scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमराजनीतिछत्तीसगढ़ कांग्रेस का संकट: न चुनावी चेहरा, न ज़मीन पर कार्यकर्ता

छत्तीसगढ़ कांग्रेस का संकट: न चुनावी चेहरा, न ज़मीन पर कार्यकर्ता

Text Size:

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव: 15 साल के मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ नाराज़गी के बावजूद कांग्रेस इसे भुना पाने की स्थिति में नहीं दिख रही.

नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं. कहा जा रहा है कि 15 साल की रमन सिंह सरकार के खिलाफ आदिवासियों और किसानों में नाराज़गी है. तो क्या छत्तीसगढ़ में किसी दूसरे दल की सरकार बन सकती है?

छत्तीसगढ़ में भाजपा के अलावा कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी है. इसके अलावा इस बार चुनाव में एक नया गठबंधन बना है. इसमें कांग्रेस से अलग हुए अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई और बहुजन समाज पार्टी शामिल हैं.

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस छत्तीसगढ़ में अन्य राज्यों की तरह नेतृत्व के संकट से जूझ रही है. 2013 में हुए झीरम घाटी हमले में कांग्रेस के छोटे-बड़े 25 नेता मारे गए थे. इन नेताओं में पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल, बस्तर टाइगर के नाम से मशहूर महेंद्र कर्मा और उदय मुदलियार जैसे चार बड़े नेता थे.

इन नेताओं के मारे जाने के बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस अब तक नेतृत्व संकट से नहीं उबर सकी है. विधानसभा चुनाव 2013 में भी कहा जा रहा था कि दस साल के शासन के बाद रमन सिंह सरकार सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही है. लेकिन भाजपा सत्ता में आई और रमन सिंह तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. कांग्रेस का 2013 का यह नेतृत्व संकट अभी तक बरकरार है.

भाजपा और कांग्रेस पार्टी में केंद्रीय नेतृत्व का भी फर्क है. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. इनमें से तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अंदरूनी लड़ाई से जूझती दिख रही है.

मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के अंदर हो रही गुटबाज़ी जगज़ाहिर है. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की खींचतान बार-बार खुलकर सामने आ रही है तो राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस इसका अपवाद नहीं है.

2013 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार के पीछे अजीत जोगी की नाराज़गी को देखा गया था. छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार कमल शुक्ला कहते हैं, ‘रमन सरकार के खिलाफ़ जो परिस्थितियां आज हैं, कमोबेश वही 2013 में भी थीं. लेकिन कांग्रेस के नेता ही कांग्रेस को हराने में लगे थे. अजीत जोगी ने रमन सिंह के साथ मिलकर कांग्रेस के कई नेताओं को हराने का काम किया. बाद में उन्होंने अलग होकर नई पार्टी बना ली.’

फिलहाल छत्तीसगढ़ कांग्रेस में विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल या महेंद्र कर्मा की तरह ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी पूरे प्रदेश में लोकप्रियता हो. वरिष्ठ पत्रकार रितेश मिश्रा कहते हैं, ‘कांग्रेस नेतृत्व संकट से जूझ रही है. कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो रमन को टक्कर दे पाए. रमन सिंह साफ सुथरी और सौम्य छवि वाले नेता हैं. वे अपने आप को विवादों से दूर रखते हैं. लेकिन कांग्रेस ​को जहां भाजपा को घेरना है, वहां खुद ही घिर जाती है. भूपेश बघेल की प्रदेशव्यापी स्वीकार्यता नहीं है.’

उन्होंने टिप्पणी की, ‘अभी वहां पर सीडी कांड हुआ था. मंत्री की सीडी बनाई भाजपा के ही नेता ने, लेकिन उसे जारी किया भूपेश बघेल ने. भाजपा इसमें भी लीड लेती दिख रही है. भाजपा यह प्रचारित करने में कामयाब रही कि कांग्रेस सीडी पार्टी है. दूसरे, कांग्रेस ऐसा चेहरा ढूंढने में कामयाब नहीं हो सकी जो साफ छवि का हो और भाजपा को टक्कर दे सके.’

Chhattisgarh congress facebook
छत्तीसगढ़ में एक चुनावी रैली के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व अन्य नेता. (फोटो साभार: फेसबुक/छत्तीसगढ़ कांग्रेस)

बस्तर क्षेत के पत्रकार तामेश्वर सिन्हा भी इसी से मिलती-जुलती बात कहते हैं कि कांग्रेस में नेतृत्व संकट हैं. उनके मुताबिक, ‘आदिवासियों का पत्थलगढ़ी आंदोलन चला और यह पूरी तरह सरकार के खिलाफ था. आदिवासी यह मानते हैं कि यह सरकार आदिवासी विरोधी है. किसान भी सरकार से नाराज़ हैं. लेकिन लगता नहीं है कि कांग्रेस इस नाराज़गी को भुना पाएगी. बस्तर इलाके में कांग्रेस टक्कर में है, हो सकता है उसे बढ़त मिले. लेकिन बाकी राज्य में स्थिति खराब लग रही है.’

पार्टी की चुनावी कामयाबी में मज़बूत और लोकप्रिय नेतृत्व की भूमिका को रेखांकित करते हुए रितेश मिश्रा कहते हैं, ‘कई बार जनता के बीच अंडर करंट होता है जो अप्रत्याशित नतीजे के साथ सामने आता है. हो सकता है कि नाराज़गी इस स्तर तक चली जाए. लेकिन बिना मज़बूत पार्टी के ऐसा करना मुश्किल होता है. कांग्रेस का संकट है कि वह बेचेहरा पार्टी है जो जनता की नाराज़गी को अपने समर्थन में शायद ही बदल पाए.’

कमल शुक्ला एक आरएसएस के नेता का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘भाजपा की रणनीति स्पष्ट है. वे हर बूथ पर कार्यकर्ता तैयार कर चुके हैं. भाजपा की तैयारी मज़बूत है. वे हर बूथ पर दो लाख से लेकर बीस लाख तक रुपये खर्च करने को तैयार हैं और इसकी पूरी योजना तैयार है. वे किसी भी कीमत पर जनता को अपने पक्ष में लाने पर काम कर रहे हैं. इसके विरुद्ध कांग्रेस ऐसा संगठन और कार्यकर्ताओं का नेटवर्क नहीं तैयार कर पाई है. यह कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी है.’

कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व राज्यों में मज़बूत नेतृत्व खड़ा करने में नाकाम रहा है. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई का कहना है, ‘आज़ादी के बाद कांग्रेस में कुछ ऐसा चलन था कि शायद ही कोई प्रदेश हो जहां से तीन या चार कद्दावर नेता संगठन में ना हों. जवाहरलाल नेहरू तक तो यह सिलसिला चलता रहा. मगर जब इंदिरा गांधी ने कमान संभाली तो प्रदेशों से संगठन में आये कद्दावर नेताओं से उनके मतभेद शुरू हो गए. इंदिरा गांधी चुनाव पर चुनाव जीत रही थीं. लेकिन एक-एक कर क्षेत्रीय नेता हाशिये पर जाते रहे. कांग्रेस ने लगभग हर प्रदेश में यह सुनिश्चित किया कि क्षेत्रीय नेताओं का कद ज़्यादा ना बढ़े.’

कांग्रेस का रवैया अब नये कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने एक चुनौती के रूप में सामने आया है. सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ जनता की नाराज़गी के बावजूद एक अकेले राहुल गांधी के दम पर कांग्रेस राज्यों के चुनाव जीतेगी, यह नामुमकिन कल्पना है. छत्तीसगढ़ कांग्रेस भी इस संकट से अलग नहीं है.

share & View comments