नई दिल्ली: पाकिस्तानी सेना ने देश की संसद की एक समिति से कहा है कि वह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के साथ जारी वार्ता में जिहादी समूह की तरफ से की जा रही तीन प्रमुख मांगों को नहीं मानेगी. इस मुद्दे के जानकार इस्लामाबाद स्थित राजनीतिक सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया.
टीटीपी हथियारों और अपने सैन्य संगठन को बनाए रखने के अधिकार एवं व्यापक स्वायत्तता हासिल करने के लिए अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों की मांग कर रहा है.
मंगलवार को बंद कमरे में एक ब्रीफिंग में राष्ट्रीय सुरक्षा पर पाकिस्तान की संसदीय समिति ने औपचारिक रूप से सेना और टीटीपी के बीच वार्ता का समर्थन किया और कहा कि प्रक्रिया की देखरेख के लिए एक विधायी समूह बनाया जाएगा. उन्हें संसदीय समिति को यह जानकारी, विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो की मांग के बाद दी जिसमें उन्होंने वार्ता पर संसद के साथ परामर्श की कमी के बारे में चिंता व्यक्त की थी.
वार्ता इस्लामाबाद को खैबर-पख्तूनख्वा में आतंकवाद विरोधी अभियानों की कुचलने से बचाने के लिए की गई है, लेकिन आलोचक चेतावनी दे रहे हैं कि इस एक समझौते से उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान में जिहादी-नियंत्रित मिनी-राज्य का निर्माण हो सकता है.
स्कॉलर आयशा सिद्दीका ने दिप्रिंट को बताया, ‘किसी समझौते पर मुहर लगाना मुश्किल नहीं है. असल समस्या तो पाकिस्तानी सेना के हटने के बाद इसे अमल में लाने की है. अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि टीटीपी एक कट्टरपंथी विचारधारा वाला संगठन है. और वह सेना के हटने के बाद भविष्य में उन क्षेत्रों का इस्तेमाल अपनी आतंकवादी गतिविधियों के लिए कर सकता है.’
पूर्व इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) प्रमुख और पेशावर कॉर्प्स कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद, ISI के डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम और सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने संसदीय समिति को जानकारी दी. इस समिति के सदस्यों में प्रांतीय मुख्यमंत्री और संसदीय दलों के नेता शामिल हैं.
जनरलों ने राजनीतिक नेतृत्व को बताया कि टीटीपी की तीन मांगें ऐसी हैं जिन पर विचार नहीं किया जा सकता है. सूत्रों ने बताया कि प्रगतिशील पश्तून तहफुज आंदोलन के मोहसिन डावर को छोड़कर, वार्ता प्रक्रिया का समर्थन ब्रीफिंग में मौजूद सभी राजनीतिक नेताओं ने किया था.
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आतंकियों से बातचीत
सूत्रों के मुताबिक, जनरलों ने समिति में स्वीकार किया कि टीटीपी के शीर्ष जिहादी मुस्लिम खान – जिसे चार सैनिकों सहित 34 लोगों की हत्याओं के लिए एक सैन्य अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी – को शांति वार्ता के बाद माफी दे दी गई.
जिस समय पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों का एक प्रतिनिधिमंडल 9 मई को टीटीपी नेतृत्व के साथ बातचीत के लिए काबुल पहुंचा था, टीटीपी कमांडर महमूद खान को भी रिहा कर दिया गया. खान को दो चीनी इंजीनियरों के अपहरण के लिए 20 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी. 12 मई को पत्रकार दाऊद खट्टक ने खुलासा किया कि दो जिहादियों को अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात को सौंप दिया गया है.
लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद के नेतृत्व में बातचीत के बाद सेना के वार्ताकारों ने भी उस महीने जेल में बंद टीटीपी कैडरों के खिलाफ आपराधिक मामले वापस लेने पर सहमति व्यक्त की थी. इसने यह भी वादा किया कि पाकिस्तान के संविधान के अनिर्दिष्ट गैर-इस्लामी अनुच्छेद तत्कालीन संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों (FATA) क्षेत्र में लागू नहीं होंगे.
लेफ्टिनेंट जनरल फैज़, आदिवासी बुजुर्गों के एक समूह और टीटीपी को शामिल करते हुए बातचीत में अब तक इस बात पर सहमति बनी है कि पाकिस्तानी सेना FATA से लगभग 60 प्रतिशत पीछे हट जाएगी. हालांकि, टीटीपी पूरी तरह से वापसी की मांग कर रहा है और इस बात पर जोर दे रहा है कि 2018 में खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत में एफएटीए के विलय को उलट दिया जाए.
भले ही टीटीपी ने समझौते और कैदियों की रिहाई के मद्देनजर युद्ध विराम की घोषणा की हो, लेकिन उसके जिहादी हमले जारी हैं.
इस सप्ताह की शुरुआत में खैबर-पख्तूनख्वा के डेरा इस्माइल खान जिले में दो पुलिस अधिकारी मारे गए थे और उत्तरी वजीरिस्तान कबायली जिले में एक अलग आत्मघाती बम विस्फोट में नौ सुरक्षाकर्मी घायल हो गए. पोलियो-टीकाकरण टीम के एक सदस्य की भी 28 जून को उसके पुलिस एस्कॉर्ट के दो सदस्यों के साथ गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
विफल शांति प्रयास
इससे पहले इसी तरह के शांति समझौतों ने जिहादियों को खैबर-पख्तूनख्वा में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने और इसे पंजाब के मैदानी इलाकों में विस्तारित करने की अनुमति दी थी.
पूर्व सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने टीटीपी कमांडर नेक मोहम्मद वजीर के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस पर कुछ ही दिनों में समझौता हो गया. 2005 में जिहादी सरदार बैतुल्लाह महसूद के साथ एक और सौदा हुआ था और तीसरा स्वात में किया गया. 2008-2009 में कई और लिखित या अनौपचारिक समझौते किए गए थे.
2014 में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के तहत वार्ता के टूट जाने के बाद, पाकिस्तानी सेना को जिहादियों के खिलाफ युद्ध में जाने के लिए मजबूर किया गया था.
स्कॉलर अहसान बट ने कहा कि हर शांति समझौते में जिहादियों ने हिंसा को बढ़ाया ही है. यहां तक कि वैचारिक रूप से सहानुभूति रखने वाले प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था- ‘हमें दहशत फैलाने का इरादा रखने वालों का समर्थन करना चाहिए’ – भी सुलह कराने में नाकाम रहे.
इस्लामाबाद को उम्मीद थी कि इस्लामिक अमीरात के उदय से टीटीपी अफगानिस्तान में अपने सुरक्षित ठिकानों से बेदखल हो जाएगा. इसके बजाय, हजारों टीटीपी कैदियों को रिहा कर दिया गया, वे घर जा रहे हैं. पिछले साल आठ घंटे की ब्रीफिंग में जनरल बाजवा ने राजनीतिक नेताओं को आसन्न अराजकता की चेतावनी देते हुए कहा था कि तालिबान ने टीटीपी और अल कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय समूहों का समर्थन करना जारी रखा है.
आर्थिक मंदी के साथ-साथ राजनीतिक अराजकता का सामना करते हुए पाकिस्तानी सेना का मानना है कि युद्ध में जाना अब एक व्यवहार्य विकल्प नहीं है.
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