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Friday, 22 November, 2024
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जाति जनगणना हिंदुओं तक सीमित न रखें- आदिवासी, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म के दलितों को शामिल करें

रंगनाथ मिश्रा कमिटी और सच्चर कमिटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों और आदिवासीयों के दयनीय स्तिथि स्पष्ट है.

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पिछले दिनों बिहार राज्य में हुई सर्वदलीय बैठक में एक मत से राज्य में जाति आधारित गणना करने के फैसले पर आम सहमति बन गई. इसके साथ ही लंबे समय से चली आ रही जाति जनगणना की मांग पर पहल करने में बिहार राज्य अग्रणी साबित हुआ है.

मालूम हो कि 1931 की जनगणना के बाद से अब तक अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों की संख्या जाहिर नही हो सकी है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने वादा करने के बावजूद 2011 में हुई 15वीं राष्ट्रीय जनगणना में अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित जातिगत गणना के आंकड़े एकत्र नहीं किए. सितंबर 2018 में, तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की थी कि 2021 में होने वाले 16वीं राष्ट्रीय जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के आंकड़े उपलब्ध होंगे. महाराष्ट्र विधान सभा, उड़ीसा विधान सभा और बिहार विधान सभा सहित कई राज्य विधानसभाओं ने अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़े एकत्र करने के लिए प्रस्ताव पारित किए, लेकिन फरवरी 2020 को केंद्र सरकार ने राज्यों की मांगों के बावजूद जातिगत जनगणना कराने से इनकार कर दिया था. पिछले वर्ष विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा राष्ट्रव्यापी रूप से इस मांग को उठाने के बाद केंद्र सरकार ने यह काम राज्यों के सुपुर्द कर दिया था.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत भारत के राष्ट्रपति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच करने के लिए आयोग गठित कर सकते हैं. अनुच्छेद 340 इस बात को स्पष्ट करता है कि कोई भी आयोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग की स्थिति की उचित पड़ताल के बाद ही सिफारिशें कर सकता है.

ऐसी स्तिथि में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातिगत आंकड़े एकत्र करना नितांत आवश्यक हो जाता है ताकि शिक्षा, रोजगार और राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित सभी पात्र समुदायों को आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का समुचित लाभ मिल सके.

पिछले वर्ष जातीय जनगणना करवाने की मांग के गहमा गहमी के बीच राजद द्वारा राज्य सरकार को लिखे पत्र में केवल हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों पर ही जोर दिया था जिससे खिन्न होकर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के लिए सहर्षरत देशभर के विभिन्न पसमांदा संगठनों और उसके कार्यकर्ताओ की ओर से तीखा विरोध करते हुए जाति जनगणना को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के करवाने का आग्रह किया गया.


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कोई नई बहस नहीं

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद से राजनैतिक पार्टियां अवगत न हों, 1955 में प्रस्तुत की गई काका कालेकर आयोग की रिपोर्ट ने मुसलमानों और अन्य धर्मों के बीच कुछ जातियों/समुदायों को भी पिछड़ा घोषित किया था. लेकिन काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने यह कह कर खारिज कर दिया था कि पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए आर्थिक मानदंड की जगह ‘जाति’ का प्रयोग किया गया है.

मण्डल आयोग ने सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का आकलन करने के लिए वर्ग और जाति के सम्मिश्रण पर आधारित संकेतक विकसित किया. आयोग ने सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया कि जातियां या जातियों जैसी संरचना केवल हिन्दू समाज तक ही सीमित नहीं थी, अपितु यह गैर-हिन्दू समूहों, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के बीच भी पाया जाता है.

प्रसिद्ध इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ केस में, 9 जजों की बेंच ने पिछड़ेपन के निर्धारक के रूप में आर्थिक मानदंड को खारिज कर दिया. न्यायालय ने जाति की अवधारणा को यह कहते हुए बरकरार रखा कि भारत में जाति एक सामाजिक वर्ग हो सकती है और प्रायः होती है. गैर-हिन्दूओं में पिछड़े वर्गों के सवाल पर, न्यायालय ने कहा कि उनकी पहचान उनके पारंपरिक व्यवसायों के आधार पर की जानी चाहिए.

इस प्रकार पिछड़ा वर्ग एक ऐसी श्रेणी है, जो बिना किसी धार्मिक भेदभाव के विशेष रूप से उन जाति समूहों को संदर्भित करता है जो सामाजिक पदानुक्रम में मध्य स्थान पर स्थापित हैं और आर्थिक, शैक्षिक और अन्य मानव विकास संकेतकों के मामले में पीछे रह गए हैं.

इस बात का ध्यान रखते हुए उक्त वर्णित सर्वदलीय बैठक में इस बात पर भी आम सहमति बनी कि मुस्लिम धर्मावलंबी लोगों की जातियों की भी गिनती होनी चाहिए, सामाजिक न्याय का दम भरने वाली पार्टियों की अपेक्षा अधिक मुखर होकर भाजपा की ओर से बिल्कुल स्पष्ट करते कहा गया कि ऐसा देखने में आया है कि मुस्लिम समाज का उच्च वर्ग अशराफ खुद को शेखरा और कुलहैया जाति का बता कर पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग का लाभ लेते रहें हैं. भाजपा की ओर से यह भी आशंका जताई गई कि कहीं ऐसा न हो कि अशराफ मुसलमान जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अगड़े हैं वो इस गणना की आड़ में पिछड़े और अति पिछड़े न बन जाएं. बिहार राज्य में ऐसा एक बार हो भी चुका है जब उच्च अशराफ वर्ग मलिक जाति(सैय्यद) ने स्वयं को पिछड़े वर्ग में सम्मिलित करवा लिया था. जिसके विरोध में संबंधित आयोग में शिकायत की गई थी लेकिन अभी तक इस मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है.

दलित हित के लिए

लेकिन अब भी एक महत्वपूर्ण सवाल, मुस्लिम समाज के आदिवासी और दलित की गिनती पर बैठक में खुल कर कुछ स्पष्ट बात नहीं कही गई. गौरतलब है कि हिन्दू समाज के अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति की गणना होती आई है किंतु अन्य धर्मों के दलितों और आदिवासियों की गणना भी सामाजिक न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. रंगनाथ मिश्रा कमिटी और सच्चर कमिटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों और आदिवासीयों के दयनीय स्तिथि स्पष्ट है. इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के साथ साथ दलित वर्ग और आदिवासी वर्ग के मुस्लिम समुदायों की गणना करवाना तर्क एवं न्याय संगत होगा.

अब तक आरक्षण का लाभ सभी धर्मों के पात्र समुदायों को उचित रूप से मिल रहा है कि नही इसकी समीक्षा के लिए भी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक जातिगत आंकड़ें जरूरी हो जाते हैं. बिना इसके यह तय कर पाना कठिन होगा कि अन्य पिछड़े वर्ग (मुस्लिम सहित) की कौन कौन सी जातियां आरक्षण का लाभ प्राप्त कर पा रहीं हैं और कौन कौन सी जातियों तक आरक्षण का लाभ प्रयाप्त रूप से नहीं पहुंच पा रहा है. इसी संदर्भ में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी ईश्वरैया जातिगत समूहों के वर्गीकरण को जरूरी बताते हुए एक सवाल के जवाब में कहते हैं कि ‘ओबीसी की केंद्रीय सूची में भी वर्गीकरण नहीं किया गया है. इसका नतीजा यह है कि अन्य पिछड़ा वर्ग की निर्धन जातियां आरक्षण के लाभ से वंचित हैं. ओबीसी सहित अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग का भी वर्गीकरण होना चाहिए. वो अन्य पिछड़े वर्ग को तीन समूहों में विभाजित करने के पक्षधर रहें हैं. हालांकि बिहार राज्य में ओबीसी को पिछड़े और अति पिछड़े में पहले ही विभक्त किया जा चुका है.

भारतीय समाज में सामाजिक न्याय को पूर्ण रूपेण स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दू समाज के साथ साथ अन्य सभी धर्मों यथा मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि के अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति से संबंधित सभी समुदायों की गिनती सुनिश्चित किया जाना समाज और राष्ट्र हित में होगा.

(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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