अठाइस छूरियों के घाव, दस तो पीड़ित की गर्दन काटने के लिए: कबूलनामे के वीडियो के बिना भी फॉरेंसिक मनोचिकित्सकों ने फौरन शक कर लिया होता कि कन्हैया लाल तेली की हत्या किसी हत्यारे के दिमाग में बैठे राक्षस का काम है. मोहम्मद रियाज और गौस मोहम्मद ने चुपचाप कबूल किया कि ‘खुदा से प्यार’ की वजह से उन लोगों ने दर्जी की हत्या कर दी, जिसने उनके मुताबिक उनके मजहब की तौहीन की थी. दूसरी ईश-निंदा हत्याओं की तरह हत्या की इस वारदात में भी उग्र धार्मिक आस्था और पागलपन के बीच की हद मिट गई. हालांकि ईश-निंदा से जुड़ी हत्याओं का अंधा जुनून सिर्फ उन लोगों में ही नहीं है, जिनका दिमाग फिर गया है. भारत में पहली ईश-निंदा से जुड़ी 1929 में कथित तौर पर ईश-निंदा किताब रंगीला रसूल के प्रकाशक महाशे राजपाल की हत्या बढ़ते सांप्रदायिक तनाव का संकेत थी, जिसका विस्फोट बंटवारे के दौरान हुआ.
आज देश जब आजादी के 75वें वर्ष में है, ऐसी ही धर्म आधारित हत्याओं की संख्या में इजाफा दिख रहा है, जो सोशल मीडिया पर वैचारिक समर्थकों की मंजूरी हासिल कर रहा है. इसी वजह से इस हफ्ते दिप्रिंट की सबसे बड़ी सुर्खी ईश-निंदा की हत्या है.
अधार्मिक युद्ध
असल में उन्हें वैचारिक रूप से तैयार करने की किस प्रक्रिया ने रियाज और गौस को हत्या करने को उकसाया, यह तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की पड़ताल और मुकदमे चलने के बाद ही उजागर हो पाएगा. उन दोनों ने ऑनलाइन बयान में कहा कि उन्हें सोशल मीडिया पर ईश-निंदा की आरोपी पूर्व भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा का तेली के समर्थन से गुस्सा आ गया. हालांकि हत्यारों का कोई पहले का आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, न ही उग्र इस्लामी गुटों से संबंधों के बारे में कोई जानकारी है.
सोशल मीडिया पर हत्याओं की वीडियो रिकॉर्डिंग डालना धर्म से प्रेरित हत्याओं का एक अहम पहलू बन गया है. ऐसा ही शंभूलाल रेगर ने भी 2017 में मुसलमान प्रवासी मजदूर की हत्या के वक्त किया था. उसके बाद से हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की तरफ से हत्याओं की वीडियो रिकॉर्डिंग देखने को मिली. पंजाब में कथित सिख विरोधी ईश-निंदा संबंधी हत्या का प्रसारण सोशल मीडिया पर किया गया.
हालांकि भारतीय सांप्रदायिक राजनीति में ईश-निंदा एक प्रमुख तत्व के रूप में सोशल मीडिया के उदय से काफी पहले 1988 में शुरू हुआ. सलमान रश्दी के सैटनिक वर्सेज किताब के खिलाफ प्रदर्शनों के बाद राजीव गांधी सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन इससे कश्मीर में दंगे नहीं रुके. मुंबई की हिंसा में भी 12 लोग मारे गए.
मौलवियों और कट्टरपंथियों सैटानिक वर्सेज ने उन आम मुसलमानों में जगह बनाने का मौका मुहैया करा दिया, जो बढ़ते सांप्रदायिक तनाव से डरे हुए थे और 1980 के दशक में धर्मनिरपेक्षता के प्रति सरकारी प्रतिबद्धता को लेकर शक-शुबहे की हालत में थे.
1920 के दशक की तरह ही ये ईश-निंदा से जुड़े दंगे भी तबाही की आहट थे. 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान बेहद बुरी सांप्रदायिक हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए. उन दंगों में भी ईश-निंदा हत्याओं की तरह ही वहशी हिंसा देखी गई. हालांकि उन्हें रिकॉर्ड करने के लिए तब स्मार्टफोन नहीं थे. सामाजिक कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर ने दर्ज किया कि हैदराबाद में एक छोटी बच्ची ने दया की भीख के लिए हाथ जोड़े तो उसके हाथ काट दिए गए, एक औरत के स्तन काट दिए गए, दूसरों के सिर बूटों तले कुचल डाले गए.
स्थानीय-धार्मिक आतंकी गुटों ने धर्म के कथित दुश्मनों को दंड देने के लिए हत्याएं की हैं. पंजाब में बब्बर खालसा ने खालसा आंदोलन पर रिपोर्टिंग करने संबंधी फरमान को न मानने के लिए पत्रकार मोहन लाल मनचंदा का सिर काट दिया. ऐसे ही कश्मीर में गला काट कर या सिर कलम कर दर्जनों हत्याएं हुई हैं.
पाकिस्तान में भी 1988 के बाद से ईश-निंदा संबंधी हत्याएं बढ़ गईं और आज भी जारी हैं. मुद्दा राजनैतिक समर्थन और पॉप कल्चर का असर भी है. 1990 में एक फिल्म इंटरनेशनल गोरिल्ला में एक कमांडो टीम दैवी बिजली गरजने के साथ रुश्दी को खोजती है और हत्या करती है.
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दुनिया भर में मार-काट
सदियों से धार्मिक योद्धा वहशीपन का इजहार करते रहे हैं. रेमंड डी’एगुइलर्स ने 1099 सीई में येरूशलम की लूट के चश्मदीद थे. उन्होंने लिखा, ‘टेंपल ऑफ सोलोमन में धर्म योद्धा खून से सने घुटनों और लगाम वाले घोड़ो पर चढ़े. कुछ नास्तिकों को निर्दयता से सिर काट दिया गया, दूसरों को तीरों से गूंथकर खंभों पर लटका दिया गया और कुछ दूसरों को लंबे समय तक यातना देकर जलती आग में जिंदा झोंक दिया गया.’
डी’एगुइलर्स आगे लिखता है, ‘येरूशलम में चारों तरफ शव बिखरे पड़े थे और खून बह रहा था. नास्तिकों का खून, जिन्होंने लंबे समय तक ईश्वर की निंदा की थी.’ उसके बाद की सदियों में कई दूसरे धार्मिक आंदोलनों ने क्रूर हत्या के तरीके अपनाए.
इस्लामी आतंकी गुटों ने पहली दफा यह एहसास किया कि दंड देने का वीडियो जारी करने से खौफ फैलेगा और ताकत का इजहार होगा. 2002 में पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या के बाद जेहादियों ने हत्या के वीडियो का जारी करना आम कर दिया.
2014 के बाद इस्लामिक स्टेट ने लगातार कथित काफिरों और ईश-निंदा के दोषियों की हत्या के वीडियो जारी करना शुरू कर दिया. एक वीडियो में एक छोटे बच्चे को एक छलांग लगाते आदमी को मारते दिखाया गया. नाइजीरिया में भी ईश-निंदा हत्याओं का सिलसिला चला, जहां जिहादी पश्चिम अफ्रीका के दूसरे देशों के साथ सक्रिय थे.
हालांकि हमेशा जेहादी ही ऐसी वहशीपन का इजहार नहीं करते रहे हैं. मैक्सिको के ड्रग माफिया ने भी 2007 से हजारों लोगों का सिर कलम किया है. यहां तक पीड़ितों को कुल्हाड़ी से काटते वीडियो भी जारी किया है. ये वीडियो ऐसे गोरखधंधों में लिप्त कइयों को प्रेरणास्रोत बने. जैसे, सायो पोलो में एक सीरियल कीलर, जापानी किशोरों ने एक तेरह साल लड़के का सिर कलम किया, और डच ड्रग डीलर.
पहले ही पहचान-धार्मिक भावनाओं में बंटे समाज में इस तरह की हत्याएं विशेष चिंता का विषय हैं. हर हत्या सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धियों को और वहशी प्रतिशोध अंजाम देने को उकसाती है और इससे बड़े पैमाने पर हिंसा फैलने की आशंका है.
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