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Tuesday, 17 December, 2024
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नेहरू ने कैसे धारा 19(1)(ए) के साथ ‘शर्तें’ जोड़ दीं और भारत, आजादी के द्वार तक पहुंचने में भटक गया

संसद में बोलने की आजादी पर 16 दिन तक चली बहस में जवाहरलाल नेहरू के सामने खड़े थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी. दोनों की बहस की गूंज आज भी भारत को सता रही है, चोट पहुंचा रही है.

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संसद का माहौल उदास था. वो 29 मई 1951 का दिन था, जो भारत के संविधान में पहला संशोधन लाने के लिए 16 दिन तक चली गर्मा-गरम बहस का 14वां दिन था. एक ओर मेजों की थपथपाहट और भाषणों में बाधा डालतीं संसद के सदस्यों की तीखी आवाजें थीं और दूरी ओर था बढ़ता गुस्सा.

दो हफ्ते से अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बड़े जोश के साथ, बोलने की आजादी की गारंटी देने वाली धारा में ‘बदलावों’ की पैरवी कर रहे थे, जो उनकी राय में तत्काल रूप से जरूरी थे लेकिन ये बदलाव जिन्हें वो छोटे और सरल बता रहे थे, यह उन आजादियों में काट-छांट करने वाले थे जिनका देश- और उसकी प्रेस ने- भारत की आजादी के सिर्फ 46 महीनों के भीतर, लाभ उठाना शुरू ही किया था.

जोश से भरे नेहरू ने संसद में कहा, ‘दुनिया में हर आजादी की एक सीमा होती है’. उनका कहना था कि इसीलिए प्रेस पर लगाम लगाने की जरूरत है. उनकी दलील थी कि अगर प्रेस को आजादी का लाभ उठाना है तो उसे ‘बैलंस ऑफ माइंड’ होना चाहिए, जो उसमें शायद ही कभी होता है. उन्होंने आगे कहा, ‘वो दोनों का लाभ एक साथ नहीं ले सकती- आजादी रहे लेकिन संतुलन नहीं’.

इतिहास में शायद पहली बार आचार्य कृपलानी जैसे गांधीवादी, जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दक्षिणपंथी नेता, भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक साथ खड़े हो गए. मुठ्ठियां भींची गईं, मेजें थपथपाई गईं और अपशब्द कहे गए. आजादी की ये लड़ाई संसद से बाहर भी आ गई. उसे अखबारों के संपादकीयों, अदालतों के भीतर, चौराहों और सड़कों पर भी लड़ा गया. लेकिन 18 जून 1051 को 228 की हां, 20 की ना और 50 के वोट न करने के साथ, संशोधनों को पारित कर दिया गया. नेहरू जीत गए लेकिन ये वो दिन था, जब भारत आजीदी के द्वार का रास्ता भटक गया.

धारा 19(1)(ए) पर लगी बंदिशों ने देश के सामाजिक और राजनीतिक आकार को ही बदल दिया है. और उस बहस की गूंज आज भी भारत को सता रही है, चोट पहुंचा रही है. सलमान रुश्दी की सैटनिक वर्सेज़ से लेकर एमएफ हुसैन की पेंटिंग्स तक, लीना मणिमेकलई की काली की व्याख्या से मोहम्मद ज़ुबैर के ट्वीट्स तक, कन्हैया कुमार के भाषणों से लेकर प्रशांत भूषण के हाथों भारत के चीफ जस्टिट की आलोचना तक, विचारों और अभिव्यक्ति की आजादी हमेशा विवाद का विषय बनती रही है.


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मानदंडों को कैसे कम किया गया

त्रिपुर्दमन सिंह अपनी किताब सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज में बहुत बारीकी से लिखा है कि पहला संशोधन कैसे लाया गया, कहते हैं कि संशोधन से पहले बहुत से कानूनों की, जिनका इस्तेमाल सरकार प्रेस को दबाने के लिए कानूनी तौर पर किया जाता था- जैसे जन सुरक्षा क़ानून- कोई संवैधानिक पवित्रता नहीं थी.

वो लिखते हैं कि ‘संविधान ने मानदंडों को काफी ऊंचा रखा था’. मसलन, किसी को जेल नहीं भेजा जा सकता था जब तक साबित न हो जाए कि उसकी गतिविधियां राज्य को उखाड़ फेंक सकती हैं. लेकिन संशोधन इन कानूनों को वापस ले आए. अब, राज्य को उखाड़ फेंकने की बजाए, अगर सरकार को लगता है कि किसी व्यक्ति की गतिविधियां राज्य की सुरक्षा के हित में नहीं हैं तो उसे दंडित किया जा सकता है.

सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘नेहरू को लगा कि वो इन कानूनों को अगली पीढ़ी के लिए आगे बढ़ा रहे हैं और उन्होंने संसद से कहा कि उसे उनपर भरोसा करना चाहिए’.

लेकिन इन दमनकारी कानूनों को फिर से लाने की लड़ाई आसान नहीं थी. संशोधन पारित होने से पहले के दिनों में राष्ट्रवादी नेताओं के बीच के मतभेद साफ देखे जा सकते थे.

मतभेद

संसद में पश्चिम बंगाल का प्रतिनिधित्व करने वाले संविधान सभा के सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने अपने लंबे भाषण में कहा कि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत सबसे विवादास्पद धारा राजद्रोह को फिर से ले आया जाएगा, जिससे देश दोबारा से औपनिवेशिक काल में चला जाएगा.

हालांकि नेहरू को कांग्रेस नेताओं रेणुका रे, कृष्ण चंद्र शर्मा और एमपी मिश्रा का समर्थन हासिल था लेकिन निर्दलीय सदस्यों एचएन कुंजरू और रामनारायण सिंह समेत विपक्षी सदस्य हुसैन इमाम ने उनकी दलीलों की धज्जियां उड़ा दीं. केटी शाह जैसे नेताओं ने भी कड़ी टक्कर दी.

नेहरू का सबसे कड़ा विरोध मुखर्जी की ओर से हुआ. उन्होंने कहा, ‘आप संविधान के साथ एक कागज के टुकड़े जैसा व्यवहार कर रहे हैं’.

अपनी किताब में सिंह लिखते हैं कि नेहरू और मुखर्जी के बीच तर्क इतने आक्रामक हो गए कि एक समय नेहरू ने उन्हें सीधी लड़ाई की चुनौती भी दे डाली.

गुस्साए नेहरू ने मुखर्जी को झूठा तक कह डाला था, ‘मैं कहता हूं कि ये विपक्ष एक सच्चा विपक्ष नहीं है, एक भरोसेमंद विपक्ष नहीं है, वफादार विपक्ष नहीं है. मैं जानबूझकर ऐसा कह रहा हूं’.

मुखर्जी ने पलटकर जवाब दिया, ‘आपका बिल एक सच्चा बिल नहीं है. आपकी असहनीयता निंदात्मक है’. उन्होंने नेहरू को एक तानाशाह और एक कट्टर साम्यवादी तक कह डाला, जो देश के बंटवारे के लिए ‘जिम्मेदार’ थे.

संसद के बाहर पीएम के कदम की सभी ओर से आलोचना हुई. बार एसोसिएशन ने संविधान में संशोधनों को अलोकतांत्रिक और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ बताया. पूर्व जजों एसपी सिन्हा और एनसी चटर्जी ने भी सार्वजनिक मंचों से उसके खिलाफ बोला. गांधीवादी और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी, जिन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने नेहरू को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया.

विश्व-स्तर पर भी नेहरू को आलोचना करने से नहीं छोड़ा गया. सिंह कहते हैं, ‘पहली बार, अलग-अलग सियासी सोच के समूह, जैसे समाजवादी, पुराने विचारों के उदारवादी और गांधीवादी, सब संशोधन के विरोध में आ गए. संविधान को लागू हुए केवल 16 महीने हुए थे और ये एक अस्थायी संसद थी जिसने संशोधन का बिल पेश किया था. तब तक आम चुनाव नहीं हुए थे. ये एक वैश्विक कहानी भी थी. संशोधन लाने के लिए पश्चिम में भी नेहरू की आलोचना की गई’.

अगले दिन टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी, ‘बहस में ड्रामा डालने के लिए, जो इतिहास में दर्ज होने वाला था, संसद के भीतर भी बारिश हो रही थी जिससे बहुत से सांसद भीग गए और बिजली भी चली गई. संविधान सभा के सदस्य एचवी कामथ ने टिप्पणी की, ‘बोलने की आजादी छीनी जा रही है और ये तूफान उसी पर उठा है’.


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न चूकने योग्य विडंबना

त्रासदी ये है कि भारत के पास कभी संपूर्ण आजादी थी ही नहीं. 200 साल के अंग्रेजी राज को कुचलने के बाद एक लिखित संविधान का भारतीय नागरिकों के लिए आजादी का निर्धारण करना अपने आप में एक उपलब्धि थी. इस आजादी के केंद्र में थे मौलिक अधिकार- जिनमें अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी भी शामिल थी. सांसदों ने बड़े उत्साह के साथ उसका स्वागत किया था, जिनमें से बहुत से ख़ुद कभी ब्रिटिश राज के अंतर्गत बोलने की आज़ादी को विनियमित करने वाले, दमनकारी क़ानूनों का शिकार हो चुके थे.

26 जनवरी 1950 को जब संविधान को अपनाया गया, तो उसे भारत के लिए एक नए सवेरे के रूप में देखा गया. सदस्यों की तालियों के बीच संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष और कानून एवं न्याय मंत्री बीआर आंम्बेडकर ने कहा कि उसी दिन असली मायनों में आजाद होगा.

विडंबना ये है कि संविधान में दी गई बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी कभी संपूर्ण नहीं थी. अनुच्छेद 19(1)(ए) जिसमें ये अधिकार दिया गया है धारा (2) की बंदिशों के साथ आता है.

बोलना निंदा, बदनामी, मानहानि, कोर्ट की अवमानना की सीमाओं के अंदर होना चाहिए या कोई भी ऐसा मामला जो शालीनता या नैतिकता को ठेस पहुंचाता हो या जो राज्य की सुरक्षा को कमज़ोर करता हो या उसे उखाड़ फेंकने की प्रवृत्ति रखता हो.

आरएसएस विचारक अरुण आनंद का कहना है कि सत्ताधारी सरकार ने कहा कि उन्हें बहाल हुई शक्तियों को बनाए रखने के लिए ये प्रतिबंध काफी नहीं हैं. नेहरू और कांग्रेसियों की फौज ने, जिनमें संविधान निर्माता आंम्बेडकर भी शामिल थे, संशोधनों को आगे बढ़ाया.

लेकिन मुखर्जी जैसे लोग अंतिम समय तक इसके लिए लड़े. उन्होंने संसद के पटल पर कहा, ‘…प्रधानमंत्री ये कहने की कितनी भी कोशिश करें कि ये बदलाव बहुत सरल हैं, इन्हें लेकर कोई विवाद नहीं है, लेकिन अपनी पूरा जीवन आजादी के पैरोकार रहने के बाद वो जानते हैं और वो दिल से समझते हैं कि वो जो करने जा रहे हैं वो संविधान के मूल सिद्धांतों की जड़ों को काटने से कम कुछ नहीं है, जिसे ढाई साल पहले पारित कराने में उन्होंने किसी भी दूसरे व्यक्ति से ज्यादा काम किया था’.

कई मोर्चों पर लड़ाई

1952 में भारत में पहले आम चुनाव कराए जाने थे. देश के बहुत से हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव भड़क रहा था और पूरी दुनिया देख रही थी. सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज में सिंह कहते हैं कि एक सामाजिक और राजनीतिक रूप से बदले हुए भारत की नेहरू की परिकल्पना को रास्ता दिखाने की बजाए, संविधान जल्द ही कांग्रेस के लिए एक बाधा बन गया.

सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, ‘खुद संविधान के बनाने वाले ही ‘अब बहुत अधिक स्वतंत्रता’ के खिलाफ लामबंद हो गए. नेहरू का समाधान बिल्कुल सीधा था- संविधान को सरकार की इच्छा के अनुसार मोड़ा जाए, अदालतों पर काबू पाया जाए और आगे किसी भी न्यायिक चुनौती को पहले से ही रोक दिया जाए. उनके विचार में व्यापक सामाजिक नीति सरकार को ही तय करनी है और अदालतों या संविधान किसी को भी इसके रास्ते में आने की अनुमति नहीं दी जा सकती’.

चुनावों से पहले, नेहरू कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे थे और संविधान में संपत्ति के अधिकार, उचित मुआवजे और रोजगार जैसे मौलिक अधिकारों में संशोधनों को आगे बढ़ा रहे थे.

एक स्वतंत्र भारत के नागरिक उनकी बात मानने को तैयार नहीं थे. अपने नए अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए, जमींदार, ऊंची जातियों के मेधावी छात्र, राजनीतिक बंदी और प्रेस, अपनी राज्य सरकारों को अदालत में खींचकर ले गए.

जिस गंभीरता से अदालतों ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सही ठहराया, वो उन ऐतिहासिक फैसलों में नजर आती है जो जनवरी और अक्टूबर 1950 के बीच में सामने आए. मसलन, पटना हाईकोर्ट ने जमीदारी प्रथा खत्म करने और भूमि सुधार लाने के लिए, दो दशकों से चल रहे सरकार के अथक प्रयासों को रद्द कर दिया. कोर्ट ने कहा कि जमींदारों के पास संपत्ति और उचित मुआवजे के मौलिक अधिकार हैं. कोर्ट ने कहा कि शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों का आरक्षण असंवैधानिक है.

सरकार या कांग्रेस की आलोचना करने वाले लोगों, प्रकाशनों, लड़ाई या क्रांति की आवाज़ उठाने वालों को, अब सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता था. बोलने की आजादी बहुत सी लड़ाइयों में से बस एक थी.


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वरीयता तय करना: अदालतें और प्रेस

1950 में, जिस दिन वो वजूद में आया, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने दो ऐतिहासिक फैसले दिए, जिन्होंने अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत प्रेस की आजादी का रास्ता साफ कर दिया. उसने साम्यवादी पत्रिका क्रॉस रोड्स और आरएसएस मुखपत्र ऑर्गनाइजर के पक्ष में फैसला सुनाया.

बॉम्बे से रोमेश थापर द्वारा संपादित और प्रकाशित क्रॉस रोड्स में, सेलम सेंट्रल जेल में बंद 200 कम्यूनिस्ट कैदियों पर बेरहमी के साथ गोली चलाए जाने पर कांग्रेस और मद्रास सरकार की निंदा करते हुए सिलसिलेवार लेख लिखे गए.

बंदी चाहते थे कि उनके साथ अपराधियों की बजाय राजनीतिक बंदियों जैसा सलूक किया जाए. लेकिन जब उन्होंने विरोध किया और कथित रूप से पुलिस पर हमला किया, तो पुलिसकर्मियों ने उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया और उनपर गोलियां चला दीं. बाईस लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए.

राज्य सरकार ने मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट के अंतर्गत पत्रिका पर पाबंदी लगा दी. उसे बॉम्बे में भी प्रतिबंधित कर दिया गया था (हालांकि बाद में कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी गई). थापर की बहन रोमिला थापर ने भी, जो आगे चलकर भारत की एक बहुत प्रख्यात इतिहासकार बनीं, एक लेख में मज़दूर यूनियन के लोगों पर पुलिस कार्रवाई की आलोचना की.

इस बीच, पश्चिम बंगाल सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया था और वहां के खून-खराबे के लिए ऑर्गनाइज़र ने नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान का मजाक उड़ाया. पत्रिका में नेहरू और लियाकत का उपहास करते हुए कार्टून छापे गए. सिलसिलेवार लेखों में उसने मांग उठाई कि मुस्लिम विस्थापितों की संपत्ति हिंदू शर्णार्थियों के दे दी जानी चाहिए. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता जो अभी कांग्रेस में ही थे और हिंदू महासभा के महासचिव महंत दिग्विजयनाथ (गोरखपुर मठ के) ने ऑर्गनाइजर का समर्थन किया साथ ही भारत और पाकिस्तान के फिर से एकीकरण और ‘अखंड भारत’ के गठन की मांग उठाई.

इस मीडिया कवरेज ने ऐसे समय पाकिस्तान को हिला दिया, जब नेहरू और लियाकत एक शांति समझौते पर बातचीत कर रहे थे. सरकार ने कार्रवाई करने का फैसला किया.

नेहरू को एक बड़ा झटका देते हुए, 26 मई 1950 को सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास में क्रॉस रोड्स पर पाबंदी लगाने के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि न तो राज्य की सुरक्षा कमजोर हुई थी और ना ही राज्य को उखाड़ फेंका गया. उसने मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट और पूर्वी पंजाब सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम को अधिकार-क्षेत्र से बाहर घोषित करते हुए अमान्य करार दे दिया. ऑर्गनाइजर के मामले में, कोर्ट ने पूर्व-सेंसरशिप आदेश को खारिज कर दिया और अधिनियम के कुछ हिस्सों को अवैध करार दे दिया.

भारत के दूसरे हिस्सों में भी इसी तरह की घटनाएं हो रहीं थीं. बिहार में, भारती प्रेस की मालकिन शैला बाला देवी ने क्रांति का आह्वान करते हुए एक पर्चा छाप दिया. पटना हाईकोर्ट ने कहा कि इस परचे से राज्य की सुरक्षा कमजोर नहीं होती.

जहां ये मामले बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार, प्रेस द्वारा आजादी का लाभ लेने की समझ और व्याख्या को अधिक स्पष्ट कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर सरकार की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

सिंह अपनी किताब में लिखते हैं कि संशोधनों से पहले की घटनाएं नेहरू को परेशान कर रहीं थीं. अदालतें उन सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियमों को अवैध करार दे रहीं थीं जिनका इस्तेमाल सरकार विरोधियों को हिरासत में लेने और विद्रोहों को दबाने के लिए कर रही थी.

पंजाब में हाईकोर्ट ने एक अकाली नेता और नेहरू के मुखर आलोचक मास्टर तारा सिंह को रिहा कर दिया था, जो क्रमश: भारतीय दंड संहिता की धाराओं 124ए तथा 153ए के तहत, राजद्रोह और दो संप्रदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के आरोप में करनाल जेल में बंद थे. आज़ाद होने के बाद उन्होंने संकल्प लिया कि वो नेहरू और उनके प्रस्तावित संशोधनों के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करेंगे.

जज ने कहा, ‘राजद्रोह कानून जिसे विदेशी शासन के दौर में आवश्यक समझा गया था अब उस बदलाव के नेचर से ही अनुचित हो गया है जो सामने आया है’.

नेहरू बोलने की आजादी पर बंदिश लगाने की जरूरत पर और अटल हो गए. सिंह लिखते हैं कि नेहरू को लगा कि अदालतें प्रेस को जे खुली छूट दे रही हैं, वो उनके खिलाफ जा रहा था.

अरुण आनंद कहते हैं, ‘नेहरू एक सत्तावादी राजनीतिज्ञ थे. वो चुनाव जीतना चाहते थे. हालांकि उस समय उनकी मंशा गलत नहीं थी लेकिन उनका तरीका गलत था. वो आलोचना सहन नहीं कर सकते थे. उन्होंने तमाम दूसरे ताकतवर नेताओं को किनारे कर दिया और वो अपना एजेंडा आगे बढ़ाना चाहते थे’.

नेहरू की अपनी पार्टी का समर्थन कम हो रहा था. एचवी कामथ, श्यामनंदन सहाय, और देशबंधु गुप्ता जैसे सदस्यों ने उनका विरोध शुरू कर दिया था. 15 मई 1951 को कांग्रेस संसदीय दल की एक बैठक में गुप्ता ने अनुच्छेद 19 में प्रस्तावित संशोधन का विरोध किया.

नेहरू का बचाव

यही घटनाएं थीं जिनकी पृष्ठभूमि में नेहरू ने संसद में संशोधन पेश किया.

उन्होंने संसद में कहा, ‘एक ऐसा संविधान जो अपरिवर्तनीय और स्थिर है. भले ही वो कितना भी अच्छा हो, कितना भी परफेक्ट हो, वो एक ऐसा संविधान है जो अब काम का नहीं रहा है. ये पहले से ही बूढ़ा होने लगा है और आहिस्ता आहिस्ता अपनी मौत की तरफ बढ़ रहा है. जिंदा रहने के लिए संविधान को विकसित होते रहना चाहिए, उसे अनुकूलनीय, लचीला और परिवर्तनशील होना चाहिए’.

संसद सदस्य राजी नहीं थे. नजीरुद्दीन अहमद ने सवाल उठाया, ‘पीएम कहते हैं कि संविधान को विकसित होना चाहिए…लेकिन किस दिशा में बढ़ना चाहिए? मौलिक अधिकारों को बढ़ाने की दिशा में या उनमें कटौती करने की दिशा में?’

हाल की घटनाओं में उसका जवाब मौजूद है. 1951 के 16 दिनों में संसद के पटल पर क्या हुआ उसने आज समाज में अपनी गहरी जड़ें बना ली हैं.

दि वीक की रिपोर्ट के अनुसार, अपराध के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि धारा 153ए के अंतर्गत समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के सिलसिले में दर्ज मामलों की संख्या, 2014 से 2020 के बीच छह गुना बढ़ गई है. 323 मामलों से ये संख्या उछलकर 1,804 हो गई है. 2018 से 2020 के बीच ऐसे मामलों में सबसे अधिक बढ़ोतरी तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, असम, तेलंगाना, और केरल जैसे राज्यों में देखी गई है.

मई में, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर रतन लाल ने वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मुद्दे पर अपने ट्वीट में, शिवलिंग को पत्थर से बनी एक बेलनाकार (सिलिंड्रिकल) वस्तु लिख दिया तो हिंदू समूहों की शिकायत पर उनके खिलाफ समुदायों के बीच नफरत फैलाने का मुकदमा दर्ज कर लिया गया. और जब पैगंबर मोहम्मद पर बीजेपी प्रवक्ता नुपुर शर्मा की टिप्पणियां वायरल हुईं, तो समाज के बहुत से वर्गों की ओर से उनके खिलाफ भी धारा 153ए लगाए जाने की आवाजे उठाई गईं.

राजद्रोह क़ानून का इस्तेमाल भी नियंत्रण से बाहर हो रहा है. एक जलवायु परिवर्तन कार्यकर्त्ता दिशा रवि, जिनपर पिछले साल भारत में हुए किसानों के प्रदर्शनों में कथित रूप से शामिल होने का आरोप लगाया गया, उनपर भी राजद्रोह का मुकदमा ठोंक कर पांच दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया गया. वो जमानत पर बाहर हैं.

छात्र कार्यकर्त्ता उमर खालिद और शरजील इमाम क्रमश: 2016 और 2020 के बाद से जेल के अंदर बाहर होते रहे हैं. उनके भाषणों के सिलसिले में उनपर राजद्रोह और समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने समेत बहुत से आरोप लगाए गए हैं.

फिल्मों को अभी भी सेंसर किया जा रहा है. किताबों पर पाबंदियां लगाई जा रहीं हैं. अदालतें अभी भी आलोचना का स्वागत नहीं करतीं.

भारत का संविधान में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस की आज़ादी के मौलिक अधिकार का अलग से प्रावधान नहीं है. देश की अदालतों ने प्रेस की आजादी का अनुच्छेद 19(1)(ए) के अधिकार-क्षेत्र के अंदर ही आंकलन किया है. आंम्बेडकर ने नवंबर 1949 में ही इस खामी को उजागर कर दिया था.

आंम्बेडकर ने कहा था, ‘मैं चाहता हूं कि हमारे संविधान में प्रेस की आजादी का भी विशिष्ट शब्दों में उल्लेख होना चाहिए. मुझे यकीन है कि एक समय आएगा जब हमारी संसद के सदस्य इस मुद्दे पर भी गौर करेंगे और इस बारे में एक संशोधन लाने में नहीं झिझकेंगे और हमारी प्रेस को भी वो दर्जा हासिल हो जाएगा, जिसकी वो हमारे संविधान में हकदार है’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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