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Tuesday, 5 November, 2024
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ओडिशा हाई कोर्ट ने राज्य की अदालतों पर जारी की देश की पहली वार्षिक रिपोर्ट जो दिखाती है गंभीर तस्वीर

रिपोर्ट राज्य की अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित होने के पीछे की वजहों की पहचान करती है, जिसमें अदालतों पर बढ़ता मामलों का बोझ, जिला न्यायाधीशों के बीच केस का असमान वितरण और स्टे आर्डर से जुड़े मामलों में कार्यवाही शामिल है.

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नई दिल्ली: देश में पहली बार ओडिशा हाई कोर्ट ने एक ऐसी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की है जो राज्य न्यायपालिका के प्रदर्शन पर गहन नजर डालती है और उसके निष्कर्ष कतई संतोषजनक नहीं हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मामलों का बढ़ता बोझ, जिला न्यायाधीशों के बीच मामलों का असमान वितरण, गवाहों की अनुपलब्धता, मुकदमे का सामना कर रहे संदिग्धों का लापता होना और किसी भी मामले में छह महीने से ज्यादा स्टे नहीं देने के 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही तरह से लागू नहीं किया जाना आदि वजहों से ओडिशा की जिला अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं.

वर्ष 2021 की रिपोर्ट पिछले हफ्ते ऑनलाइन जारी की गई थी. यह 2021 में न्यायपालिका के खर्च के साथ-साथ जिला अदालतों में लंबित केस की संख्या घटाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर की गई पहल और न्याय प्रशासन में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग की दिशा में उठाए गए कदमों का भी ब्योरा देती है.

रिपोर्ट का एक अध्याय—‘आत्मनिरीक्षण और चुनौतियां’—उन फैक्टर का विश्लेषण करता है जिनके कारण न्यायपालिका का प्रदर्शन ‘उम्मीदों से कम प्रतीत होता है.’ इसमें जज और आबादी के बीच अनुपात को अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामलों का एक प्रमुख कारण बताया गया है. साथ ही अन्य कारणों पर भी विस्तार से जानकारी की दी गई है.


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लंबित मामलों से निपटना

रिपोर्ट बताती है, ‘निस्संदेह, न्यायपालिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती डॉकेट विस्फोट यानी लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि है. यद्यपि मामलों की वृद्धि न्यायपालिका के प्रति लोगों के बढ़ते विश्वास को दर्शाती है, लेकिन यह चुनौतियां भी पैदा करती है.’

रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 की शुरुआत में ओडिशा हाई कोर्ट में कुल 1,73,510 मामले लंबित थे. लेकिन साल भर में 1,28,943 नए मामले दर्ज किए गए, जबकि 1,05,334 में फैसला आया. इसलिए, वर्ष के अंत तक लंबित मामलों की संख्या बढ़कर 1,97,119 हो गई.

रिपोर्ट के मुताबिक, एक अर्ध-न्यायिक निकाय ओडिशा प्रशासनिक न्यायाधिकरण—जो सरकारी कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच विवादों का निपटारा करता था—को खत्म किए जाने के बाद हाई कोर्ट पर लगभग 40,000 अतिरिक्त मामलों का बोझ बढ़ा है.

निचली अदालतों में 2021 के अंत में लंबित मामलों की संख्या 15,92,250 से बढ़कर 17,89,677 हो गई.

जिला अदालतों में लंबित मामलों संबंधी आंकड़े बताते हैं कि 2021 की शुरुआत में 25 साल पुराने 12,236 मामलों में अंतिम निपटारा किया जाना बाकी था, और इस साल के दौरान, 2,907 नए मामले जुड़ गए.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ठोस प्रयासों के जरिये इस श्रेणी में लंबित मामलों की संख्या को घटाकर 9,540 तक पहुंचा दिया गया है.

इसी तरह के दृष्टिकोण ने ट्रायल कोर्ट को 40 साल पुराने मामले निपटाने में मदद की. 2021 के शुरू में ऐसे 305 मामले लंबित थे, जो अब घटकर केवल 164 रह गए हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, जिला अदालतों में मामले लंबित होने का एक प्रमुख कारण हाई कोर्ट से जारी होने वाले स्टे ऑर्डर भी हैं.

इसमें दावा किया गया है कि अदालतें सुप्रीम कोर्ट के 2018 के आदेश को ठीक से लागू नहीं कर रही हैं, जिसने फैसला सुनाया था कि कोई स्टे ऑर्डर छह महीने से अधिक समय तक काम नहीं करेगा, जब तक इस संबंध में विस्तार से कोई विशिष्ट ‘निर्देश वाला ऑर्डर’ नहीं दिया जाता.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ट्रायल कोर्ट को किसी अन्य सूचना की प्रतीक्षा किए बिना (छह महीने के बाद) कार्यवाही फिर शुरू करने की आजादी दी थी.

ओडिशा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस एस. मुरलीधर ने इस फैसले का हवाला देते हुए राज्य के सभी न्यायिक अधिकारियों को अप्रैल और अक्टूबर 2021 में दो पत्र भेजकर कानून का पालन करने को कहा था.

रिपोर्ट में कहा गया है, नतीजतन 40 साल पहले के 154 मामलों में से 131 और 25 साल पहले के 1,237 मामलों में से 703 पर फैसला आ सका, जो स्थगन के कारण लंबित पड़े थे.

केस लंबित होने के अन्य फैक्टर

अदालती आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट जिला न्यायाधीशों के बीच मामलों के असमान वितरण को भी चिंता का कारण मानती है. इसमें ‘सबसे ज्यादा लंबित’ मामलों के लिहाज से ओडिशा के छह जिलों की पहचान की गई है. ऐसा ही एक जिला खोरधा है, जहां पर 1,91,122 केस लंबित मामले हैं. इनमें से सबसे ज्यादा केस–82,960—तो अकेले भुवनेश्वर के उप-विभागीय न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट में लंबित हैं.

मामले धीमी गति से निपटाने की अन्य वजहों में संदिग्धों का लापता होना, गवाहों की अनुपलब्धता, अभियुक्तों को पकड़ने में नाकामी—खासकर छोटे अपराधों के मामलों में—और जमानत कराने में असमर्थता शामिल है.

रिपोर्ट कहती है कि इन कारणों से यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत मामलों की सुनवाई के साथ-साथ महिलाओं के खिलाफ अपराध, सतर्कता मामले और एससी/एसटी अधिनियम के तहत गठित विशेष अदालतें भी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी हैं.

दीवानी मामलों में, खासकर संपत्ति संबंधी मामलों में, पक्षकारों को सम्मन नहीं दिया जाना मुकदमे में देरी के पीछे प्राथमिक कारण है. भूमि का सीमांकन कर संपत्तियों की पहचान करने वाले और अदालती आदेशों का पालन करते हुए भूमि आवंटित करने वाले अमीन आयुक्तों की अनुपलब्धता की वजह से भी अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं.

रिपोर्ट में बताया गया है कि मृतक पक्ष के कानूनी वारिसों को मुकदमों में प्रतिस्थापित नहीं किए जाने या यह देर से किए जाने के कारण भी तमाम मामले लंबित हैं.

न्यायाधीशों और आबादी के बीच अनुपात—प्रति दस लाख आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या 21.03 के राष्ट्रीय औसत की तुलना में ओडिशा में 20.52 ही है.

रिपोर्ट के मुताबिक, हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 33 है, लेकिन इस समय वर्किंग स्ट्रेंथ सिर्फ 21 है. रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया काफी लंबी है, और यही वजह है कि इसके लिए मार्च 2021 में जिन पांच नामों की सिफारिश की गई थी उसमें से चार की नियुक्ति उसी वर्ष नवंबर में जाकर हो पाई. ओडिशा हाईकोर्ट में आखिरी बार नियुक्तियां इस साल फरवरी में हुई थीं.

जिला अदालतों के संबंधी में रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में मौजूदा समय में 785 न्यायाधीश कार्यरत हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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