पटियाला के राजपुरा में एक मुस्लिम परिवार 20 साल से रामलीला करा रहा है.
राजपुरा/चंडीगढ़: दिल्ली से दूर (जहां राजनीति के केंद्र में मंदिर-मस्जिद रहता है, हिंदू-मुस्लिम रहता है) एक छोटा सा औद्योगिक कस्बा है राजपुरा. पटियाला ज़िले के इस कस्बे में ये लकीर धूमिल है और इसका श्रेय जाता है एक 20 साल पुरानी रामलीला को जिसका आयोजन एक मुस्लिम परिवार करता है.
परिवार के मुखिया 56 साल के फकीर मोहम्मद कहते हैं कि अपने बचपन में जब से उन्होंने रामलीला पंडाल देखा वो उसके मुरीद हो गए. जिस पंडाल को उन्होंने देखा था वो श्री आदर्श महावीर क्लब का था जहां छह दशकों से शहर की सबसे बड़ी रामलीला होती थी. ये कुछ साल पहले बंद हो गई.
उन्होंने कहा, “मैं आयोजकों के छोटे-मोटे काम करने लगा. कुछ सालों में मुझे इस काम की समझ आ गई और मैं इसकी आयोजन समिति का हिस्सा बन गया. बाद में जब ये दो हिस्सों में बंट गयी, मुझमें इतना आत्मविश्वास था कि मैं अकेले अपने दम पर शो आयोजित कर सकूं.”
अब वो श्रीराम परिवार सोसाइटी की रामलीला का आयोजन करते हैं.
सीमा बटवारें के बाद उनका परिवार पास के राजपुरा शहर चला गया. मोहम्मद कहते हैं, “मैं सड़क किनारे बैठने वाला दर्ज़ी बन गया. बाद में मुझे एक गैस एजेंसी मिल गई और बाद में मैं सड़क पट्टी कॉन्ट्रेक्टर हो गया. आज मुझे राजपुरा के आबाद लोगों में गिना जाता है.”
“और ये सब इससे ही हुआ है. जब से मैं रामलीला में घुसा हूं, मैने जीवन में प्रगति की है. मैं मस्जिद जाकर नमाज़ भी पढ़ता हूं. मेरे लिए भगवान एक है बस उनका नाम और रूप बदलता है.”
एक पारिवारिक आयोजन
मोहम्मद का सारा परिवार इस रामलीला में सहयोग करता है. उनके छोटे बेटे अजय मोहम्मद रामलीला में लक्ष्मण बनते हैं और उनका पोता शफी, वानर सेना का सदस्य बनता है. उनके बड़े बेटे शौकत अली स्टेज को मैनेज करते हैं- बिजली और आवाज़ आदि. उनकी पत्नी पर्दे सिलती हैं और किरदारों के वस्त्र ठीक भी करती हैं. रामलीला के छोटे से छोटे भाग को उसकी पूरी मर्यादा से किया जाता है.
वो कहते हैं, “इस बार हमने संगीतकार और भजन गायक वृंदावन से बुलाएं हैं. वे बहुत अच्छे हैं.”
मोहम्मद रामलीला में इतने मस्त हो जाते हैं कि वो भूल जाते हैं कि ईद कब है, पर उन्हें अभी से पता है कि दशहरा अगले साल कब है! वे कहते हैं, “मैं उन दस दिनों का साल भर इंतज़ार करता हूं. और इसमें गहरी आत्मसंतुष्टि मिलती है.”
“अगर आप रामायण को करीब से जानते हैं तो आपको पता चलता है कि इसमें कोई झूठ नहीं है. ये एकदम शुद्ध है. ये रिश्तों पर एक टिप्पणी करता है- कैसे एक मां बाप, भाई, पति, बेटे को व्यवहार करना चाहिए. और रामलीला देखकर अगर हर साल एक आदमी भी सुधरता है तो ये बहुत बड़ी उपलब्धि है.”
पंजाब विश्वविद्यालय की उर्दू रामलीला
चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय के कर्मचारियों द्वारा आयोजित रामलीला भी विभिन्नता में एकता दर्शाती है. इसमें उर्दू में कथा लिखी जाती है.
“जब पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में होती थी तो वहां रामलीला श्री अर्जुन एमेचुअर ड्रामेटिक्स क्लब आयोजित करता था. इसको उर्दू में लिखा जाता था,” क्लब के महासचिव, संजय कौशिक बताते हैं.
वे कहते हैं, “बंटवारे के बाद जहां भी विश्वविद्यालय गया, रामलीला वहां पहुंची. उर्दू लिपि बनी रही पर अब हमें उसे देवनागरी में लिखना पड़ता है ताकि नए कलाकार उसे पढ़ सकें.”
रामलीला की कथा में कोई बदलाव नहीं है बस फर्क ये है कि राम और लक्ष्मण के संवाद में शकल, शख्स, भाईजान जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है. इसमें शायरों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली क्लासिकल उर्दू (फारसी पुट वाली) का प्रयोग नहीं होता.
कौशिक कहते हैं, “ऐसी उर्दू भाषा का इस्तेमाल होता है जो आम जनता भी समझ जाए.”
मुस्लमान और सिख कलाकार भाग लेते हैं
चंड़ीगढ़ की रामलीलाओं में मुसलमान और सिख कलाकार हिस्सा लेते हैं. उदाहरण के तौर पर सेक्टर 7 में नवयुग रामलीला और दशहरा कमेटी में मेकैनिकल इंजीनियर शेहज़ाद आलम कई साल तक हनुमान का किरदार निभाते रहे.
वे कहते हैं, “इस साल मुझे बाहर जाना है इसलिए मैं रामलीला में भाग नहीं ले रहा.” नसीम कोई भी किरदार निभा लेते हैं, एक सिख जयप्रीत भी मदद करते हैं.
रामलीला के आयोजक विकास सूद कहते हैं कि “हमें गर्व है कि वे हमारे साथ हैं. हम में कोई फर्क नहीं है.”
सेक्टर 22 में चंडीगढ़ रामलीला कमेटी में राक्षस की भूमिका एक सिख, गुरजीत सिंह निभाते हैं. वे कहते हैं कि “हम धर्म के बारे में सोचते भी नहीं हैं जब हम रामलीला करते हैं.”
मज़ेदार बात ये है कि चंडीगढ़ की सबसे बड़ी रामलीला जो सेक्टर 17 में होती है उसे श्री राम लीला कमेटी आयोजित करती है जिसके उपाध्यक्ष एस एम खान हैं.