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Friday, 22 November, 2024
होमदेश‘हर वैवाहिक मामला बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है’—इलाहाबाद HC दहेज विरोधी कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के पक्ष में

‘हर वैवाहिक मामला बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है’—इलाहाबाद HC दहेज विरोधी कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के पक्ष में

जस्टिस राहुल चतुर्वेदी ने सोमवार को आईपीसी की धारा 498ए का ‘दुरुपयोग’ रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें एफआईआर के बाद दो महीने का ‘कूलिंग पीरियड’ शामिल किया गया है. इस अवधि में पति और परिजनों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.

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नई दिल्ली: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सोमवार को कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए—जिसके तहत किसी महिला पर उसके पति और परिजनों की तरफ से क्रूरतापूर्ण व्यवहार को अपराध की श्रेणी में रखा गया है—का दुरुपयोग ‘हमारे सामाजिक ताने-बाने पर प्रतिकूल असर डाल रहा है, खासकर उत्तर भारत में.’

जस्टिस राहुल चतुर्वेदी की बेंच ने आईपीसी की धारा के ‘दुरुपयोग’ को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए, ‘क्योंकि आम तौर पर व्यापक स्तर पर पति और परिवार के सभी सदस्यों पर सामान्य और बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है.’

कोर्ट की तरफ से जारी दिशानिर्देशों में से एक में कहा गया है कि धारा 498ए के तहत एफआईआर दर्ज कराए जाने की स्थिति में दो माह के ‘कूलिंग पीरियड’ के दौरान पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई या गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है.

आदेश में कहा गया है कि इन दो महीनों के दौरान मामले को संबंधित जिले की परिवार कल्याण समिति (एफडब्ल्यूसी) को भेजा जाना चाहिए.

हाई कोर्ट एक व्यक्ति और उसके माता-पिता की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें हापुड़ के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की तरफ से पारित 3 मार्च के आदेश की वैधता को चुनौती दी गई थी. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने पत्नी द्वारा उस व्यक्ति के खिलाफ दायर एक आपराधिक मामले में आरोपों से बरी करने के उसकी अपील ठुकरा दी थी.

उक्त महिला ने 2018 में दर्ज कराई गई एफआईआर में अपने पति पर दहेज उत्पीड़न के साथ-साथ यौन और शारीरिक हिंसा का आरोप लगाया था. उसने यह आरोप भी लगाया था कि उसके ससुर और देवर ने भी उससे ‘यौन संबंध’ बनाने की मांग की थी.

हाई कोर्ट ने सोमवार को महिला के ससुराल वालों के आरोपों से बरी करने के आवेदनों को स्वीकार कर लिया, साथ ही नोट किया कि वह और उसका पति अप्रैल 2017 से अलग रह रहे हैं—उनकी शादी केवल एक साल और चार महीने ही चली थी.

जज ने कहा, ‘हमारे पारंपरिक भारतीय परिवारों में, जहां वे अविवाहित बेटे के साथ एक संयुक्त परिवार में रह रहे हैं, ससुर या देवर की तरफ से यौन संबंध बनाने की मांग करने जैसे आरोपों को पचा पाना एकदम असंभव लगता है.’

हालांकि, अदालत ने महिला के पति के खिलाफ मुकदमा जारी रखने की अनुमति दी है.

जस्टिस चतुर्वेदी ने महिला की तरफ से 2018 में की गई एफआईआर में इस्तेमाल भाषा पर भी कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि एफआईआर कोई ‘सॉफ्ट पोर्न साहित्य नहीं है जिसमें पूरा सजीव विवरण दर्ज किया जाए.’

अपने फैसले में महिला के लगाए आरोपों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘बिना किसी शर्म या झिझक के घटना का ग्राफिक और विस्तृत वर्णन उसकी ‘मानसिक स्थिति’ और उसके मन में परिजनों को लेकर घुले ‘जहर की कड़वाहट’ को ही दर्शाता है.’

अदालत ने यह आदेश भी दिया कि हर जिले में एक परिवार कल्याण समिति (एफडब्ल्यूसी) होनी चाहिए. इसका नेतृत्व उस जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश या पारिवारिक अदालत के प्रिंसिपल जज को करना चाहिए.

बेंच ने कहा कि इन समितियों में किसी सरकारी लॉ कॉलेज या स्टेट यूनिवर्सिटी या नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के ‘सबसे वरिष्ठ-पांचवें वर्ष के छात्र’ को भी शामिल किया जा सकता है, जिसका ‘अकैडमिक ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा’ हो और जो ‘सार्वजनिक मामलों को लेकर उत्साही युवा’ हो.

साथ ही सुझाव दिया कि अन्य लोगों के अलावा जिले के वरिष्ठ न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारियों की ‘पढ़ी-लिखी पत्नियों’ को भी इसका हिस्सा बनाया जा सकता है.’


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‘सदियों पुरानी संस्था की पारंपरिक महक खत्म हो जाएगी’

धारा 498ए के ‘दुरुपयोग’ पर बात करते हुए बेंच ने कहा कि कई जोड़े अब विवाह संस्था की ‘कानूनी मान्यता, प्रतिबद्धता और जिम्मेदारियों’ से मुक्त होकर लिव-इन रिलेशनशिप में आ रहे हैं.

बेंच ने कहा कि इस तरह के रिश्ते ‘पारंपरिक भारतीय विवाह से इतर इसलिए जन्मे ताकि जोड़ों के बीच किसी तरह की कलह की स्थिति आने पर तमाम कानूनी जटिलताओं से बचा जा सके.’

कोर्ट ने कहा, ‘सामान्य तौर पर ऐसा देखा गया है कि हर वैवाहिक मामले में पति और परिवार के सभी सदस्यों से जुड़े दहेज संबंधित अत्याचारों को तीखे आरोपों के साथ कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है.’

इसने आगे कहा कि ‘अगर आईपीसी की धारा 498ए का इसी तरह बिना सोचे-समझे और व्यापक स्तर पर दुरुपयोग होता रहा तो हमारी सदियों पुरानी विवाह संस्था की पारंपरिक महक समय के साथ पूरी तरह से लुप्त हो जाएगी.’

एफआईआर कोई ‘सॉफ्ट पोर्न लिटरेचर नहीं’

इस पूरे प्रकरण के केंद्र में रहे जोड़े ने दिसंबर 2015 में शादी की थी.

अपने आदेश में बेंच ने कहा कि ‘इस रिश्ते में गहरी गलतफहमी थी और पति-पत्नी के बीच कोई संगति न होना कलह का कारण था, यहां कि दोनों एक-दूसरे के साथ एकदम दुश्मनों जैसा व्यवहार करते थे.’

महिला ने अपनी एफआईआर में आरोप लगाया था कि पति और उसके परिवार ने उसके परिवार से 50 लाख रुपए का और दहेज मांगा था.

आदेश के मुताबिक, उसने यह आरोप भी लगाया था कि उसके ससुर उसके साथ ‘यौन संबंध’ बनाना चाहते थे और यहां तक कि उसके देवर ने उसके साथ ‘शारीरिक तौर पर छेड़छाड़ की कोशिश भी की थी.’

उसने दावा किया कि उसके पति ने ‘अप्राकृतिक’ संभोग सहित कई तरह से उसे यौन और शारीरिक हिंसा का शिकार बनाया और उसके परिवार ने उसे गर्भपात के लिए मजबूर किया.

जस्टिस चतुर्वेदी ने कहा कि महिला ने ‘अपनी बात से पीछे हटे बिना कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर इन्हीं घटनाओं का अदालत के सामने बखान किया.’

अदालत ने एफआईआर में इस्तेमाल भाषा पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि ‘प्राथमिकी में उनके दिए ब्योरे का चित्रमय विवरण निंदनीय है, और इसकी कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए.’

बेंच ने कहा कि वह ‘एक महिला की तरफ से लगाए गए इन ग्राफिक और घटिया आरोपों को नजरअंदाज करना चाहती है, जिसने कानूनी सलाह लेने के बाद अपने पति और परिवार के अन्य सदस्यों पर इस तरह से कीचड़ उछाली थी.’

बेंच ने आगे कहा कि ‘एफआईआर की भाषा सभ्य होनी चाहिए और किसी शिकायतकर्ता के झेले गए अत्याचारों को इस तरह अभिव्यक्त करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता.’ साथ ही कहा कि ‘सही और सभ्य शब्दों में दिया गया ब्यौरा भी यह बात अभिव्यक्त कर सकता है कि उसे किन कथित अत्याचारों का सामना करना पड़ा है.’


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समिति में ‘उत्साही विधि छात्र’, ‘वरिष्ठ अधिकारियों की शिक्षित पत्नियां’ हों

कोर्ट ने धारा 498ए के तहत एफआईआर दर्ज होने वाले मामलों में परिवार कल्याण समिति की भूमिका और दो महीने के ‘कूलिंग पीरियड’ के दौरान अपनाई जाने वाली प्रक्रिया भी निर्धारित की है.

बेंच ने निर्देश दिया कि ‘वादी-प्रतिवादी’ दोनों को समिति के समक्ष अधिकतम ‘चार बड़े लोगों’ के साथ पेश होना होगा ताकि ‘समिति के सदस्यों की मदद से उनके बीच विवादों पर गंभीर विचार-विमर्श’ हो सके.

इसके बाद समिति एक ‘विस्तृत रिपोर्ट’ तैयार करेगी. इस बीच, पुलिस की तरफ से भी मामले पर ‘व्यापक पड़ताल’ करने की अपेक्षा की जाती है.

आदेश में कहा गया है, ‘अगर इस दौरान दोनों पक्षों के बीच समझौता हो जाता है, तो जिला एवं सत्र न्यायाधीश और जिले में उनके द्वारा नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों को इन आपराधिक मामलों को बंद करने सहित अन्य कार्यवाही की अनुमति होगी.’

जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी धारा 498ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए इसी तरह के दिशानिर्देश जारी किए थे, जिसमें इन प्रावधानों के तहत दायर शिकायतों को देखने के बाद परिवार कल्याण समितियों के गठन का निर्देश दिया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने भी व्यवस्था दी थी कि समिति की रिपोर्ट मिलने तक कोई गिरफ्तारी या दंडात्मक कदम नहीं उठाया जाएगा, ताकि पतियों और उनके परिवार के सदस्यों की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लग सके. सुप्रीम कोर्ट ने भी एक समान निर्देश जारी किया था जिसमें जिला एवं सत्र न्यायाधीश को दोनों पक्षों के बीच समझौते की स्थिति में आपराधिक मामला बंद करने की अनुमति दी गई थी.

हालांकि, सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह कहते हुए इस फैसले को आंशिक तौर पर संशोधित किया कि ‘परिवार कल्याण समिति से संबंधित निर्देश और समिति को दी गई शक्ति असीमित है.’

कोर्ट ने तब इस बात पर जोर दिया था कि ‘समितियों के कर्तव्यों का निर्धारण…आपराधिक कानून से कहीं आगे है कि वे कानून के ‘किसी भी प्रावधान के तहत नहीं आते हैं’ और इसलिए, अदालत उन निर्देशों को जारी नहीं कर सकती. इसके बाद इसने परिवार कल्याण समिति के साथ-साथ परस्पर समझौते से संबंधित निर्देशों को खारिज कर दिया था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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