन्होंने नहीं सुना तो तेजस्वनी को अतिरिक्त बल बुलाकर उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा. दुबे ने कहा, ‘उसके बाद वो फिर कभी इस इलाके में नजर नहीं आए.’
ममता ने बताया कि वह ड्यूटी पर महिला बीट कर्मियों के होने पर स्टेशन पर आने में अधिक सहज महसूस करती हैं. उन्होंने कहा, ‘कुछ बाते हैं जो हम पुरुष अधिकारियों के सामने कहने में हिचकिचाते हैं.’
अपनी पत्नी मोहिनी और अपनी दो बेटी के बच्चों के साथ दिल्ली में रहने वाले एक नब्बे साल से ऊपर की उम्र के बुजुर्ग हेमराज वाधवा ने बताया कि उनके लैंडलाइन सेवा देने वाले कुछ ‘शरारती कर्मचारी’ नियमित रूप से उनका टेलीफोन कनेक्शन काट देते थे. फिर उन्होंने तेजस्विनी के पास शिकायत दर्ज कराई और इसके कुछ समय बाद ही उनकी समस्या का समाधान हो गया.
तेजस्विनी का कहना है कि अपनी वर्दी के बावजूद उन्हे अक्सर सड़कों पर लोगों की रूढ़िवादी सोच से लड़ना पड़ता है.
चौधरी ने बताया ‘एक बार मैंने स्कूटी सवार एक नाबालिग लड़की को रोका. उसके पिता दूसरी स्कूटी पर थे. मैंने उनसे कहा कि गाड़ी चलाने के लिए अभी उसकी उम्र काफी कम है और उसने हेलमेट भी नहीं पहना है. ये गैरकानूनी है. उन्होंने सपाट से मुझे जवाब दिया- आप अपने काम से काम रखिए.’
‘उसका मेरे साथ अटपटा व्यवहार सिर्फ इसलिए था क्योंकि वह एक महिला बीट पुलिसकर्मी से बात कर रहा था. जैसे ही (पुरुष) असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर आए, उसका लहजा बदल गया.’
अपराधियों का सामना करने के अलावा, तेजस्विनी छात्रों को ‘गुड टच और बैड टच’ के बारे में शिक्षित करने और आत्मरक्षा तकनीकों में छात्राओं को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूलों का भी दौरा करती हैं.
डीसीपी रंगनानी ने कहा, ‘महिलाएं स्वतंत्र रूप से काम कर सकती हैं, अपराधियों को हैंडल कर सकती हैं और अपराध दर को कम कर सकती हैं. उन्होंने पितृसत्ता और सामाजिक मानदंडों की बेड़ियों को तोड़ दिया है. वो बेड़िया जो कुछ हद तक महिलाओं की भूमिका को एक डेस्क के पीछे तक सीमित कर देती हैं.’
दुबे और चौधरी कहती हैं कि अपनी नौकरी के साथ-साथ उनके घर का माहौल भी बदला है. हालांकि आज भी घर के ज्यादातर काम वही करतीं हैं लेकिन अब उनके पार्टनर इसमें सहयोग करने लगे हैं.
रंगनानी ने कहा, ‘महिला बीट कर्मियों के सामने आने वाली बाधाओं को समझना होगा – अपनी रूटीन की 10 से 5 की नौकरी को एक तरफ रख कर, अपने स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के साथ सड़कों पर ड्यूटी करने के लिए बाहर आना आसान नहीं था.’
उन्होंने बताया, ‘जब वे ड्यूटी पर आती हैं तो अपने परिवार को पीछे छोड़ देती हैं. परिवार में एक मां, पत्नी, बहू और न जाने कितनी भूमिकाएं उन्हें निभानी होती हैं. हो सकता है कि कुछ के पास घर में अच्छा सपोर्ट सिस्टम न हो.’ वह आगे कहती हैं, ‘लेकिन इस सब के बावजूद वे अपनी भूमिकाओं में खरी उतरती हैं और साबित कर देती हैं कि फील्ड ड्यूटी सिर्फ एक आदमी का काम नहीं है.’
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