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Wednesday, 20 November, 2024
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मोदी सरकार अमेरिका और फ्रांस से सीखे, भारत के रक्षा क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों को बढ़ावा देने की जरूरत

अगर भारत अफ्रीका में चीन की घुसपैठ का मुकाबला करना चाहता है, तो उसे एक मुश्किल महाद्वीप पर खरीद सौदे करने के लिए निजी क्षेत्र का इस्तेमाल करना होगा.

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रक्षा क्षेत्र के लिए खुशी की खबर है कि भारत का सैन्य निर्यात वित्तीय वर्ष 2021-2022 के लिए 13,000 करोड़ रुपये के रिकॉर्ड उच्च स्तर को छू गया. रक्षा उत्पादन विभाग के अतिरिक्त सचिव संजय जाजू ने पिछले सप्ताह पत्रकारों को बताया कि यह आंकड़ा भारत की ओर से पांच साल पहले दर्ज किए गए निर्यात का आठ गुना था.

भारत के रक्षा क्षेत्र में राज्य द्वारा संचालित दिग्गजों का दबदबा है वो राइफल से लेकर टैंक, हेलीकॉप्टर और लड़ाकू विमान से लेकर विमान वाहक और मिसाइल तक सब बनाते हैं. इसलिए ऐसा माना जाता है कि रक्षा निर्यात का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) के पास ही जाएगा.

दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है. वित्त वर्ष 2020-2021 में रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों ने निर्यात में सिर्फ 30 प्रतिशत का योगदान दिया है, बाकी का हिस्सा नए निजी खिलाड़ियों के पास है. हालांकि इस साल रक्षा पीएसयू की हिस्सेदारी वास्तव में बढ़ी है क्योंकि अब तक वे भारत के कुल निर्यात में लगभग 10 प्रतिशत का ही योगदान देते आ रहे थे.

इस हिस्सेदारी के बढ़ने की वजह फिलीपींस को ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलों की बिक्री है, जिसका इस साल की शुरुआत में 2,700 करोड़ रुपये से अधिक में करार किया गया था.

नरेंद्र मोदी सरकार ने रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों के लिए मुश्किल लक्ष्य निर्धारित किए हैं, उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि 2022-23 तक उनका 25 प्रतिशत टर्नओवर निर्यात से आए. यह एक लंबा काम नजर आता है. 2020 में सरकार ने अगले पांच सालों में एयरोस्पेस और रक्षा वस्तुओं और सेवाओं में 35,000 करोड़ रुपये (5 अरब डॉलर) के निर्यात का लक्ष्य रखा है. यह 2025 तक रक्षा निर्माण में 1.75 लाख करोड़ रुपये (25 अरब डॉलर) के टर्नओवर का हिस्सा है जिसे सरकार हासिल करने का लक्ष्य लेकर चल रही है.

भारत को इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए न केवल नीतियों के संदर्भ में बल्कि सोच के संदर्भ में भी बहुत कुछ बदलना होगा.


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निजी क्षेत्र की भूमिका

पिछले साल, मैंने कहा था कि भारत को विदेशों में सौदेबाजों (डील हंटर्स)की जरूरत है और केवल इरादे हमें निर्यातक नहीं बना सकते हैं. सबसे पहले, वास्तविक निर्यात के लिए निजी क्षेत्र को हाथ में लेने की बातचीत को कार्रवाई में बदलने की जरूरत है. जबकि मोदी सरकार ने आगे बढ़कर रक्षा के लिए लाइसेंस और मंजूरी को आसान बना दिया है. लेकिन जो गायब है वह निजी कंपनियों को वास्तविक तौर पर आगे बढ़ाना.

निजी क्षेत्र आगे तभी आ सकता है जब मोदी सरकार उन्हें बढ़ावा देगी, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिकी और फ्रांसीसी अपने रक्षा क्षेत्र के लिए करते हैं. निजी क्षेत्र की कई आला कंपनियां बेहतरीन काम कर रही हैं और अपने दम पर विदेशी अनुबंध हासिल कर रही हैं. मोदी सरकार को सक्रिय रूप से इन कंपनियों पर जोर देना शुरू कर देना चाहिए. इसे निजी क्षेत्र को भी आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न देशों को दी गई लाइन ऑफ क्रेडिट का इस्तेमाल करना चाहिए.

अगर नई दिल्ली अफ्रीका में चीन की घुसपैठ का मुकाबला करना चाहती है, तो उसे नए तरीकों के साथ आना होगा और निजी क्षेत्र का उपयोग एक ऐसे महाद्वीप पर सौदे करने के लिए करना होगा जिसे खरीद के मामले में बहुत मुश्किल माना जाता है.

निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाना के प्रयास मोदी सरकार के रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा बनाई गई बड़ी हथियार प्रणालियों के विपणन के समानांतर होने चाहिए. यहां उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं, बल्कि देशों में अपना पैर जमाना होना चाहिए, भले ही इसका मतलब उपकरणों की लागत में भारी कमी या अधिक लचीली लाइन ऑफ क्रेडिट हो.

आखिर में जब रक्षा उपकरण बेचे जाएं, तो यह न केवल पैसा कमाने के बारे में हो, बल्कि एक महत्वपूर्ण रणनीतिक लाभ के लिए भी हो – कुछ ऐसा जिस पर चीनी पहले से ही ध्यान दे रहे हैं.


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स्वदेशी प्रणाली और कंपनियां

भारत की रक्षा खरीद प्रक्रियाओं को भी सुव्यवस्थित करने की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्णय लेने की प्रक्रिया अब की तुलना में बहुत तेज हो. और यहीं पर भारत के रक्षा बलों को भी ध्यान देने की जरूरत है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार द्वारा लगातार जोर दिए जाने की वजह से तीनों सेवाएं अब स्वदेशी प्रणालियों की और अधिक जा रही हैं, लेकिन उन्हें भी सक्रिय होने की जरूरत है.

‘सिस्टम’ का डर ऐसा है कि कई निजी कंपनियां, भारतीय बलों या रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों की तुलना में विदेशी ग्राहकों के साथ सौदेबाजी में ज्यादा खुश हैं. घरेलू बाजार में क्या हो रहा है, इसके बारे में बलों को जागरूक होने की जरूरत है.

उसका बेहतरीन उदाहरण टोनबो इमेजिंग नामक एक छोटी कंपनी है. इसका भारतीय सेना के साथ काफी अच्छा तालमेल है. उन्होंने एक दशक पहले नाटो के साथ संयुक्त अभ्यास के समय पर कंपनी के बारे में जाना था. अमेरिकी सेना उन हथियारों का इस्तेमाल कर रही थी जिन पर टोनबो सिस्टम लगा हुआ था.

टोनबो इमेजिंग के संस्थापकों में से एक अरविंद लक्ष्मीकुमार ने 2019 में मिंट को बताया था, ‘उन्होंने भारतीयों को बताया कि यह बेंगलुरु के एक इंजीनियरिंग सेंटर से आया है. तब सेना हमारे पास पहुंची. भारत से पहले हमसे पांच देश हमारी तकनीक खरीद रहे थे. ‘

जब कंपनी ने शुरू में 2012 के आसपास वाणिज्यिक परिचालन शुरू किया, तो उसने ग्लोबल बाजार पर ध्यान केंद्रित किया. उद्योग के सूत्रों ने कहा कि लक्ष्मीकुमार के यूएस के DARPA (डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी) के साथ पहले किए गए काम ने उन्हें अमेरिकी बाजारों में उत्पादों के लिए जल्दी पहचान दिलाने में मदद की.

टोनबो इमेजिंग जैसी कुछ और कंपनियां हैं जो विदेशों और फर्मों के साथ काम कर रही हैं. और वे टाटा या महिंद्रा जैसे बड़े नाम भी नहीं हैं.

11 जुलाई को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल के वर्षों में उच्चतम रक्षा निर्यात पाने के लिए निजी क्षेत्र से भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इंडो-एमआईएम पर ‘रक्षा निर्यात रत्न’ पुरस्कार से सम्मानित किया था.

यह हैरानी की बात थी कि इस कार्यक्रम में शामिल होने वाले कई लोगों ने पहले कभी इंडो-एमआईएम के बारे में नहीं सुना था.

भारत में कई ऐसी कंपनियां हैं जो खोजे जाने और पूरी तरह से उपयोग किए जाने के इंतजार में हैं. और यहीं पर भारतीय बलों को ध्यान दिए जाने की जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(यहां व्यक्त विचार निजी है)


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