महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन की बात आए तो आश्चर्य का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता. एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए बीजेपी ने बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे को बिना शर्त समर्थन का ऐलान कर दिया, जिन्होंने उद्धव ठाकरे के अपने पद से इस्तीफा देने के बाद बृहस्पतिवार को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. एक और नाटकीय मोड़ में बीजेपी के पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस ने डिप्टी सीएम की शपथ ली, वो पद जो उनके दावे के अनुसार पार्टी ने उनपर थोपा है.
शिंदे की नियुक्ति जो एक शिवसैनिक हैं, ठाकरे परिवार के मुंह पर भी एक करारा तमाचा है, जिसके मज़बूत नियंत्रण ने सत्ता के सभी फायदों को अपने करीबियों के लिए आरक्षित कर लिया था. शिंदे को चुनकर बीजेपी ने उनकी अगुवाई वाले विधायकों के गुट पर वैधता की मुहर लगा दी है. ये ‘बागी’ गुट अब वास्तविक या मूल शिवसेना के रूप में उभरेगा और अपने संस्थापक बाल ठाकरे के पदचिन्हों पर काम करेगा.
आत्मविश्वास से लबरेज़ नई टीम अब निर्वाचन आयोग के पास जाकर शिवसेना के चुनाव निशान धनुष और बाण पर भी दावा ठोक सकती है. अगर वो इसमें कामयाब हो जाती है तो शिवसेना ऐसी पहली क्षेत्रीय पार्टी बन जाएगी, जो वंशवाद के कलंक से मुक्त होगी. ऐसा संभव है कि इसके सभी विधायक जल्द ही बागी गुट में शामिल हो जाएं और शिंदे का गुट असली शिवसेना बन जाए.
बीजेपी का ये कदम दिग्गज राजनेता शरद पवार की महाराष्ट्र के किंग-मेकर छवि पर भी भारी पड़ गई है. ये उद्धव ठाकरे को उनका समर्थन ही था जिसने बीजेपी को किनारे किया और अकेली सबसे बड़ी पार्टी को ढाई साल तक सत्ता से दूर रखा. अब बीजेपी ने शरद पवार को ईंट का जवाब पत्थर से दे दिया है.
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उद्धव के गलत अनुमान
फ्लोर टेस्ट से पहले ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का उद्धव ठाकरे का फैसला, देर से आई अक्ल की बिल्कुल सही मिसाल है. जिस दिन उनके विश्वासपात्रों ने उनका साथ छोड़ा, उन्हें दीवार पर लिखी इबारत पढ़ लेनी चाहिए थी. नुकसान को काबू करने की बजाय उन्होंने अपने बेटे आदित्य और बड़बोले पार्टी प्रवक्ता संजय राउत को पार्टी को निकटस्थ पतन से बचाने का ज़िम्मा दे दिया. परिणाम ये हुआ कि उद्धव महाराष्ट्र विधानसभा में अपनी ताकत गंवा बैठे और उन्होंने विधान परिषद की भी अपनी सीट छोड़ दी है.
महाराष्ट्र की स्थिति में विडंबना का प्रतीक ये है कि अगर उद्धव ठाकरे पांच वर्ष के कार्यकाल में पहले बीजेपी के साथ सरकार बनाने पर सहमत हो जाते, तो वो मुख्यमंत्री पद पर बने रह सकते थे. उनका दावा था कि बीजेपी उस फॉर्मूले पर सहमत हो गई है, जबकि बीजेपी ने उसका खंडन किया था.
अगर मान भी लिया जाए कि ऐसा कोई समझौता था, तो भी उद्धव के लिए व्यावहारिक होता कि वो बीजेपी को आधे कार्यकाल तक सरकार चलाने देते. फिर अगर बीजेपी कुर्सी छोड़ने या कथित समझौते का सम्मान करने से इनकार करती, तो शिवसेना सरकार को छोड़कर बीजेपी को बेनकाब कर सकती थी. शायद तब वो पार्टी को टूटने से भी बचा सकती थी.
गठबंधन को छोड़ने के लिए उद्धव किसी भी वैचारिक मुद्दे को उठा सकते थे, जिनमें औरंगाबाद का नाम बदलकर संभाजीनगर रखना भी शामिल था (जो संयोग से उनका आखिरी प्रशासनिक निर्णय था).
गौरतलब है कि 1994 में जब बीजेपी और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, तो सेना का एक चुनावी वायदा औरंगाबाद का नाम बदलना था. इस हिंदुत्व-समर्थक मुद्दे ने उसे अप्रत्याशित चुनावी सफलता दिलाई. बीजेपी, जो ‘गांधीवादी समाजवाद’ के पीछे चल रही थी, चुनाव हार गई और उसका वोट बैंक भी घट गया. उस हार के बाद तत्कालीन प्रदेश बीजेपी ने अपनी सियासी रणनीति में एक बड़ा सुधार किया और शिवसेना के साथ गठबंधन में आ गई, जिसकी अगुवाई उसके करिश्माई नेता बाल ठाकरे कर रहे थे. इस साझेदारी से बीजेपी को एक महत्वपूर्ण आधार मिल गया, जिससे वो वापस घूमकर हिंदुत्व के एजेंडा पर आ गई और साथ ही उसने अपनी मध्यम मार्गी छवि भी बनाए रखी.
शिवसेना के लिए भी वो अपनी संकीर्ण उत्तर/दक्षिण भारतीय-विरोधी छवि को त्यागने का एक बेहतरीन अवसर था. पहली बार वो राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुई.
बाईस साल बाद, कांग्रेस तथा एनसीपी के साथ किए गठबंधन के नतीजे में, उद्धव ने अपनी उसी राजनीतिक पूंजी को गंवा दिया जो उनके पिता ने बड़े परिश्रम के साथ जमा की थी. बेटे को अपने वारिस और पार्टी के सर्वोच्च पद के उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करने की उद्धव की जल्दबाजी ने, उन्हें अपने वरिष्ठ सहयोगियों की आलोचना का निशाना बना दिया.
वास्तव में, बाल ठाकरे चुनाव लड़ने और किसी भी लाभ के पद पर बैठने से दूर ही रहे. इसके अलावा, जब सीएम उम्मीदवार चुनने का समय आया, तो उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ निष्ठावान मनोहर जोशी को अपने खुद के बेटे पर तरजीह दी.
आज, उद्धव ठाकरे के पास न तो सत्ता सुख है और न ही एक ऐसी पार्टी का प्रमुख होने का गौरव है जो कभी सूबे में राज करती थी.
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महाराष्ट्र में अब क्या
शिवसेना को मिली सीख उन सभी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के लिए एक संकेत है जिनकी कमान किसी एक परिवार के हाथ में है और जिनका सर्वोच्च पद परिवार के ही किसी सदस्य के लिए आरक्षित होता है. ऐसी पार्टियां सत्ता में तो आ जाती हैं लेकिन कुछ कर नहीं पातीं और मतदाताओं तथा अपने ही कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं पर पूरा नहीं उतर पातीं.
एमवीए सरकार के गिरने के बाद शिवसेना और एनसीपी दोनों के सामने अब एक गंभीर चुनौती है.
नई सरकार के लिए महाराष्ट्र को पटरी पर वापस लाने का काम आसान नहीं रहने वाला है. हालांकि शिंदे एक अनुभवी राजनेता हैं और बीजेपी नेतृत्व के अलावा उन्हें अपने सहयोगियों और समर्थकों का भी विश्वास हासिल है.
इसके अलावा, निवर्तमान सरकार ने जल्दबाजी में 390 से अधिक अधिसूचनाओं को स्वीकृति दे दी है. इनमें से अधिकांश उस समय जारी की गईं, जब ये जाहिर हो गया था कि सरकार अल्पमत में है और इन सभी प्रस्तावों को चुनौती दी जा सकती है या उन्हें वापस लिया जा सकता है.
शिंदे सरकार को उन इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का भी तुरंत ऑडिट कराना होगा, जो बजट खर्च को पार कर जाने के बाद भी अभी तक पूरी नहीं हुई हैं. उपनगर में आरे वन के एक बड़े हिस्से की बिक्री किसी घोटाले से कम नहीं है. पर्यावरण असंतुलन के आधार पर मेट्रो परियोजना को वन भूमि के एक छोटे से हिस्से को मेट्रो कार शेड के तौर पर इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी गई थी. नई सरकार को तुरंत कार्रवाई करते हुए यथा-पूर्व स्थिति को बहाल करना चाहिए.
(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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