नई दिल्ली: आमतौर पर यह माना जाता है कि आर्थिक विकास और श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी साथ-साथ चलती है. हालांकि विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है कि दक्षिण एशियाई देशों खासतौर पर भारत में, इन दोनों के बीच का संबंध पहले से कहीं अधिक पेचीदा है.
इस साल अप्रैल में विश्व बैंक के दक्षिण एशिया आर्थिक फोकस, स्प्रिंग 2022 में प्रकाशित, ‘रिशेपिंग नॉर्म्स: ए न्यू वे फॉरवर्ड’ नामक अध्ययन में पाया गया कि कुछ दक्षिण एशियाई देशों मसलन पाकिस्तान और बांग्लादेश में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी और आर्थिक विकास साथ-साथ चला है. लेकिन भारत में यह एक पॉइंट पर आकर ठहर गया.
1985 से 2019 तक क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को ध्यान में रखकर यह अध्ययन किया गया था. पीपीपी वह दर है जिस पर एक देश की मुद्रा को दूसरे देश में समान मात्रा में सामान और सेवाओं को खरीदने के लिए परिवर्तित करना होता है.
स्टडी के मुताबिक, दक्षिण एशिया में महिला श्रम शक्ति भागीदारी (एफएलएफपी) एक देश से दूसरे देश में अलग थी. अध्ययन में यह भी पाया गया कि भारत में प्रतिव्यक्ति आय 3,500 डॉलर से अधिक होने के बाद भी एफएलएफपी कम थी. एफएलएफपी मौजूदा समय में, सक्रिय रूप से काम की तलाश कर रही कार्यरत या बेरोजगार महिलाओं का प्रतिशत होता है.
अध्ययन के इस विशेष विश्लेषण में दक्षिण एशियाई देश भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और मालदीव शामिल थे.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारत में विकास के स्तर पर एफएलएफपी और जीडीपी प्रतिव्यक्ति विकास के बीच एक कमजोर लेकिन सकारात्मक संबंध देखा गया, जो लगभग 3,500 अमेरिकी डॉलर प्रतिव्यक्ति रहा है और इस बिंदु से आगे गिरावट आई है.’
अध्ययन में यह भी कहा गया है कि दक्षिण एशियाई देशों में महिलाओं की शिक्षा के स्तर में वृद्धि व प्रजनन स्तर में गिरावट और श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी के बीच कोई सकारात्मक सहसंबंध नहीं था. सकारात्मक सहसंबंध का मतलब है कि जब एक मीट्रिक बढ़ता है, तो दूसरा भी उसी अनुपात में बढ़ता है.
हालांकि, रिपोर्ट में आर्थिक विकास के संबंध में भारत के एफएलएफपी के रुझानों का हवाला दिया गया है लेकिन यह इनका कोई स्पष्ट कारण नहीं बताता है. विश्व बैंक के दक्षिण एशिया कार्यालय के प्रमुख अर्थशास्त्री और अध्ययन के जेंडर चैप्टर के प्रमुख लेखक मौरिज़ियो बुसोलो ने एक ई-मेल में दिप्रिंट को बताया कि भारत के रूढ़िवादी सामाजिक मानदंड कम से कम घटना के एक हिस्से की व्याख्या कर सकते हैं.
बुसोलो ने कहा, ‘(हमारी रिपोर्ट में) हम रेखांकित करते हैं कि एफएलएफपी में वृद्धि लाने के लिए आर्थिक विकास की संभावित विफलता को रूढ़िवादी सामाजिक मानदंडों से जोड़ कर देखा जा सकता है. यह श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी में बाधाओं के रूप में कार्य करता हैं.’
किंग्स कॉलेज, लंदन में डेवलपमेंट इकोनोमिक्स पढ़ाने वाली जेंडर इकोनॉमिस्ट एलिस इवांस का मानना है कि भारत एक ‘रुढ़िवादी समाज के जाल’ में फंसा हुआ है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘महिला रोजगार तभी बढ़ता है जब पुरुष सम्मान के नुकसान की भरपाई के लिए आय पर्याप्त रूप से (क्रम में) अधिक हो.’ वह आगे कहती है, ‘रोजगार रहित विकास के बीच, महिला रोजगार कम रहता है.’
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यू-शेप संबंध
अध्ययन में कहा गया है कि आमतौर पर प्रतिव्यक्ति आय (पीपीपी के संदर्भ में मापी जाती है) और एफएलएफपी के बीच एक यू-आकार का संबंध होता है. मतलब जैसे-जैसे आर्थिक विकास होता है या प्रतिव्यक्ति आय निचले स्तरों से बढ़ती है, श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी एक बिंदु तक कम हो जाती है और उसके बाद बढ़ जाती है.
अध्ययन का दावा है कि बड़े पैमाने पर कृषि प्रधान वाले देश में कृषि और संबद्ध गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा होती है. हालांकि, एक देश के रूप में औद्योगीकरण और अधिक काम करने वाले हाथों की जरूरत कम होने के कारण, विनिर्माण इकाइयों में काम करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण इस भागीदारी में गिरावट आई है.
महिलाओं के बीच उच्च शिक्षा के स्तर और कम प्रजनन दर के साथ सेवा क्षेत्र में वृद्धि के परिणामस्वरूप उच्च-आय स्तर पर वक्र फिर से बढ़ जाता है. यह एक आयु की महिलाओं की औसत वार्षिक जनसंख्या के अनुपात में उस वर्ष समान आयु की महिलाओं से जीवित जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या होती है.
हालांकि अध्ययन से पता चलता है कि दक्षिण एशियाई देशों में विकास का यह आंकड़ा एक समान नहीं है. मसलन श्रीलंका और नेपाल में, आर्थिक विकास के बावजूद एफएलएफपी में मुश्किल से ही कोई बदलाव आया है. बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान और मालदीव में प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि एफएलएफपी में वृद्धि के अनुरूप है. अध्ययन से पता चलता है कि भारत में भी इसी तरह की वृद्धि देखी गई लेकिन जब तक यह प्रतिव्यक्ति आय 3,500 डॉलर तक नहीं पहुंची थी.
विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, 2021 में बांग्लादेश में एफएलएफपी 35 फीसदी, पाकिस्तान में 21 फीसदी और भारत में 19 फीसदी था.
इवांस ने दिप्रिंट को बताया कि हालांकि बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों देशों में कम महिला रोजगार है, ‘भारत में एक अतिरिक्त रुकावट लेबर रेगुलेशन हो सकती है, जो औपचारिक अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसरों को कम कर देती है.’
उन्होंने ई-मेल के जरिए दिप्रिंट को बताया, ‘यह परिवारों को जोखिम में फंसा देती है, रिश्तेदारों पर निर्भरता को मजबूत करती है और जाति के भीतर शादी करने की प्रथा को प्रोत्साहित करता है.’
उन्होंने आगे बताया, ‘इसके अलावा, नियोक्ता अक्सर अपनी कंपनी को छोटा दिखाने और श्रम नियमों को दरकिनार करने के लिए घर-आधारित श्रमिकों को तरजीह देता है. इस तरह का अनौपचारिक ‘गिग’ काम महिलाओं को काम के साथ-साथ परिवार की देखभाल करने के लालच में फंसाये रखता है.’
अध्ययन में यह भी देखा गया है कि लगभग सभी विकासशील देश महिला शिक्षा और एफएलएफपी के बीच सकारात्मक सहसंबंध दिखाते हैं. यह काफी आम है. लेकिन दक्षिण एशियाई देशों में इस तरह की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती है.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘हालांकि, दक्षिण एशिया में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल नामांकन दरों में समय के साथ नाटकीय रूप से सुधार हुआ है और एफएलएफपी में सुधार के बिना अधिक विकसित क्षेत्रों में स्तर के बहुत करीब पहुंच गए हैं या फिर स्तर तक पहुंच चुके है.’
प्रजनन दर में गिरावट के लिए भी समान अवलोकन किए गए, जो महिला शिक्षा में सुधार, विवाह की आयु में वृद्धि और बाल मृत्यु दर में गिरावट से प्रेरित थे.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सामान्य तौर पर प्रजनन क्षमता में गिरावट एफएलएफपी को बढ़ाती है क्योंकि महिलाओं के समय की अवसर लागत गिरती है. हालांकि, दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों ने अपने जीवनकाल में एक औसत महिला के बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय कमी का अनुभव किया है, प्रजनन दर अब प्रतिस्थापन स्तर के आसपास है.’
बुसोलो ने दिप्रिंट को बताया कि भारत में रूढ़िवादी सामाजिक मानदंडों का प्रभाव काफी मजबूत था. इसकी प्रतिव्यक्ति आय के मौजूदा स्तर पर कार्यबल में भारत की महिलाओं की भागीदारी अधिक होनी चाहिए थी.
उन्होंने कहा, दरअसल भारत और दूसरे देशों के डेटा का इस्तेमाल करते हुए हमें दो चीजें नजर आईं. सबसे पहले, लिंग भूमिकाओं के प्रति दृष्टिकोण (सामाजिक मानदंडों के लिए एक प्रॉक्सी) में पिछले दशकों में सुधार नहीं हुआ है और भारत जैसे देशों में एक बड़ी आबादी का मानना है कि ‘महिलाओं की तुलना में पुरुषों के पास नौकरी करने के ज्यादा अधिकार हैं.’
उन्होंने कहा, ‘दूसरा, हमने पाया कि अगर नापने का कोई पैमाना हो तो रूढ़िवादी सामाजिक मानदंड एफएलएफपी के कम होने के एक महत्वपूर्ण हिस्से के लिए जिम्मेदार होगा. विकास का स्तर बढ़ाने के लिए भारत में उच्च एफएलएफपी दर की जरूरत है.’
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