लुंगी सिएरा लिओन के उत्तरी प्रांत के पोर्ट लोको जिले में स्थित एक प्रांतीय शहर है. यह जिला राजधानी पोर्ट लोको से लगभग 40 मील उत्तर में स्थित है. उन दिनों लुंगी की आबादी लगभग 4,000 थी. यह स्थान लुंगी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए सबसे अधिक जाना जाता था. समुद्र लुंगी को सिएरा लिओन की राजधानी फ्रीटाउन से अलग करता है.
फेरी दो शहरों के बीच सेवा परिवहन का सबसे सुविधाजनक साधन लगी. लुंगी में कुछ बेहतरीन होटल और रेस्तराँ भी थे. हालाँकि, उन दिनों शायद ही पर्यटकों का कोई आवागमन था. इसके बावजूद लुंगी की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करनेवाले ऐतिहासिक स्मारक मौजूद थे, जो गृह युद्ध के परिणामस्वरूप हुए जबरदस्त अत्याचारों के मूक गवाह भी थे.
इस शहर का प्राचीन नाम मदीना था एवं अधिकांश निवासी इसलाम धर्म को माननेवाले थे. सिएरा लिओन के बारे में एक उल्लेखनीय बात यह भी थी कि वहाँ पर धर्म आस्था का विषय था और सांप्रदायिक तनाव के चलते दंगे होने की एक भी घटना सामने नहीं आई थी—कुछ ऐसा, जो भारत के लिए अपनाने को एक महत्त्वपूर्ण तथ्य साबित हो सकता था.
इस सुरम्य तटीय शहर में पन्ने जैसे समुद्र एवं चमकदार सुनहरी रेत का एक शानदार मिश्रण था और अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भी फ्रीटाउन से समुद्र के मुहाने के पार था. आपको सड़क मार्ग से एक लंबा रास्ता तय करना होता था, इसलिए आवागमन का सबसे तेज और सुरक्षित तरीका नौका या नाव थी. हालाँकि, आज एक पुल लुंगी और फ्रीटाउन को जोड़ता है, जिससे आवागमन पहले की तुलना में अधिक सुगम और तेज हो गया है.
तीखे नैन-नक्शवाले और मध्यम शरीरवाले स्थानीय निवासी मुख्य रूप से मछुआरे थे, जो अपने शिकार की आपूर्ति फ्रीटाउन में करते थे. चूँकि सिएरा लिओन सन् 1961 तक एक ब्रिटिश उपनिवेश था, इसलिए मूल आबादी की बातचीत की भाषा अंग्रेजी थी. लुंगी सरकार के नियंत्रणवाला हिस्सा था और वहाँ पर आर.यू.एफ. के विद्रोहियों का अधिक खतरा नहीं था. इसके बावजूद स्थानीय निवासियों के पास आर.यू.एफ. के बारे में और साथ-साथ एक वर्ष पूर्व फ्रीटाउन व लुंगी पर हुए सबसे खूनी हमले के विषय में साझा करने के लिए बहुत सारी कहानियाँ थीं, जिसमें फ्रीटाउन में हजारों लोगों की जानें चली गई थीं. (लुंगी बेहद भाग्यशाली था, क्योंकि आर.यू.एफ. के हमले का केंद्रबिंदु फ्रीटाउन था, क्योंकि वे राजधानी पर कब्जा करने का इरादा रखते थे.)
प्रारंभिक तौर पर लुंगी के अभ्यस्त होने के बाद मैंने समुद्र-तट पर अपनी कंपनी का सुबह का शारीरिक फिटनेस प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया, जिसे देखने के लिए स्थानीय लोग दर्शकों की तरह जमा हो जाते थे. स्थानीय लोग दोस्ताना और मददगार थे, लेकिन वे नीली टोपीवालों से हरदम वित्तीय सहायता और भोजन माँगते दिखाई देते थे. कुल मिलाकर, लुंगी मुझे कुदरत का कमाल लगा, जहाँ पर प्राकृतिक सौंदर्य बहुतायत में मौजूद थी और वहाँ के नजारे आँखों को सुकून देनेवाले थे.
हम यहाँ ‘लोमे शांति समझौते’ के हिस्से के रूप में थे, जिसके लिए आर.यू.एफ. के संस्थापक और नेता फोडे सनकोह ने हस्ताक्षर किए थे. इसके बावजूद इसके दो स्याह पक्ष थे. सबसे पहले तो आर.यू.एफ. को अपने हथियार डालने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया गया था और दूसरा, समझौते के मुताबिक हथियार डालने की प्रक्रिया को ‘स्वैच्छिक’ करार दिया गया था.
इन दोनों ही बिंदुओं के आलोक में संयुक्त राष्ट्र बल की तत्काल तैनाती, हालाँकि वह देश में आ चुकी थी, अनजाने में देरी से हुई थी. मैं इस बात का अनुमान लगा सकता था कि लुंगी में हमारे प्रवास का समय अपेक्षा से थोड़ा लंबा होने वाला था. परिणामस्वरूप, हमारे कमांडिंग ऑफिसर ने सभी कंपनी कमांडरों को निम्नलिखित कार्य की तैयारी पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया—आर.यू.एफ. के बारे में खुफिया जानकारी जुटाना और प्रशिक्षण.
तदनुसार मैंने गहन प्रशिक्षण, शारीरिक फिटनेस और आगे के कार्य के लिए समग्र तैयारी पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से चार सप्ताह का एक कार्यक्रम तैयार किया. बटालियन हवाई अड्डे के बगल के एक क्षेत्र में डेरा डाले हुए थी, जबकि कंपनी उससे लगभग एक किलोमीटर दूर थी, जो मुझे अपनी कंपनी के लिए प्रशिक्षण को आयोजित करने में पूरी छूट देने के लिए पर्याप्त थी.
मैं हमेशा से ही शारीरिक फिटनेस का प्रशंसक रहा हूँ—और एक सैनिक के प्रशिक्षण के लिए यह एक सर्वोच्च प्राथमिकता थी. लुंगी में हमारी दिनचर्या सुबह के 5 बजे शुरू हो जाती थी, जिसमें सबसे पहले एक घंटे का जोरदार सहनशील व्यायाम और समुद्र-तट पर दौड़ का एक सत्र होता था तथा उसके बाद समुद्र में डुबकी; तब तक सूबेदार फतेह की देखरेख में हमारा नाश्ता परोस दिया जाता था.
मुझे इस बात पर संदेह है कि संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के तहत हमें मिलनेवाले राशन की गुणवत्ता और विविधता को देखते हुए कोई लक्जरी होटल हमारे नाश्ते की बराबरी कर सकता था. नाश्ते के बाद लगभग आधे घंटे का एक छोटा सा विराम होता था, जिसके बाद कंपनी में सभी के लिए हथियार प्रशिक्षण, फील्डक्राफ्ट, सामरिक व्याख्यान, रूट मार्च और अनिवार्य गश्त का कार्यक्रम होता था. हमारे थकाऊ दिन का समापन समुद्र में तैरने के साथ होता था और तैराकी करते हुए हम टकटकी लगाकर पानी में डूबते हुए सूरज के अक्स को देखा करते थे.
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हमारी कंपनी में कुल तीन प्लाटून थे और सैनिकों की रुचि को बनाए रखने तथा प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाने के लिए मैंने इंटर-प्लाटून प्रतिस्पर्धओं का आयोजन करना प्रारंभ किया. हम कभी-कभी समुद्र-तट पर ‘कंपनी बड़ा खाना’ भी लगा लिया करते थे. हमारी कंपनी की गतिविधियों के बारे में जानने के बाद कर्नल सतीश ने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए वॉलीबॉल में हमारे साथ शामिल होने का फैसला किया.
शाम को आयोजित होनेवाले वॉलीबॉल के मैच बेहद लोकप्रिय हो गए और चूँकि फुटबॉल के अलावा वॉलीबॉल सिएरा लिओन में एक बहुत अधिक पसंद किया जानेवाला खेल था, इसलिए दर्शकों की संख्या बढ़ गई और जीतनेवाली संभावित टीम पर सट्टा भी लगाया जाने लगा. हमने सुनिश्चित किया कि मैच के बाद कोई भी स्थानीय निवासी भारतीय चाय का सेवन किए बिना वहाँ से न जाए.
समय के साथ स्थानीय निवासी हमारे प्रशंसक बन गए और हमें आर.यू.एफ. की तैनाती, शक्ति और रणनीति के बारे में बहुत सारी महत्त्वपूर्ण खुफिया जानकारियाँ प्राप्त होने लगीं. कठोर प्रशिक्षण और शारीरिक फिटनेस पर गहन ध्यान देने के बावजूद हमारे सैनिकों ने दैनिक क्रियाकलापों का भरपूर आनंद लिया, जिसने हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रम में सभी रैंकों द्वारा की जानेवाली स्वैच्छिक भागीदारी को बढ़ाया. मुझे हमारे कमांडिंग ऑफिसर द्वारा हमारे प्रशिक्षण मॉडल की सराहना करना बहुत अच्छे से याद है. उन्होंने अन्य कंपनी कमांडरों को भी उसी मॉडल को दोहराने के लिए कहा.
करीब दो सप्ताह तक इस दिनचर्या का पालन करने के बाद एक शाम जब मैं कंपनी के अपने नियमित राउंड पर गया तो मुझे सूबेदार फतेह पूरी तरह से परेशान नजर आए. उन्होंने मेरी अटकल को पुष्ट करते हुए बताया कि हमारी कंपनी के दो-तीन लड़के अय्याशी करने में शामिल थे. मैं इस प्रवृत्ति को यहीं पर समाप्त करना चाहता था और मेरे पास कई विकल्प मौजूद थे, जिनमें से एक था—उन लड़कों को वापस भारत भेजना.
लेकिन मैं इस अवैध व अनैतिक गतिविधि के परिणामस्वरूप अपनी बटालियन की प्रतिष्ठा और सम्मान पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव को लेकर अधिक चिंतित था. इसलिए मेरे पास दो अलग-अलग विकल्प थे—या तो मुख्यालय को इस मामले की रिपोर्ट करूँ या फिर इस मामले को अपने ही स्तर पर इस प्रकार से सँभालूँ कि उसके बाद इस प्रवृत्ति पर यहीं पर लगाम लग जाए.
इस मुद्दे पर सूबेदार फतेह से मेरी काफी लंबी और सार्थक बातचीत हुई, जिन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मुझे इस मामले का संज्ञान अपने स्तर पर लेना चाहिए और उन लड़कों को इस प्रकार से दंडित करना चाहिए कि दूसरों के लिए उदाहरण बन जाए और भविष्य में कोई सपने में भी इस प्रकार के अनैतिक कृत्य में शामिल होने तक के बारे में सोच न पाए. अब उन लड़कों के लिए सजा मुकर्रर करने से पहले सबसे पहले उनसे उनकी गलती को कबूल करवाना था.
सौभाग्य से, सूबेदार फतेह ने कुछ ऐसे लड़कों के नाम मुझे बताए, जो इस घटना के गवाह थे. मैंने उन लड़कों को बुलाया और जैसी कि उम्मीद थी, उन्होंने कंपनी में किसी भी प्रकार के गलत काम के होने से स्पष्ट इनकार कर दिया. इसके बाद मैंने उनके हाथों में भारत वापस जाने के मूवमेंट ऑर्डर थमा दिए, जो मैंने पहले से ही तैयार करवा रखे थे. उन आदेशों को देखते ही वे रोने लगे और तभी सूबेदार फतेह उन सभी को खींचकर किनारे ले गए और उन्हें अच्छे से समझाया.
उम्मीद के मुताबिक, पाँच मिनट का समय भी नहीं बीता था कि वे सभी लौटकर मेरे कार्यालय में वापस आए और न सिर्फ अपना अपराध कबूला, बल्कि कड़ी-से-कड़ी सजा देने का भी अनुरोध किया. मूल उद्देश्य का पता लगाने के मेरे इरादे ने उन्हें कंपनी के सामने खड़े होकर यह स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया कि वे दोषी थे, जिसके बाद मैं उन्हें सैन्य कानून के तहत मैदानी सजा की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाला था. एक सकारात्मक बात यह हुई कि इस घटना के परिणामस्वरूप पूरी कंपनी को यह पता चल गया कि उनका कंपनी कमांडर इतना सजग है कि वह पीठ पीछे होनेवाली गुप्त घटनाओं के बारे में भी पता लगा लेता है.
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इस मामले को खत्म करने के लिए मैंने इस बात की घोषणा की कि इस प्रकार की नीच हरकतों में शामिल पाए जानेवाले अगले व्यक्ति को बिना कोई मौका दिए वापस भारत भेज दिया जाएगा और भारत में बटालियन के मुख्यालय में कदम रखते ही उसके खिलाफ कानूनी काररवाई प्रारंभ कर दी जाएगी. लेकिन यह कहना बेहद आवश्यक है कि एक तरफ जहाँ भारतीय दल इस प्रकार की नीच हरकतों के खिलाफ कड़े कदम उठा रहा था, अन्य देशों के शांति सैनिकों के साथ ऐसा नहीं था.
मैंने एक बार लुंगी हवाई अड्डे पर स्थानीय लड़कियों और छोटे बच्चों से घिरे एक विमान को देखा. पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि विमान ई.सी.ओ.एम.ओ.जी. के नाइजीरियाई सैनिकों को वहाँ से वापस ले जा रहा था, जो संयुक्त राष्ट्र बल के आने से पहले आर.यू.एफ. से लड़ रहे थे. ये नाइजीरियाई सैनिक पिछले तीन-चार वर्षों से वहाँ मौजूद थे. उनके जाने का समय हो गया था और उनके विमान के आसपास मौजूद लड़कियाँ उनकी ‘अवैध पत्नियाँ’ थीं, जो उन्हें विदा करने के लिए वहाँ आई थीं.
इसके अलावा, मैं अच्छी तरह से इस बात को जानता था कि हमारे सामने आनेवाली चुनौतियों और कार्यों के लिए भारतीय दल के कर्मियों के बीच निर्बाध अनुकूलन की आवश्यकता होगी. हम सभी भारतीय सेना से संबंध रखते थे. हम अपने कंधों पर भारत को धारण किए हुए थे. हमारे दिलों में तिरंगे के प्रति सम्मान भरा हुआ था और हमारे मन में शहीद हुए उन साथी फौजियों की यादें तैर रही थीं, जिन्होंने हमारी मातृभूमि की गरिमा के लिए अपना बलिदान दिया था.
हम एक ऐसे सैनिक थे, जिसने भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी और एकता एवं भाईचारे के अपने बुनियादी मूल्यों को बनाए रखने का प्रयास किया. इसलिए हमारे सैनिक आगे नहीं बढ़ रहे थे, क्योंकि यह एक ऐसा मामला था, जिससे सौहार्द्रपूर्ण ढंग से निपटा जाना था, क्योंकि हमारे सामने एक आसन्न कार्य के साथ छोटे रेजीमेंटल मुद्दों को किसी भी तरह से विदेशी भूमि पर हमारे राष्ट्र की प्रतिष्ठा को कम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती.
बटालियन को दो स्थानों—दारू और कैलाहुन में तैनात करने का आदेश आ गया. कैलाहुन में तैनाती सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य था, क्योंकि एक तो वह आर.यू.एफ. का मुख्यालय था और दूसरा वह लाइबेरिया के साथ सीमा पर सिएरा लिओन के सबसे पश्चिमी छोर पर स्थित थी. इससे पूर्व कैलाहुन केन्याई तैनाती का हिस्सा था.
आखिरकार, उन्होंने इनकार कर दिया और फोर्स कमांडर जनरल जेटली के अथक प्रयासों के बावजूद इसे लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि केन्याइयों ने तैनाती के खिलाफ लिखित में आदेश दे दिया था. इसके अलावा, ऐसे देश भी थे, जो सिएरा लिओन को अपने परिचालन बेस के रूप में बनाए रखना चाहते थे—वे सिर्फ हीरे से समृद्ध क्षेत्रों में तैनात होना पसंद करते थे.
( ‘ऑपरेशन खुकरी’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 600₹ की है.)
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